करोड़ों भारतीय आतुर थे कि हमारे देश के खिलाड़ी टोक्यो ओलम्पिक में शानदार प्रदर्शन करें और अधिक-से-अधिक संख्या में पदक लेकर स्वदेश लौटें। अनेक भारतीय खिलाड़ियों ने दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित खेल स्पर्धा में पदक जीते, परंतु इस सफलता का उत्सव मनाने की बजाय कुछ लोग विजेताओं की जाति और धर्म का पता लगाने के प्रयासों में जुटे हुए थे। भारत में सांप्रदायिक और जातिगत पहचानों के मजबूत होते जाने की प्रक्रिया के चलते यह आश्चर्यजनक नहीं था, बल्कि यह भारत में धार्मिक और जातिगत विभाजनों को और गहरा करने का सुबूत था। इस प्रक्रिया को हमारी वर्तमान सरकार जबरदस्त प्रोत्साहन दे रही है और शासन से जुड़े अत्यंत मामूली से लेकर अत्यंत गहन-गंभीर मुद्दों को सांप्रदायिक रंग देने का हर संभव प्रयास कर रही है। संविधान के अनुसार भारत एक धर्मनिरपेक्ष प्रजातंत्र है, जिसमें राज्य का कोई आधिकारिक धर्म नहीं है।
हम शुरूआत असम से करते हैं, जो अपने पड़ोसी राज्य मिजोरम के साथ गंभीर विवाद में उलझा हुआ है। पूर्वोत्तर भारत और विशेषकर असम का सामाजिक-राजनीतिक तानाबाना अत्यंत जटिल हैं।
वहां के लोगों की अनेक पहचानें हैं- धार्मिक, नस्लीय व भाषाई। वहां बड़ी संख्या में प्रवासी रहते हैं और वहां के राज्यों की सीमाओं को अनेक बार मिटाया और नए सिरे से खींचा गया है। असम में पिछले कुछ वर्षों से राजनैतिक उथल-पुथल मची हुई है और वहां के लाखों नागरिक अनिश्चितता के माहौल में जी रहे हैं। उन्हें पता नहीं है कि कब उन्हें उनकी नागरिकता से वंचित कर दिया जाएगा।
‘नागरिकों की राष्ट्रीय पंजी’ (एनआरसी) का मुद्दा राजनैतिक है, जो ‘बांग्लादेशी प्रवासियों’ के प्रति नफरत के भाव से प्रेरित है, परन्तु दरअसल इसके निशाने पर हैं बांग्ला-भाषी हिन्दू और मुसलमान। इसने असम के समाज को विभाजित और अस्थिर कर दिया है।
इस संदर्भ में असम के मुख्यमंत्री का यह आरोप उनकी ही पोल खोलने वाला है कि दोनों राज्यों के बीच सीमा विवाद के पीछे धार्मिक पहचानें हैं। उन्होंने कहा कि असम द्वारा पूरे क्षेत्र में बीफ का प्रदाय रोकने के प्रयासों के कारण ईसाई-बहुल मिजोरम में गुस्सा है।
यह आरोप झूठा है, क्योंकि दोनों राज्यों के बीच सीमा विवाद का लंबा इतिहास है। इस विवाद में पांच लोगों ने अपनी जान गंवाई है और पूरे उत्तर-पूर्व में अशांति फैलने का खतरा पैदा कर दिया है।
असम और मिजोरम के बीच सीमा विवाद की शुरुआत असम के ‘लुशाई हिल्स’ क्षेत्र को एक अलग राज्य मिजोरम का दर्जा देने से हुई।
इस विवाद के पीछे हैं-1875 की एक अधिसूचना, जिसके अंतर्गत ‘लुशाई हिल्स’ और कछार के मैदानी इलाकों का पृथक्करण किया गया और 1933 में जारी एक अन्य अधिसूचना जिसमें ‘लुशाई हिल्स’ और मणिपुर के बीच सीमा का निर्धारण किया गया।
मिजोरम का मानना है कि सीमा निर्धारण का आधार 1875 की अधिसूचना होनी चाहिए, जो ‘बंगाल ईस्टर्न फ्रंटियर रेगुलेशन (बीईएफआर) एक्ट-1873’ से उद्भूत थी। इस एक्ट के निर्माण के पहले मिजो लोगों से विचार-विनिमय किया गया था।
असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा से यह उम्मीद की जा रही थी कि वे एक परिपक्व राजनेता की तरह इस बहुत पुराने और जटिल विवाद का हल निकालेंगे। उसकी जगह, उन्होंने विवाद के लिए पूरी तरह से मिजोरम को दोषी ठहराते हुए उसे असम से मिजोरम में गायों के परिवहन से जोड़ दिया।
