अभिवावक, घर के बड़े या शिक्षक बच्चे और किशोरों में जिन संस्कारों और आदर्शों का बीज रोपना चाहते हैं, सर्वप्रथम वे स्वयं उन आदर्शों पर चलकर एक उदाहरण स्थापित करें। उन आदर्शों और संस्कारों का अपने जीवन में अनुसरण करें अर्थात आपकी कथनी और करनी में कोई अंतर न हो, ताकि बच्चा भी आपको देख कर बिना कुंठा और अवसाद और बिना दोहरी जिंदगी जिए आपका अनुसरण कर सके।
आज का बच्चा और किशोर दोहरी जिंदगी जीने की कोशिश में कुंठाग्रस्त और अवसादग्रस्त होता जा रहा है। जो उसके चिड़चिड़ा होने और अनुशासनहीन होने का एक प्रमुख कारण बन चुका है। अनुशासन हीनता किशोर होते हुए बच्चो में बढ़ जरूर रही है लेकिन यह सभी के साथ नहीं है।
निर्भर करता है कि उनकी परवरिश किस तरह से हो रही है? किशोर अवस्था में ऐसी स्थिति खड़ी हो जाती है जब उन्हें किसी बात पर टोके जाने या सुधारे जाने पर बिगड़ जाते है, वो उम्र ही ऐसी होती है।
हम सभी कभी ना कभी इस परिस्थिति से जरूर गुजरे है, उस उम्र में लगता है कि हम अपना भला बुरा समझते है और किसी को हमे कुछ कहने की जरूरत नहीं और अपने मर्ज़ी के मालिक हैं।लेकिन समय के साथ वो अपनी जिम्मेदारियां समझते है और रास्ते पर आ जाते हैं। यहां पर अभिभावकों को उन्हें समझने की जरुरत है और यह खयाल में रखना चाहिए कि वो उम्र के नाजुक दौर से गुजर रहे है जहां उनसे जोर जबरदस्ती करना उल्टा भी पड़ सकता है।
इसका इलाज कहीं ना कहीं अभिभावक और शिक्षकों के पास है, वो उन्हें उनके रवैये को सुधारने में मदद कर सकते है। बस थोड़ा समय देने की जरूरत है। हम कहते तो है बेटा तुम ऐसा करना वैसा करना,पर जब बच्चा बाहर की दुनिया में जाता है,तो बहुत सारी चीजे उसे अपनी ओर आकर्षित करती है,ओर वो उसमे इतना सम्मोहित हो जाता है की उसे अपने घर वालों की बातो से ज्यादा बाहर वालो की बातें,उनका रहन सहन ,खाना पीना,बोल चाल, ज्यादा अच्छी लगने लग जाती है । अनुशासन तोड़ना , अपनी मनमर्जी करना आज कल तो ये सब आम बात हो गई है।
क्या आप जानते है बच्चे और किशोर ऐसा क्यों करते हैं? क्योंकि वो प्रतिदिन देखते है जिन संस्कारों और आदर्शों को जीवन में अपनाने के लिए उन्हें हर पल सलाह दी जाती है , जबकि सलाह देने वाले स्वयं उन्ही संस्कारों और आदर्शों का पालन नहीं कर रहे होते हैं, वे चाहे अभिवावक हों या घर के बड़े या फिर उनके शिक्षक। हम बच्चों से महापुरुषों के आदर्शों को अपनाने की अपेक्षा रखते हैं।
पर क्या हम इन आदर्शों का शत प्रतिशत अपने वास्तविक जीवन में अनुसरण कर पाते हैं? शायद कभी भी नहीं। फिर बच्चों और किशोरों से ऐसी अपेक्षाएं क्यों रखी जाती हैं? उन्हें बात-बात में क्यों उन चीजों को करने के लिए बाध्य किया जाता है, जिसे करने में आपको स्वयं को भी कष्ट और परेशानी होती है।
