यदि आईआईटी, कानपुर के शोध और एक अमेरिकी संस्था के आकलन को बतौर चेतावनी लें तो मई महीने में कोरोना का कहर और घात होगा। उम्मीद तो यही करते हैं कि आने वाले सप्ताह में भारत की सरकारी मशीनरी आक्सीजन, अस्पताल में बिस्तर जैसी मूलभूत सुविधाओं में सुधार करेगी, लेकिन संक्रमण की गति बहुत तेज होगी। देश में संक्रमण के सहजता से फैलने का करण समाज की लापरवाहियां तो हैं ही, जिसमें सोशल डिस्टेंस और मास्क लगाने का पालन नहीं करना और ख्ुाद के स्वास्थ्य के प्रति लापरवाही शामिल है। लेकिन, हकीकत यह है कि आम भारतीय खासकर शहरों में रहने वालों की रोग प्रतिरोधक क्षमता बहुत जर्जर है। न तो उन्हें सांस लेने को स्वच्छ हवा है और न कंठ को साफ पानी, जिस भोजन को पैष्टिक मानकर शहरवासी खा रहे हैं, असल में वह निहयत जहरीले परिवेश में उगाया जा रहा है। ऐसे में एक तो बाहरी वायरस जल्दी मार करता है, दवाओं का असर भी अपेक्षाकृत धीरे-धीरे होता है।
दुनिया के तीस सबसे दूषित शहरों में भारत के 21 हैं। हमारे यहां सन 2019 में अकेले वायू प्रदूषण से 17 लाख लोग मारे गए। यह किसी से छिपा नहीं है कि कोरोना वायरस जब फेफड़ों या स्वांस-तंत्र पर अपना कब्जा जमाता है तो रोगी की मृत्यू की आशंका बढ़ जाती है। जिन शहरों के लोगों को फेफड़े वायू प्रदूशण से जितने कमजोर हैं, वहां कोविड का कहर उतना ही संहारक है। जान लें कि जैसे-जैसे तापमान बढेगा, दिल्ली एनसीआर में सांस के रोगी भी बढ़ेंगे और इसके साथ ही कोरोना का कहर भी बढ़ेगा। जिन शहरों-दिल्ली, मुंबई, प्रयागराज, लखनऊ, इंदौर, भोपाल, पुणे आदि में कोरोना इस बार सबसे घातक है, वहां की वायु गुणवत्ता बीते कई महीनों से गंभीरता की हद से पार है। दिल्ली से सटे गाजियाबाद को बीते तीन सालों से देश के सबसे प्रदूषित शहर की सूची में पहले तीन स्थानों पर रहने की शर्मनाक ओहदा मिला है।
गत पांच सालों के दौरान दिल्ली के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल एम्स में सांस के रोगियों की संख्या 300 गुणा बढ़ गई है। एक अंतरराष्ट्रीय शोध रिपोर्ट में बताया गया है कि अगर प्रदूषण स्तर को काबू में नहीं किया गया तो साल 2025 तक दिल्ली में हर साल करीब 32,000 लोग जहरीली हवा के शिकार हो कर असामयिक मौत के मुंह में जाएंगे। सनद रहे कि आंकड़ों के मुताबिक वायु प्रदूषण के कारण दिल्ली में हर घंटे एक मौत होती है।
भले ही रास्ते में धुंध के कारण जाम के हालात न हों, भले ही स्मॉग के भय से आम आदमी भयभीत न हो, लेकिन सूर्य की तपन बढ़ने के साथ ही दिल्ली की सांस ज्यादा अटकती है। एनसीआर में प्रदूषण का स्तर अभी भी उतना ही है, जितना सर्दियों में धुंध के दौरान हुआ करता था। यही नहीं, इस समय की हवा ज्यादा जहरीली व जानलेवा है। देश की राजधानी के गैस चैंबर बनने में 43 प्रतिशत जिम्मेदारी धूल-मिट्टी व हवा में उड़ते मध्यम आकार के धूल कणों की है। दिल्ली में हवा की सेहत को खराब करने में गाड़ियों से निकलने वाले धुएं से 17 फीसदी, पैटकॉक जैसे पेट्रो-र्इंधन की 16 प्रतिशत भागीदारी है। इसके अलावा भी कई कारण हैं, जैसे कूड़ा जलाना व परागण आदि। जानलें हवा में जहर के ये हालात जैसे दिल्ली-गाजियाबाद के, वैसे ही जयपुर, औरंगाबाद, पटना, प्रयागराज या रांची व रायपुर के हैं।
