महर्षि वरतंतु ने कौत्स को पाल-पोसकर बड़ा किया था। उनका उस पर परम स्नेह था। उन्होंने उसे अपना समस्त ज्ञान प्रदान किया था। शिक्षा पूरी करने के बाद कौत्स को आश्रम छोड़ना था। जाते समय वह गुरुके सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और बोला, ‘गुरुदेव! मुझसे गुरु दक्षिणा ले लें। गुरु ऋण चुकाए बिना मेरी विद्या व्यर्थ हो जाएगी।’ वरतंतु ने अनसुना कर दिया।
कौत्स ने जिद की तो उन्होंने कहा, ‘यदि तुम नहीं मानते हो तो अपनी सीखी हुई चौदह विद्याओं के लिए चौदह सहस्र स्वर्ण मुद्राएं लाकर दे जाओ।’ कौत्स ने आज्ञा मान ली। वह अयोध्या पहुंचा, जहां उन दिनों चक्रवर्ती सम्राट रघु राज्य कर रहे थे। कौत्स को अपनी सभा में आया देखकर रघु ने उन्हें दंडवत प्रणाम किया। कौत्स निर्विकार भाव से इधर-उधर देखता रहा। फिर चलने लगा।
रघु ने विनम्र स्वर में पूछा, ‘ऋषिवर! आपने सेवक को कुछ आज्ञा नहीं दी? अवश्य ही मेरी सेवा में कुछ त्रुटि रही है।’ असल में कौत्स के आने से कुछ दिनों पूर्व ही सम्राट रघु ने जनहित में किए गए यज्ञ में अपना सर्वस्व दान कर दिया था। यह जानकर कौत्स चुप था। पर राजा के बार-बार आग्रह करने पर उसने अपने आने का कारण बताया। रघु के द्वार से कोई याचक वापस चला जाए, वह असंभव था। उन्होंने कौत्स से प्रार्थना की, ‘महात्मन! मुझे तीन दिन का समय दें।
मैं आपकी इच्छा अवश्य पूरी करूंगा।’ रघु ने कुबेर पर चढ़ाई करने का संकल्प लिया। पर सुबह राजा के उठते ही कोषाध्यक्ष ने सूचना दी कि कोष में आकाश से सोने की वर्षा हो रही है। रघु का खजाना स्वर्ण मुद्राओं से भर गया। रघु ने कौत्स से सारे धन ले जाने का आग्रह किया। कौत्स बोला, ‘राजन, हमें सारे की आवश्यकता नहीं है, मैं तो केवल चौदह सहस्र मुद्राएं ही लूंगा।’ शेष धन रघु ने गांवों को दान कर दिया।