सदियों पहले हमारी स्वतंत्रता छीन चुके गोरों ने 1931 में आज ही के दिन ‘गुमी हुई आजादी की कीमत’ पहचानकर सशस्त्र संघर्ष की मार्फत उसे अदा कर रहे तीन क्रांतिकारी नायको-ंशहीदे आजम भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव-को भी हमसे छीन लिया था। लाहौर सेंट्रल जेल में फांसी के लिए तय तारीख और वक्त से पहले ही उनके साथ अपने बनाये कई नियम-कायदों को भी शहीद करके। इन नायकों द्वारा खुशी-खुशी अपने प्राण देकर अदा की गई स्वतंत्रता की यह कीमत कितनी जरूरी और बड़ी थी, इसे ठीक से समझने के सारे रास्ते उनकी शहादतों से बारह साल पहले 1919 में 13 अप्रैल को ऐन बैसाखी के दिन पंजाब के अमृतसर शहर में स्वर्ण मन्दिर के पास स्थित जलियांवाला बाग में हुए कांड की ओर जाते हैं। गोरे जनरल डायर ने उस दिन कुख्यात रौलेट ऐक्ट के विरुद्ध उक्त बाग में एकत्रित पूरी तरह शांत व संयत भीड़ पर बर्बर पुलिस फायरिंग कराकर हजारों निर्दोषों को हताहत कर डाला था। उसकी इस नृशंसता ने देश के नवयुवकों को न सिर्फ गुस्से से भर दिया, बल्कि किसी भी कीमत पर स्वतंत्रता हासिल करने के लिए बेसब्र कर दिया था। इसलिए इसके अगले ही बरस महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन शुरू किया तो वे बड़ी उम्मीदों के साथ उसमें सक्रिय हुए थे। कई जगह तो उन्होंने आगे बढ़कर समूचे आन्दोलन को अपने हाथ में ले लिया था।
लेकिन चार फरवरी, 1922 को हुए चौरी-चौरा कांड (जिसमें 23 पुलिसकर्मी गुस्साई भीड़ द्वारा थाने में लगाई गई आग से जलकर मर गये थे) के बाद महात्मा ने अचानक आंदोलन वापस ले लिया तो ज्यादातर युवकों का अहिंसक स्वतंत्रता संघर्षों से मोहभंग हो गया। फिर तो वे चंद्रशेखर आजाद की हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी से जुड़कर सशस्त्र संघर्षों के जरिये स्वतंत्रता के सपने देखने लगे। इन संघर्षों के लिए धन जुटाने हेतु नौ अगस्त, 1925 को उन्होंने पं. रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में लखनऊ में काकोरी के पास पैसेंजर ट्रेन रोककर उसमें ले जाया जा रहा सरकारी खजाना लूट लिया तो गोरी सरकार उन्हें सबक सिखाने को आतुर हो उठी।
जांच व मुकदमे के बेहिस नाटक के बाद उसने राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को 17 दिसम्बर, 1927 को, तो रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्लाह खां व रौशन सिंह को 19 दिसम्बर, 1927 को क्रमश: गोंडा, गोरखपुर, फैजाबाद और इलाहाबाद की मलाका जेल में फांसी पर लटकाकर शहीद कर दिया, साथ ही उनके कई साथियों को दूसरी लंबी-लंबी सजाएं दिला दीं, तो अधीर युवकों का धैर्य भी जाता रहा।
30 अक्टूबर, 1928 को लाहौर में साइमन कमीशन के विरुद्ध उग्र प्रदर्शन पर हुए भीषण लाठीचार्ज में आई सांघातिक चोटों के चलते 17 नवम्बर, 1928 को कांगे्रस के गरमदल के नेता पंजाब केसरी लाला लाजपतराय का निधन हो गया, तो युवकों के अधैर्य की आग में और घी पड़ गया।
वे पंजाबकेसरी के इस कथन को प्रमाणित करने के लिए प्राणों की बाजी लगाने पर उतर आए कि ‘मेरे शरीर पर पड़ी एक-एक लाठी ब्रिटिश सरकार के ताबूत में एक-एक कील का काम करेगी।’ हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी ने फौरन पंजाब केसरी की मौत का बदला लेने की ठान ली। लेकिन 17 दिसम्बर, 1928 को उन पर प्राणघातक लाठीचार्ज के लिए जिम्मेदार पुलिस सुपरिंटेंडेट जेम्स ए स्कॉट की हत्या की योजना पर अमल के दौरान भगत सिंह व राजगुरू ने गफलत में उसके सहायक जॉन पी सांडर्स को भून डाला।