हानिकारक गैसों एवं सूक्ष्म कणों से परेशान महानगर वालों के फेफड़ों को कुछ महीने हरियाली से उपजे प्रदूषण से भी जूझना पड़ता है। विडंबना है कि परागण से सांस की बीमारी पर चर्चा कम ही होती है। वैज्ञानिकों के अनुसार पराग कणों की ताकत उनके प्रोटीन और ग्लाइकॉल प्रोटीन में निहित होती है, जो मनुष्य के बलगम के साथ मिल कर करके अधिक जहरीले हो जाते हैं। ये प्रोटीन जैसे ही हमारे खून में मिलते हैं, एक तरह की एलर्जी को जन्म देते हैं। एक बात और कि हवा में परागणों के प्रकार और घनत्व का पता लगाने की कोई तकीनीक बनी नहीं है।
वैसे तो परागणों के उपजने का महीना मार्च से मई मध्य तक है लेकिन जैसे ही जून-जुलाई में हवा में नमी का स्तर बढ़ता है, तो पराग और जहरीले हो जाते हैं। हमारे रक्त में अवशोषित हो जाते हैं, जिससे एलर्जी पैदा होती है। यह एलर्जी इंसान को गंभीर सांस की बीमारी की तरफ ले जाती है। चूंकि गर्मी में ओजोन लेयर और मध्यम आकार के धूल कणों का प्रकोप ज्यादा होता है, ऐसे में परागण के शिकार लोगों के फेफड़े ज्यादा क्षतिग्रस्त होते हैं। यदि ऐसे में इंसान पर कोरोना का आक्रमण हो जाए तो जल्दी ही उसके फेफड़े संक्रमित हो जाएंगे।
यह तो सभी जानते हैं कि गरमी के दिनों में दिल्ली, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब के बड़े हिस्से में हवा एक से डेढ़ किलोमीटर ऊपर तक तेज गति से बहती है। इसी लिए मिट्टी के कण और राजस्थान-पाकिस्तान के रास्ते आई रेत लोगों को सांस लेने में बाधक बनती है। मानकों के अनुसार पीएम की मात्रा 100 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर वायु होना चाहिए, लेकिन अभी तो पारा 37 के करीब है और यह खतरनाक पार्टिकल 240 के करीब पहुंच गए हैं। इसका एक बड़ा कारण विकास के नाम पर हो रहे ताबड़तोड़ व अनियोजित निर्माण कार्य भी हैं, जिनसे असीमित धूल तो उड़ ही रही है, यातायात जाम के दिक्कत भी उपज रही है। पीएम ज्यादा होने का अर्थ है कि आंखों में जलन, फेफड़े खराब होना, अस्थमा और कोविड।
यह भी जानना जरूरी है कि वायुमंडल में ओजोन का स्तर 100 एक्यूआई यानि एयर क्वालिटी इंडेक्स होना चाहिए। लेकिन जाम से हलकान दिल्ली में यह आंकड़ा 190 तो सामान्य ही रहता है। वाहनों के धुएं में बड़ी मात्रा में हाईड्रो कार्बन होते हैं और तापमान चालीस के पार होते ही यह हवा में मिल कर ओजोन का निर्माण करने लगते हैं। यह ओजोन इंसान के शरीर, दिल और दिमाग के लिए जानलेवा है। इसके साथ ही वाहनों के उत्सर्जन में 2.5 माइक्रो मीटर व्यास वाले पार्टिकल और गैस नाइट्रोजन आॅक्साइड है, जिसके कारण फेफड़े बेहद कमजोर हो जाते हैं।
वायू प्रदूषण को और खतरनाक स्तर पर ले जाने वाले पैटकॉन पर रोक के लिए कोई ठोस कदम न उठाना भी हालात को खराब कर रहा है। साथ ही तेजी से विस्तारित हो रहे शहरों में हरियाली सजाते समय ऐसे पेड़ों से परहेज करना जरूरी है, जिनमें परागण बड़े स्तर पर गिरते हैं। इससे बेहतर नीम, पीपल जैसे पारंपरिक पेड़ होते हैं। जिनकी उम्र भी लंबी होती है और एक बार लगने पर कम रखरखाव मांगते हैं। आने वाले दिन सांसों पर कड़ी निगरानी के हैं और ऐसे में वायू प्रदूषण से जितना बचें, उतना ही कोविड के प्रकोप से बच सकते हैं। सरकार को भी लोगों के श्वसन तंत्र को ताकतवर बनाने के लिए दूरगामी योजनओं पर काम करना होगा, इसका पहला कदम शहरों में भीड़ कम करना ही होगा।