इसका अर्थ यह नहीं है कि हम ऐसे आदर्शों और महानुभावों का बच्चों के सामने जिक्र करना ही बंद कर दें या उन्हे अच्छे संस्कारों के लिए प्रेरित ही न करें। पर याद रखिए जिन संस्कारों पर चलने के लिए आप बच्चों को शिक्षा दे रहें है , सबसे पहले आपको अपने वास्तविक जीवन उन्ही आदर्शों और संस्कारों का अनुसरण करना होगा, अन्यथा आपकी दी हुई शिक्षाओं का बच्चों पर सुप्रभाव के स्थान पर कुप्रभाव ही पड़ेगा। बच्चा दोहरी जिंदगी जीने पर मजबूर हो जाएगा। एक वो जो वह आपको दिखाता है और एक वो जो वह स्वयं के लिए जीना चाहता है।
यह एक आम समस्या बन चुकी है। इस भौतिकवाद संस्कृति से मासूम बच्चे और किशोर भी अछूते नहीं रहे हैं। उन्हे पता है उनकी जरूरतें तो उनके अभिवावक ही पूरी करेंगे और वो तभी पूरी करेंगे, जब बच्चे माता पिता की कही बातों पर चलेंगे। बस यहीं से बच्चा दोहरी जिंदगी जीने का मार्ग अपनाता हैं। अभिवावक के सामने कुछ और उनके पीछे से कुछ।
इस दोहरी जिंदगी या दोहरा व्यक्तित्व ही बच्चों और किशोरों को कुंठा और अवसाद दे रहा है। वे स्वछंद नहीं हैंवे खुश नहीं हैं, कितनी भी बड़ी खुशी, उनके चेहरे पर मुस्कान नहीं ला पाती हैं, कितना भी बड़ा शोक उन्हें दुखी नहीं कर पाता है।
आज कल के बच्चे दिखावटी दुनिया के जाल में फंसते चले जा रहे हैं। अभिभावकों, खासकर माता-पिता के ऊपर बच्चों में अच्छी आदतें डालने, उन्हें सुयोग्य बनाने का महत्त्वपूर्ण उत्तरदायित्व है। किन्तु बच्चों का निर्माण एक पेचीदा प्रश्न है। इसके लिए अभिभावकों में काफी विचारशीलता, विवेक, संजीदगी एवं मनोवैज्ञानिक जानकारी का होना आवश्यक है।
बहुत से मां-बाप तो बच्चों को पैदा करने, खिलाने-पिलाने, स्कूल आदि में पढ़ने की व्यवस्था तक ही अपने उत्तरदायित्व की इतिश्री समझते हैं, हालांकि बच्चों के विकास में इनका भी अपना स्थान है। परंतु बच्चों में अच्छी आदतें डालना, उनमें सद्गुणों की वृद्धि करके सुयोग्य बनाना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। यह असुरता से देवत्व उत्पन्न करने, पशुत्व को मनुष्यता में बदलने की प्रक्रिया है। जो एक सूक्ष्म विज्ञान है।
बच्चों में बढ़ती हुई उच्छृंखलता, अनुशासनहीनता, स्वेच्छाचार एवं अन्य बुराइयों की जिम्मेदारी बहुत कुछ अभिभावकों और शिक्षकों के ऊपर ही होती है। उनकी सामान्य-सी गलतियों, व्यवहार की छोटी-सी भूलों के कारण बच्चों में बड़ी-बड़ी बुराइयां पैदा हो जाती हैं। अनेक बुरी आदतें बच्चों में पड़ जाती हैं। स्वयं मां-बाप जिसे सुधार समझते हैं वही बात बच्चों के बिगाड़ने का कारण बन जाती है।
बच्चों में अनुशासन और आज्ञापालन की आदत पैदा करने के लिए। रौब या दबाव की आवश्यकता नहीं होती। बल्कि प्रेम प्यार से भी बच्चों और किशोरों से वही काम करवाया जा सकता है बिना किसी विरोध के।
राजेंद्र कुमार शर्मा