Tuesday, March 28, 2023
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बेमानी हैं दोनों पेंशन योजनाएं

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दोनों तरह की पेंशन से यहां मतलब सरकारी कर्मचारियों के लिए नयी और पुरानी पेंशन योजना न होकर नयी पेंशन योजना (राष्ट्रीय पेंशन प्रणाली) और कर्मचारी पेंशन योजना (ईपीएस) है। इन दोनों पेंशन योजनाओं में काफी अंतर है, परंतु दोनों तरह की पेंशन में ऐसी कमियां हैं जो दोनों को बेमानी बना देती हैं। पेंशन का बुनियादी उद्देश्य वृद्धावस्था में आर्थिक सुरक्षा देना है। सुरक्षा के लिए सुनिश्चितता आवश्यक है, लेकिन नयी पेंशन प्रणाली में पेंशन में अंशदान तो सुनिश्चित एवं अनिवार्य है, परन्तु पेंशन के रूप में वापसी भुगतान अनिश्चित है; यह शेयर बाजार पर निर्भर करता है। सवाल उठना लाजमी है कि अगर पेंशन भुगतान बाजार के भरोसे छोड़ा जा सकता है, तो पेंशन और कर्मचारियों की भविष्य-निधि की खातिर अंशदान अनिवार्य क्यों? भविष्य की चिंता पूरी तरह बाजार, यानी व्यक्ति के भरोसे क्यों नहीं छोड़ी जा सकती? पहले और आज भी, कर्मचारी मुख्य तौर पर निवेश करने या न करने के लिए स्वतंत्र हैं- वे चाहें तो जमीन-जायदाद खरीदें या सोना, शेयर या फिर कुछ न बचाएं, परंतु वृद्धावस्था में आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सरकारी एवं कुछ श्रेणी के गैर-सरकारी कर्मचारियों के लिए कुछ निवेश अनिवार्य किया गया है।

ऐसी व्यवस्था दुनिया के लगभग सभी देशों में है। स्पष्ट रूप से अगर वृद्धावस्था के लिए निवेश करना अनिवार्य है और न्यूनतम मात्रा सुनिश्चित है, तो उसका प्रतिफल यानी पेंशन भी सुनिश्चित होनी चाहिए। संभवत: भारत सरकार भी इस बात को सिद्धांत रूप में स्वीकार करती है। इसलिए तमाम तरह के तथाकथित आर्थिक सुधारों के बावजूद आज भी कर्मचारी पेंशन योजना, जो कुछ श्रेणियों के निजी क्षेत्र के कर्मचारियों पर भी लागू होती है, में पेंशन को बाजार के भरोसे न छोड़कर सुनिश्चित पूर्व-निर्धारित लाभ मिलता है, जो अंतिम वेतन का लगभग 50 प्रतिशत होता है। सुनिश्चितता के साथ-साथ वृद्धावस्था में आर्थिक सुरक्षा का दूसरा मापदंड यह है कि सारी उम्र काम करने के बाद, वृद्धावस्था में भी व्यक्ति जिस जीवन-स्तर का आदी बन चुका है, कमोबेश उसी तरह की जीवन-शैली अपना सके।

अगर सेवानिवृत्ति के बाद जीवन-स्तर में बड़ी गिरावट आती है या आने की संभावना होती है, तो यह असुरक्षा का भाव पैदा करती है। इसलिए सुनिश्चितता और पर्याप्तता ये दोनों पेंशन के अनिवार्य अंग होने चाहिए। दुर्भाग्य से कर्मचारी पेंशन योजना में आज भी सुनिश्चितता तो है, परन्तु पर्याप्तता नहीं है। कर्मचारी पेंशन योजना में पेंशन की अधिकतम राशि (33 साल की नौकरी के बाद) 7500 रुपये मासिक है। हाल में आए सुप्रीमकोर्ट के फैसले के बाद भी वर्तमान कर्मचारियों की पेंशन की अधिकतम सीमा नहीं बदली है; केवल 2014 से पहले के कर्मचारियों की पेंशन से अधिकतम सीमा हटी है।

अधिकतम सीमा जरूर हो, परन्तु आज की परिस्थितियों में सारी उम्र काम करने के बाद 7500 रुपये मासिक में गरिमामय निर्वाह होना मुश्किल है। सबसे बड़ी बात यह है कि कर्मचारी पेंशन योजना में महंगाई भत्ते की व्यवस्था ही नहीं है। बढ़ती कीमतों के दौर में पेंशन में महंगाई भत्ते का होना आवश्यक है। यह सवाल उठना लाजमी है कि क्या वृद्धावस्था में आर्थिक सुरक्षा केवल कर्मचारी को चाहिए? मजदूर, कारीगर, किसान, दुकानदार या व्यापारी को क्यों नहीं? निश्चित तौर पर इन सबको भी वृद्धावस्था में आर्थिक सुरक्षा चाहिए।

