प्रख्यात वकील, प्रतिबद्ध लेखक, अनूठे हिंदी समर्थक, स्वतंत्रता सेनानी, भारत रत्न, आधुनिक भारत के चाणक्य, 1946 में बनी देश की अंतरिम सरकार के उद्योग मंत्री, मद्रास से संविधान सभा के सदस्य, आजादी के बाद बंगाल के राज्यपाल, स्वतंत्र भारत के पहले और अंतिम भारतीय गवर्नरजनरल, जिन्होंने पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को शपथ दिलाई, फिर नेहरू कैबिनेट में बिना विभाग के और सरदार वल्लभभाई पटेल के निधन के बाद गृह विभाग के मंत्री रहे और अनंतर तमिलनाडु के मुख्यमंत्री और स्वतंत्र पार्टी के संस्थापक रहे। चक्रवर्ती राजगोपालाचारी के (जिन्हें आमतौर पर राजाजी के नाम से जाना जाता है और जिनकी असाधारण प्रतिभा, अप्रतिम ईमानदारी व निर्मल नैतिकता के कारण महात्मा गांधी उन्हें ‘अपनी अन्तरात्मा के रक्षक’ और ‘विवेक के रखवाले’ कहते थे) ऐसे एक नहीं, अनेक परिचय हैं। एक यह भी कि वे महात्मा के समधी हुुआ करते थे।
1878 में 10 दिसंबर को यानी आज के ही दिन तमिलनाडु के कृष्णागिरी जिले के थोरापल्ली में जन्मे राजाजी ने 1917 में वहां की सेलम नगरपालिका के अध्यक्ष पद का चुनाव जीतकर सार्वजनिक जीवन शुरू किया और दो साल बीतते-बीतते 1919 में महात्मा गांधी के आग्रह पर अपनी जमी-जमाई वकालत छोड़कर आजादी की लड़ाई में प्रवृत्त हो गए। पीछे मुड़कर उसका नफा-नुकसान नहीं देखा, जबकि उस समय उन्हें वकालत से इतनी कमाई होती थी कि वे सेलम के पहले ऐसे वकील थे, जिसने कार खरीदी थी। उनके जीवन की राह बदलने में महात्मा गांधी के अस्पृश्यता उन्मूलन आंदोलन व हिंदू-मुस्लिम एकता के कार्यक्रमों ने निर्णायक भूमिका निभाई थी।
आगे चलकर महात्मा से उनकी नजदीकी इतनी बढ़ गई थी कि जब भी महात्मा को किसी गंभीर मसले में कोई सलाह लेनी होती, वे उन्हें ही याद करते। दोनों की इस नजदीकी की सबसे कड़ी परीक्षा तब हुई, जब राजाजी ने अपनी बेटी लक्ष्मी को महात्मा के वर्धा स्थित आश्रम में रहने भेजा। दरअसल, कुछ ही दिनों में लक्ष्मी व महात्मा के छोटे बेटे देवदास के बीच प्यार हो गया और उन्होंने परस्पर शादी करनी चाही। पहले तो महात्मा व राजाजी दोनों में से कोई भी इस अंतजार्तीय विवाह के लिए राजी नहीं हुआ, लेकिन बाद में उन्होंने प्रेमी जोड़े से कहा कि वे अगले 5 साल एक दूजे से अलग रहें। पांच साल के बिछोह के बाद भी उनका प्यार कायम रहा तो उनकी शादी कर दी जाएगी। अंतत: 1933 में ऐसा ही हुआ और महात्मा व राजा जी समधी बन गए। गौरतलब है कि 1919 में राजाजी आजादी की लड़ाई में कूदे तो देश उस कुख्यात रोलेट एक्ट के खिलाफ आंदोलित था, जो गोरी सरकार को बिना किसी मुकदमे के स्वतंत्रता संघर्ष से जुड़े किसी भी व्यक्ति को देशद्रोही बताकर गिरफ्तार करने व जेल भेज देने का अधिकार देता था। राजाजी ने न सिर्फ इस कानून के विरुद्ध आंदोलन में बल्कि असहयोग आंदोलन, वायकोम सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा आंदोलन में भी बढ़-चढ़कर भाग लिया और पांच बार जेल की यातनाएं भोगीं। अलबत्ता, 1937 के चुनावों के बाद वे मद्रास के प्रधानमंत्री (तब मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री कहलाते थे) बने, लेकिन 1939 में अंग्रेज वायसराय द्वारा एकतरफा निर्णय लेकर भारत को दूसरे विश्वयुद्ध में धकेल देने के विरोधस्वरूप पद छोड़ दिया और 1942 में ‘अंग्रेजो! भारत छोड़ो’ आंदोलन का विरोधकर कई देशप्रेमी हलकों को नाराज कर डाला।
आजादी मिली तो लार्ड माउंटबेटन के बाद उन्हें नवस्वतंत्र देश का गवर्नर-जनरल बनाया गया और वे 1950 तक इस पद पर रहे। इसी दौरान हुए पहले राष्ट्रपति चुनाव में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के बजाय राजाजी को ही राष्ट्रपति बनवाना चाहते थे, लेकिन कांग्रेस के अंदर विरोध के कारण ऐसा नहीं कर पाए। तब कहा गया कि राजाजी नेहरू और सरदार पटेल की लड़ाई में नेहरू का मोहरा बनकर शहीद हो गए। लेकिन 26 जनवरी, 1950 को देश ने अपना संविधान लागूकर अपने संवैधानिक राजतंत्र नहीं रह जाने की घोषणा की तो राजाजी ने ही राजेंद्र प्रसाद को भारतीय गणराज्य के पहले राष्ट्रपति के रूप में शपथ दिलाई। बाद में नेहरू ने राजाजी को बिना पोर्टफोलियो का और सरदार पटेल के निधन के बाद गृहमंत्री बनाया।
फिर एक ऐसा भी वक्त आया कि वे, जो नेहरू उन्हें राष्ट्रपति बनवाना चाहते थे, उनकी ही रीति-नीति के विकट आलोचक हो गए। इसके चलते नेहरू उत्तरी और वे दक्षिणी ध्रुव हो गए तो उन्होंने चार जून, 1959 को कांग्रेस से अलग होकर स्वतंत्र पार्टी का गठन किया। इस नवगठित पार्टी ने 1962 के लोकसभा चुनाव में 18 लोकसभा सीटें जीतीं और बिहार, राजस्थान, गुजरात व उड़ीसा में कांग्रेस की मुख्य विपक्ष बन गई। 1967 के चुनाव में उसे इसकी दो गुनी से भी ज्यादा 44 लोकसभा सीटें मिलीं और वह कांग्रेस की सबसे बड़ी प्रतिद्वंद्वी कहलाने लगी। लेकिन 1971 के चुनाव में अप्रत्याशित रूप से उसे सिर्फ 8 सीटें मिलीं और वह पराभव की ओर बढ़ गई। दिसम्बर, 1972 में चेन्नई में राजाजी के निधन के महज दो साल बाद 1974 में उसका सफर एकदम से खत्म हो गया।
कई बार राजाजी का महात्मा गांधी से भी मतभेद हुआ। दूसरे विश्व युद्ध के शुरू में महात्मा का विचार था कि ब्रिटिश सरकार को इस युद्ध में केवल नैतिक समर्थन दिया जाए, जबकि राजाजी का मत था कि पूर्ण स्वतंत्रता की शर्त पर उसको हर संभव सहयोग दिया जाए। इस मतभेद को लेकर राजाजी ने कांग्रेस कार्यकारिणी की सदस्यता से त्यागपत्र भी दे दिया था।