अमित शाह के बयान को बाबा साहब के संविधान सभा में दिए अंतिम भाषण के सन्दर्भ में देखना काफी दिलचस्प होगा। अमित शाह की यह एक खूबी राजनीति में रेयर है, पोलिटिकली करेक्ट न हो तब भी वो बात कहने की ताकत। बाबा साहब ने संविधान सभा के अपने अंतिम भाषण में तीन महत्वपूर्ण बातें कही थी। ये बातें नहीं चेतावनी थी। भारत के हर नागरिक को इसे ताबीज बना कर अपने गले से लटका कर चलना चाहिए, क्योंकि ये तीन चेतावनियां ही किसी को भी एक लोकतांत्रिक राष्ट्र का सशक्त नागरिक होने का एहसास कराते है। बाबा साहब ने जॉन स्टुअर्ट मिल को कोट करते हुए कहा था: ‘हम भारतीयों को एक महान व्यक्ति के पैरों में अपनी स्वतंत्रता गिरवी नहीं रखनी चाहिए और तमाम शक्तियों से लैस उस महान व्यक्ति पर भी ज्यादा विश्वास नहीं करना चाहिए, जिससे कि वह हमारी संस्थाओं का नाश करने में सक्षम हो जाए। इसमें कुछ भी गलत नहीं है कि हम उन लोगों के प्रति आभारी बनें, जिन्होंने देश के लिए जीवन भर सेवाएं दीं, लेकिन कृतज्ञता की भी एक सीमा होनी चाहिए। भक्ति (किसी व्यक्ति की) या नायक पूजा लोकतंत्र के क्षरण और संभावित तानाशाही के लिए एक मार्ग प्रशस्त करती है।’
इस उक्ति को मैं इंदिरा गांधी से लेकर मौजूदा प्रधानमंत्री तक के संदर्भ में देखता हूं। कदाचित, मैं अमित शाह की तारीफ नहीं करता। लेकिन, कल-परसों जब बाबा साहब वाली टिप्पणी उन्होंने की, तो मुझे लगा कि यह शख्स इतना अबूझ भी नहीं की राजनीतिक रूप से इतना खतरनाक बयान दे दे। यह शायद इस व्यक्ति की मूलवृति है कि सच बोल दो, भले नुक्सान हो जाए। वैसे भी जो अपने घर से निकाला जा चुका हो, उसे और अधिक भय क्या होगा? गांधी जी के चतुर बनिए बयान से बाबा साहब पर ताजा बयान तक, अमित शाह का बयान मैं सिर्फ और सिर्फ उपरोक्त कोट (बाबा साहब के भाषण) के सन्दर्भ में ही देखना चाहता हूं।
बाबा साहब में आस्था रखने वालों से पूछना चाहता हूं की आप बाबा साहब को कितना जानते हैं? क्या आपने सिर्फ इसी एक भाषण के अंश को पढ़ा और समझा है, जिसमें बाबा साहब खुद व्यक्ति पूजा, नायक पूजा को लोकतंत्र के लिए खतरा बताते हैं। आप बाबा साहब के निर्देश (पढ़ो-लिखो, ताकतवर बनो) पर कितना अमल करते हैं। आपके लिए नायक प्रोफेसर रतन लाल होने चाहिए, जिन्होंने पढ़ लिख कर अपने समाज के लिए मिसाल पेश की या कोई टुच्चा नेता, जिसकी भाषा में भी बाबा साहब की शाब्दिक गरिमा तक नहीं झलकती? या आपको मैनिपुलेट करने वाला एक टुच्चा टाइप पूर्व पत्रकार जो आजकल सरकार की नायक और व्यक्ति पूजा में लीन है? ऐसे में अमित शाह ने बिलकुल सही कहा की आप किसी व्यक्ति को फैशनेबल बना कर अपने समाज या राष्ट्र का भला नहीं कर सकते। जैसे, सावरकर-सावरकर या दीनदयाल उपाध्याय का नाम लेते रहने से हिंदुओं का कोई भला नहीं होने वाला है। क्योंकि मैं तमाम भाजपा समर्थकों से सिर्फ इतना पूछ लूं कि देने दयाल उपाध्याय जी के एकात्म मानववाद का सर्पिल संरेखण (स्पाइरल स्ट्रक्चर) का अर्थ क्या है, तो मुंह बा देंगे।
इसलिए, मुझे लगता लगता है की पॉपुलर परसेप्शन से दूर जा कर खतरनाक सच बोलने के लिए बहुत हिम्मत चाहिए। यह हिम्मत मैं राहुल गांधी में भी कई बार देखता हूं, लेकिन मनुस्मृति बिना पढ़े उस पर टिप्पणी कर के वे कभी-कभी लड़खड़ा जाते है। ऐसे में अमित शाह का बयान राजनीतिक रूप से भले करेक्ट न हो, व्यवहार्य में एकदम सटीक है। आप माने ना माने। हिन्दुस्तान के दलित विमर्श में या अन्य ऐसे किसी भी ऐसे विमर्श को ले कर एक बड़ी दुविधाजनक स्थिति है। दलित साहित्य पर बात प्रेमचंद करेंगे, लेकिन उनकी आलोचना होगी। बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री दोक्टोरे श्रीकृष्ण सिंह देवघर के मंदिर में दलितों को एंट्री दिलाएंगे और भारत का पहला राज्य बिहार को बनाएंगे जहां, बाकायदा कानून बना कर जमींदारी प्रथा का उन्मूलन किया गया, लेकिन उन्हें हमेशा सवर्णों का नेता ही माना जाएगा। वैसे ही वीपी सिंह ने मंडल आरक्षण के जरिये एक मूक सामाजिक क्रान्ति ला दी, लेकिन पिछड़ों का नेता उन्हें कभी नहीं माना जाएगा। तो, यह सब परसेप्शन और एक आम धारणा का खेल है, जो अक्सर राजनीति में सबसे फिट बैठता है। मसल, मुस्लिम तुष्टिकरण एक ऐसा शब्द है, जिसे मैं आज तक समझ नहीं पाया। 70 साल तक अगर किसी एक कौम का तुष्टिकरण किसी दल ने किया, तब भी वह कौम आज विकास के सभी पैमानों पर कहां है, इसे बताने के लिए इस देश को सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्रा कमिशन बनाना पड़ता है।
ऐसे में, बाबा साहब के नाम पर या कांशीराम जी के नाम पर राजनीति तो होगी ही, लेकिन, उनके विचारों को कितना अमल में लाया जाएगा, यह किसी के एजेंडे पर नहीं है। चाहे वह कांग्रेस हो, मायावती हो या भाजपा ही क्यों न हो? इस हम्माम में सब साफ-सुथरे कपडे पहन कर मजा ले रहे हैं। ऐसी स्थिति में अमित शाह या किसी भी नेता के द्वारा बाबा साहब पर ऐसा बयान देना कितना खतरनाक हो सकता है, सब जानते हैं। फिर भी, सच बोलना हिम्मत की बात है। अमित शाह ने हिम्मत की। और मैं इसलिए ऐसा कह रहा हूं कि मैं इस बयान को सिर्फ और सिर्फ बाबा साहब के उपरोक्त भाषण के नजरिये से ही देख रहा हूं। रह गई बात विकास की, तो कौन किसका विकास करता है, यह सवर्ण भी जानते हैं, दलित भी जानते हैं, पिछड़े भी जानते हैं, अल्पसंख्यक भी। लेकिन, राजनीति है और राजनीति सबको करनी है, सो राजनीति का लोकतंत्र का नृत्य जारी है।