असम ने हाल में एक कानून पारित कर राज्य में गायों के वध को प्रतिबंधित कर दिया है। सरमा ने यह संदेश देने की कोशिश की कि यह विवाद इसलिए शुरू हुआ क्योंकि ईसाई-बहुल मिजोरम को यह भय था कि इस कानून से राज्य में बीफ की कमी हो जाएगी।
उन्होंने एक विशुद्ध राजनैतिक विवाद को साम्प्रदायिक रंग दे दिया। जाहिर है कि इससे विवाद का कोई कारगर हल निकलने की सम्भावना कम ही हुई। सरमा द्वारा प्रस्तावित ‘असम कैटल प्रिजर्वेशन बिल-2021’ राज्य के उन सभी इलाकों में बीफ और बीफ उत्पादों की खरीदी-बिक्री को प्रतिबंधित करता है जहां मुख्यत: हिंदू, जैन, सिक्ख और ऐसे अन्य समुदाय रहते हैं जो बीफ का सेवन नहीं करते और जो किसी भी मंदिर या सत्र (वैष्णव मठ) से पांच किलोमीटर से कम दूरी पर हैं।
यह विधेयक असम के रास्ते दूसरे राज्यों में मवेशियों के परिवहन पर भी रोक लगाता है। यह असम के समाज को बीफ खाने वालों और न खाने वालों में बांटने की कवायद है। इस कानून से पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में बीफ का प्रदाय गंभीर रूप से प्रभावित होगा, क्योंकि असम ही उत्तर-पूर्व के राज्यों को शेष भारत से जोड़ता है।
इन राज्यों में बीफ खाने वाले लोगों की खासी आबादी है। यह कानून इस क्षेत्र की संस्कृति में दखल है और खानपान की स्वतंत्रता के अधिकार पर हमला है। इसके जरिये बीफ के मुद्दे पर पूर्वोत्तर के समाज का ध्रुवीकरण करने और बीफ के सेवन को सांप्रदायिक पहचान से जोड़ने का प्रयास किया जा रहा है।
राज्य की सरकार द्वारा सांप्रदायिकता की आग को सुलगाए रखने के प्रयासों का यह एकमात्र उदाहरण नहीं है। राज्य द्वारा दो बच्चों की नीति को लागू करने के लिए बनाए गए कानून का बचाव करते हुए सरमा ने मुसलमानों को सीधे निशाना बनाया।
इस कानून के अंतर्गत, छोटे परिवार वालों को शासकीय नौकरियों और पदोन्नति में प्राथमिकता दी जाएगी। इसके अलावा, दो से अधिक संतानों वाले लोग पंचायत चुनाव नहीं लड़ सकेंगे। सरमा ने कहा, अगर प्रवासी मुस्लिम समुदाय, परिवार नियोजन अपना लें तो हम असम की कई सामाजिक समस्याओं को हल कर सकते हैं।
क्या सरमा की ‘अपील’ का यह अर्थ नहीं है कि राज्य की सामाजिक समस्याओं के लिए मुसलमान जिम्मेदार हैं? यह विडम्बना ही है कि इस तरह के गंभीर आरोप लगाते समय सरमा ने किन्हीं भी तथ्यों या आंकड़ों का हवाला नहीं दिया।
सरमा ने जनसंख्या वृद्धि को एक समुदाय से जोड़कर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को और गहरा करने का प्रयास किया, जबकि यह सर्वज्ञात है कि जनसंख्या वृद्धि का संबन्ध विकास, शिक्षा और महिलाओं के सशक्तिकरण से है।
कमजोर समुदायों को निशाना बनाने और हर मुद्दे को धर्म के चश्मे से देखने का यह सिलसिला असम तक सीमित नहीं है। वर्तमान सत्ताधारी दल इस्लाम के प्रति डर का माहौल पैदा कर रहा है। यह कहा जा रहा है कि मुसलमान इस देश के लिए खतरा हैं और इस खतरे से निपटने के लिए कानून बनाया जाना आवश्यक है।
ऐसे कानून बनाए जा रहे हैं जो अल्पसंख्यकों को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाते हैं। देश के विकास में उनके योगदान को नकारा जा रहा है। केवल बहुमत के बल पर बिना किसी बहस के कानूनों को पारित किया जा रहा है। धर्म-निरपेक्षता के झीने से पर्दे को भी यह सरकार हटाने पर आमादा है।
(अंग्रेजी से अनुवाद अमरीश हरदेनिया)