दरअसल, हुआ यह कि लाला के निधन के ठीक एक महीने बाद वे स्कॉट को मारने के इरादे से लाहौर स्थित पुलिस हेडक्वार्टर के बाहर पहुंचे तो स्कॉट की जगह सांडर्स बाहर निकल आया और गलत पहचान के कारण भगत सिंह व राजगुरु ने उसे ही स्कॉट समझकर मार गिराया। उस पर पहली गोली राजगुरु ने चलाई, दूसरी भगत सिंह ने और उसके घायल होकर गिर जाने के बाद भी वे उस पर गोलियां चलाते रहे। इस बीच सिपाही चानन सिंह भगत सिंह को पकड़ने बढ़ा तो हालात पर नजर रख रहे चन्द्रशेखर आजाद ने उसे भी मौत के घाट उतार दिया।
इसके बाद आजाद साधुवेश धारण करके मथुरा चले गए, जबकि भगत सिंह कलकत्ता। पुलिस को चकमा देने के लिए भगत सिंह ने रौबीले अफसर के रूप में ‘पत्नी, बेटे व अर्दली के साथ’ ट्रेन के फर्स्ट क्लास में यात्रा की। क्रांतिकारी भगवतीचरण वोहरा की पत्नी श्रीमती दुर्गा वोहरा, जिन्हें क्रांतिकारी दुर्गा भाभी कहा करते थे, उनकी पत्नी बनकर साथ गर्इं, जबकि राजगुरू अर्दली बनकर। दुर्गा भाभी का तीन साल का बेटा उनका बेटा बना।
लेकिन ‘बहरों को सुनाने के लिए जोरदार धमाके की जरूरत’ महसूस करते हुए भगत सिंह ने आठ अप्रैल, 1929 को बटुकेश्वर दत्त के साथ सेंट्रल असेंबली में बम फेंके और भाग जाने के बजाय खुद को गिरफ्तार कराने का विकल्प चुन लिया तो पुलिस ने बिना देर किए उनको लाहौर की मियांवाली जेल में शिफ्ट कर दिया, ताकि वे सांडर्स हत्याकांड में मुकदमे का सामना कर सकें। 30 सितम्बर, 1929 को नागपुर से पुणे जाते समय राजगुरू भी पुलिस के हत्थे चढ़ गए।
पुलिस की नजर में मुख्य षडयंत्रकारी सुखदेव के लिए भी गिरफ्तारी से बचे रहना नहीं ही संभव हुआ। जेल में अधिकारियों ने भगत सिंह की उन्हें व अन्य क्रांतिकारी कैदियों को ‘राजनीतिक बंदी’ मानने और पुस्तकें व समाचारपत्र उपलब्ध कराने की मांग ठुकरा दी तो उन्होंने जेल में बन्द अपने साथियों के साथ 15 जून से 5 अक्टूबर, 1929 तक 112 दिन लंबी भूख हड़ताल कर अपना गांधीवादी रूप भी दिखाया।
पुलिस ने जहां भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव समेत 14 लोगों को सांडर्स की हत्या का मुख्य अभियुक्त बनाया, वहीं भगत सिंह ने मुकदमे की प्राय: सारी सुनवाई में अदालत को क्रांतिकारी विचारों के प्रचार के मंच की तरह इस्तेमाल किया। उन्होंने निर्भय होकर मान लिया कि उन्होंने व उनके क्रांतिकारी साथियों ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ युद्ध छेड़ रखा है, जो उनके बाद भी जारी रहेगा।
तब तक, जब तक गैरबराबरी और मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण का खात्मा नहीं हो जाता। राजगुरू व सुखदेव के साथ उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई तो तीनों ने मांग की थी कि उन्हें फांसी देने के बजाय सैनिक टोली के हाथों गोलियों से उड़वा दिया जाए, क्योंकि वे युद्धबंदी हैं। ज्ञातव्य है कि भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को असेम्बली बम कांड में उम्रकैद की सजा भी सुनाई गई थी। हालांकि उनके फेंके बमों से कोई जान नहीं गई थी, क्योंकि उन्होंने जानबूझकर ऐसी जगह बम फेंके थे, जहां कोई नहीं था।