उत्तर प्रदेश में जब भी चुनाव आते हैं, वे लोकसभा के हों, विधानसभा के या फिर नगर निकायों और पंचायतों के ही क्यों न हों, उन्हें जातियों व धर्म के युद्धों में बदलने की कोशिशें खासी तेज हो जाती हैं। इनमें से कुछ कोशिशें चोरी-छिपे यानी थोड़ी परदेदारी के साथ होती हैं तो कुछ खुल्लमखुल्ला और निर्लज्जतापूर्वक। ऐसे में कई बार प्रदेशवासियों के लिए तय करना भी कठिन हो जाता है कि भविष्य के लिहाज से उन्हें खुल्लमखुल्ला ऐसे युद्धों में झोंकने वाले ज्यादा खतरनाक हैं या वे जो निहुरे-निहुरे ऊंट चराते और एक साथ धान कूटने व कांख ढकने की कोशिशें करते हैं।
विडम्बना यह कि इनमें सें किसी भी खेमे को धर्मों के उदात्त मानवीय मूल्यों व नैतिकताओं से कोई लेना-देना नहीं होता। उनकी सबसे ज्यादा दिलचस्पी इसमें होती है कि कैसे सांप्रदायिकताजनित सारी संकीर्णताओं व कट्टरताओं को धर्मों का पर्याय बनाकर मान्यता दिला दी जाए। इसलिए वे उनके नाम पर नाना प्रकार की भिड़ंतों व टकरावों को तो आमंत्रित करते ही रहते हैं, भांति-भांति के कुतर्कों की मार्फत नफरतों की पैरोकारी में भी कुछ उठा नहीं रखते। अब तो उनकी ढिठाई इतनी बढ़ गई है कि वे सारे सामाजिक-आर्थिक मुद्दों को दरकिनारकर उनसे जुड़ी समस्याओं की जवाबदेही से बचने का अपना उद्देश्य भी नहीं छिपाते।
प्रदेश की राजनीति में एक समय ऐसा भी था, जब इन्हें अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक सांप्रदायिकताओं के पैरोकारों में बांटा जाता और बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता को अपेक्षाकृत ज्यादा खतरनाक बताया जाता था। कहा जाता था कि जो भी दल सत्ता में हो, उसे बहुसंख्यक सांप्रदायिकता को काबू में रखने के जतन करने ही करने चाहिए। क्योंकि इसकी पहली और सबसे बड़ी जिम्मेदारी उसी की है। लेकिन अब वे दिन हवा हो गये हैं, जब सत्तादल इसको लेकर थोड़े बहुत गम्भीर हुआ करते थे। इसलिए प्रदेश दोनों तरह की सांप्रदायिकताओं के अनर्थ झेलने को अभिशप्त हैं। इस कारण और कि जैसे किसी दल को अपना भ्रष्टाचार, भ्रष्टाचार नहीं लगता, अपने द्वारा आमंत्रित जातियुद्ध व धर्मयुद्ध भी जातियुद्ध या धर्मयुद्ध नहीं लगते, जो सच पूछिये तो जातियों व धर्मों से भी ज्यादा साम्प्रदायिकताओं व संकीर्णताओं के युद्ध होते हैं।
तिस पर अब उनके पास इनका औचित्य सिद्ध करने के लिए उन्हें सोशल इंजीनियरिंग की संज्ञा देने और राजनीति के नाम पर गैरराजनीतिक होने की सहूलियत भी उपलब्ध है। इसलिए प्रदेश में जैसे-जैसे विधानसभा चुनाव की गहमागहमी गढ़ रही है, जाति व धर्म के आधार पर मतदाताओं को अपने पाले में करने के लिए रणनीतियां बना व समीकरण बनाया व साधा जाना तेज हो गया है। खुद को दलितों, वंचितों और पिछड़ों के सामाजिक न्याय के संघर्षों को समर्पित बताते रहे दल तो पहले से जातीय गोलबन्दियों को सैद्धांतिक जामा पहनाते और कभी मनुवाद से लड़ने तो कभी भाईचारा वगैरह बनाने के नाम पर खुल्लमखुल्ला जातियों के जमावड़े करते कराते रहे हैं। उनकी इस ‘परम्परा’ में इधर इतना ‘परिवर्तन’ दिख रहा है कि कभी मनुवादी व्यवस्था के खिलाफ सबसे ज्यादा मुखर रही बसपा को इस बार ब्राह्मणों के ‘हकों’ की कुछ ज्यादा ही फिक्र है। समाजवादी पार्टी भी ब्राह्मणों को अपने पुराने एमवाई समीकरण से जोड़ने में पीछे नहीं रहना चाहती। वह ब्राह्मणों के ‘आदर्शपुरुष’ परशुराम की सबसे बड़ी मूर्ति व मन्दिर के लिए चिंतित है।