शायद सरकार भी सिद्धांत तौर पर इसे स्वीकार करती है। इसलिए वर्तमान राष्ट्रीय पेंशन प्रणाली में सबके लिए सुनिश्चित वृद्धावस्था पेंशन का प्रावधान है। अटल पेंशन योजना, जो राष्ट्रीय पेंशन प्रणाली का अंग है, देश के हर नागरिक के लिए उपलब्ध है। सरकारी कर्मचारियों की नयी पेंशन योजना के विपरीत अटल पेंशन योजना में पेंशन की राशि बाजार पर निर्भर न होकर सुनिश्चित है। दुखद यह है कि यह सुनिश्चित राशि मात्र 1000 से लेकर अधिकतम 5000 ही हो सकती है।

क्या इतनी राशि में वृद्धावस्था में इंसान गरिमामय जीवन जी सकता है? वृद्धावस्था आर्थिक सुरक्षा के लिए अनिवार्य दोनों तत्व-सुनिश्चितता और पर्याप्तता- आज किसी भी पेंशन व्यवस्था में नहीं हैं; सुनिश्चितता है, तो पर्याप्तता नहीं है। सवाल उठता है कि भारत जैसा देश सबकी पेंशन का बोझ कैसे उठा सकता है? आमतौर पर हम भूल जाते हैं कि हर तरह के सरकारी खर्च का बोझ तो नागरिकों पर ही पड़ता है। यह पैसा नेताओं या अधिकारियों की जेब से नहीं आता। इसलिए कोई भी व्यवस्था हो, वृद्धावस्था का बोझ तो नागरिकों पर ही पड़ता है, पड़ना है।

अंतर केवल इतना है कि ये बोझ अकेले-अकेले झेलें या मिल-जुलकर? आपदा का बोझ एक भुक्तभोगी पर पड़ता है, तो वह बोझ तले दब सकता है, लेकिन अगर यही बोझ पूरे समूह पर पड़े तो बंटकर हल्का हो जाता है, वहनीय हो जाता है! यही अंतर है, सरकार की पुरानी पेंशन प्रणाली और सरकारी कर्मचारियों की नयी पेंशन प्रणाली में। सरकार का पेंशन की ओर अंशदान पहले जितना था अब भी उतना ही है। फर्क यह है कि पहले पेंशन फंड के निवेश का जोखिम सरकार यानी पूरे समाज पर था और अब यह व्यक्ति पर है।

अगर सरकार यानी पूरा समाज बाजार का जोखिम नहीं उठा सकता, तो इसका बोझ व्यक्ति पर डालना कैसे तर्कसंगत हो सकता है? यह ठीक है कि औसत आयु बढ़ने से हाल के वर्षों में पेंशन की अवधि लंबी हो गई है और शायद आने वाले समय में यह और भी लंबी हो सकती है, परंतु इसके लिए पेंशन को व्यवहारिक रूप से खत्म न करके पेंशन कुछ कम की जा सकती है।

अंतिम वेतन का 50 प्रतिशत न करके इसे कुछ कम किया जा सकता है, मसलन-45 पतिशत, परंतु पेंशन सुनिश्चित होनी चाहिए, पर्याप्त होनी चाहिए और महंगाई से जुडी होनी चाहिए। सबसे जरूरी बात यह है कि यह सबके लिए होनी चाहिए, क्योंकि वृद्धावस्था सबकी आनी है। इसे केवल कर्मचारियों तक सीमित नहीं होना चाहिए।
अपने कर्मचारियों की पेंशन के लिए जितना अंशदान सरकार करती है, वैसा ही अंशदान सब तरह के निजी क्ष्रेत्र के नियोक्ता एवं स्वरोजगारी स्वयं कर सकते हैं, परंतु सारे पेंशन फंडों-सरकारी, निजी और स्वरोजगारियों के पेंशन फंडों-को एकत्र करके इसका प्रबंधन किया जाना चाहिए।

समय-समय पर आवश्यकतानुसार अंशदान एवं भुगतान में छोटे-मोटे बदलाव किए जा सकते हैं, परन्तु यह बदलाव सबके लिए हों एवं पेंशन भुगतान सुनिश्चित तथा पर्याप्त हो। कई राज्य सरकारों ने पुरानी पेंशन व्यवस्था को बहाल करने का निर्णय लिया है। अन्य राज्यों में भी सरकारी कर्मचारी इसकी मांग कर रहे हैं, परंतु इसका दायरा बढ़ाकर, अटल पेंशन योजना और कर्मचारी पेंशन योजना को भी इसमें शामिल करके, सबके लिए सुरक्षित वृद्धावस्था का आन्दोलन चलना चाहिए। भले ही विभिन्न श्रेणियों के आंदोलन की गतिविधियां या कार्यक्रम अलग-अलग हों, परन्तु परिप्रेक्ष्य कर्मचारी, किसान, मजदूर, दुकानदार, व्यापारी सबके लिए सुरक्षित वृद्धावस्था का हो।


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