दूसरी ओर ‘पार्टी विद डिफरेंस’ और जाति की राजनीति से परहेज का दावा करती आई सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी उनके कान काटती दिख रही है। ‘ना-ना करते प्यार तुम्हीं से कर बैठे’ की तर्ज पर, वह जातियों के खेल में इस तरह लिप्त हो गई है कि कई लोग उसे उसके ‘हारे को हरिनाम’ और धार्मिक यानी हिन्दुत्व के कार्ड से निराश हो जाने के तौर पर देखने लगे हैं।
गत जुलाई में उसके इस खेल की शुरुआत तब हुई, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने मंत्रिमंडल का विस्तार किया और जोर-शोर से प्रचार किया जाने लगा कि उन्होंने उत्तर प्रदेश से तीन पिछड़े, तीन दलित और एक ब्राह्मण मंत्री बनाया है। जातीय आधार पर पहले भी मंत्री बनाये जाते रहे हैं, लेकिन यह पहली बार था, जब उनकी जातियों का जमकर प्रचार किया गया। फिर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपने मंत्रिमंडल का विस्तार किया, तब भी मंत्रियों की जातियां की प्रमुख रहीं। अब भारतीय जनता पार्टी द्वारा सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर गैरयादव ओबीसी और गैरजाटव दलितों को साथ लेने की कोशिशें और तेज हो गई हैं। इसके लिए उसने उन क्षेत्रीय दलों से गठबंधन भी किया है, जिनका इन पर प्रभाव है। इस बीच संकेत मिलने लगे कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की रीति-नीति से ब्राह्मण नाराज चल रहे हैं, तो उनको पार्टी का शुभचिन्तक बनाये रखने के लिए एक उच्चस्तरीय समिति भी गठित कर दी गई है, जिसे सभी विधानसभा सीटों पर ब्राह्मणों से संपर्क करने की जिम्मेदारी दी गई है।
लेकिन शायद बढ़ते कोरोना संक्रमणों के चलते दलितों के घर जाकर भोजन करने और उसकी फोटो खिंचवाकर वाहवाही लूटने का पुराना सिलसिला नहीं दोहराया जा रहा। यों, इसका इसका कारण यह भी है कि जब पार्टी के नेताओं ने उक्त सिलसिला शुरू किया था, तो ‘होटलों से खाना मंगाकर दलितों के घर खाने’ को लेकर उन्हें वाहवाही कम मिली और जगहंसाई ज्यादा झेलनी पड़ी थी।
इतना ही नहीं, उनका सामना प्रदेश में दलितों पर अत्याचारों के बढ़ते आंकड़ों से कराया जाने लगा था। इन अत्याचारों के मामले में हालात अभी भी जस के तस हैं। केन्द्रीय गृहमंत्रालय द्वारा संसद में बताये गये आंकड़ों के अनुसार देश में ऐसे सर्वाधिक अत्याचार उत्तर प्रदेश में ही होते हैं। तिस पर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पास बताने के लिए अपने कार्यकाल का एक भी ऐसा कदम नहीं है, जो दलितों पर अत्याचार कम करने के लिए हो।
पार्टियों के पास ऐसे जातियुद्ध व धर्मयुद्ध युद्ध टालने का कोई नया वैकल्पिक नजरिया है या नहीं? जवाब बिना यह बताये पूरा नहीं होता कि जिस कांगे्रस को राजनीति की इन सारी बुराइयों की जननी बताया जाता है, वह मजबूरी में ही सही ऐसे युद्ध टालने को प्रयासरत दिख रही है। लेकिन चूंकि उसकी हालत सब कुछ गंवा कर होश में आने जैसी है, इसलिए यह सवाल अपनी जगह पर बना हुआ है कि इस बार प्रदेश का विधानसभा चुनाव जाति युद्ध व धर्म युद्ध में बदलने से बच पाएगा या नहीं? जानकार कहते हैं कि इस बचाव की एकमात्र उम्मीद किसानों की बढ़ती वर्गीय चेतना से की जा सकती है।