दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल के बीच तनातनी काफी पुरानी है, जहां अधिकारों को लेकर लगातार जंग छिड़ी रहती है। केंद्र सरकार की तरफ से नियुक्त उपराज्यपाल और चुनी हुई दिल्ली सरकार के बीच इस लड़ाई को लेकर सुप्रीम कोर्ट का एक और फैसला आया है। सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया कि चुनी हुई सरकार को ही फैसले लेने का अधिकार होना चाहिए। इस फैसले के बाद दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने इसे अपनी जीत बताया और अब अधिकारियों के तबादले शुरू हो चुके हैं। संविधान पीठ ने सर्वसम्मत फैसला दिया है कि दिल्ली में उपराज्यपाल (एलजी) ही सर्वेसर्वा नहीं है। वह दिल्ली सरकार के फैसलों को मानने और कैबिनेट की सलाह के अनुसार काम करने को बाध्य हैं। एलजी की शक्तियां उन्हें दिल्ली विधानसभा और निर्वाचित सरकार की शक्तियों में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं देतीं।
चूंकि निर्वाचित सरकार अपने क्षेत्र के लोगों के प्रति जवाबदेह होती है और उसे जनता की मांगों का भी ध्यान रखना होता है, लिहाजा उसके नियंत्रण में प्रशासनिक ढांचा होना चाहिए। दरअसल दिल्ली एक केंद्र शासित प्रदेश है, लेकिन बाकी केंद्र शासित प्रदेशों से यहां कुछ नियम अलग हैं।
बाकी तमाम राज्यों के राज्यपालों की तुलना में दिल्ली के एलजी यानी उपराज्यपाल के पास ज्यादा शक्तियां होती हैं। बेशक दिल्ली अर्द्धराज्य और संघशासित क्षेत्र है, लेकिन 1991 के कानून के बाद यहां विधानसभा है और जनता के द्वारा चुनी हुई सरकार भी है।
बेशक पूर्ण राज्य नहीं है, फिर भी दिल्ली को कानून बनाने का अधिकार है। यह व्याख्या प्रधान न्यायाधीश जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की है। विधान सभा बनने से पूर्व दिल्ली में महानगर परिषद (मेट्रो पॉलिटन काउंसिल) होती थी जिसकी संरचना मौजूदा विधान सभा जैसी ही थी।
निर्वाचित सदन, उसका सभापति और मुख्य कार्यकारी काउंसलर होता था जिसकी हैसियत कमोबेश मुख्यमंत्री जैसी ही थी। लेकिन उसका केंद्र से टकराव नहीं होता था।लेकिन अधिक अधिकार के चाहत में विधानसभा की मांग के साथ राज्य का दर्जा देने का जोर बढ़ा और राजनीतिक दबाव के कारण राष्ट्रीय राजधानी को केंद्र शासित राज्य मानकर वहां निर्वाचित विधानसभा और उप राज्यपाल (लेफ्टीनेंट गवर्नर) का पद सृजित किया गया।
शुरू – शुरू में तो ठीक चला किंतु आम आदमी पार्टी के सत्तासीन होने के बाद केंद्र सरकार के साथ दिल्ली सरकार की टकराहट बढ़ती गई जिसकी वजह से ही सर्वोच्च न्यायालय को आज का फैसला करना पड़ा। अभी तक असमंजस के सवाल थे कि दिल्ली कौन चलाएगा? दिल्ली का ‘कार्यकारी प्रमुख’ कौन है? दिल्ली अर्द्धराज्य से जुड़े फैसले कौन लेगा? नौकरशाही पर नियंत्रण किसका होगा?
केंद्र सरकार कहां तक दखल दे सकती है? अब संविधान पीठ ने स्पष्ट व्याख्या कर दी है कि पुलिस, भूमि, जन-व्यवस्था के मुद्दे एलजी के जरिए भारत सरकार के अधीन होंगे। शेष फैसले निर्वाचित केजरीवाल सरकार लेगी। केजरीवाल सरकार पुलिस पर भी अपना नियंत्रण चाहती है।
लेकिन आज के फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने भी जमीन, कानून व्यवस्था और पुलिस पर केंद्र के नियंत्रण को मान्य करते हुए चुनी हुई सरकार को प्रशासनिक अधिकारियों के स्थानांतरण और पद स्थापना का काम सौंपने संबंधी जो निर्णय दिया उससे समस्या का आंशिक समाधान ही होगा और भविष्य में केजरीवाल सरकार इस बात के लिए लड़ेगी कि उसे वे सभी अधिकार मिलना चाहिए जो एक निर्वाचित राज्य सरकार को संविधान में दिए गए हैं।
ये देखते हुए केंद्र शासित राज्य की व्यवस्था को लेकर भी सवाल खड़े होते हैं। चंडीगढ़, दादरा नगर हवेली, लक्षद्वीप, दमन और दिव, लद्दाख आदि केंद्र शासित क्षेत्रों में प्रशासक काम देखते हैं। वहीं दिल्ली, पुडुचेरी और अंडमान निकोबार और जम्मू-कश्मीर में उपराज्यपाल हैं।
लेकिन फिलहाल चुनी हुई विधानसभा केवल दिल्ली और पुडुचेरी में ही है। उसमें भी विवाद की स्थिति दिल्ली में सबसे ज्यादा है क्योंकि यहां केंद्र सरकार का मुख्यालय होने से शक्तियों और अधिकारों का विकेंद्रीकरण या बंटवारा बेहद कठिन है। निश्चित रूप से केजरीवाल सरकार के पास दिल्ली की जनता का जबर्दस्त जनादेश है किंतु दूसरी तरफ ये भी सही है कि राष्ट्रीय राजधानी में दो सरकारों का एक साथ होना समस्या पैदा करता रहेगा।
केंद्र शासित होने के बाद भी जिस तरह अन्य क्षेत्र बिना विधानसभा के अपना शासन चलाते हैं वैसा ही दिल्ली के लिए भी श्रेयस्कर होता। इस फैसले को मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की जीत माना जाएगा। केंद्र सरकार की जबर्दस्त किरकिरी भी हुई जिसके ऊपर ये आरोप लगा करता है कि राजनीतिक प्रतिद्वंदिता के कारण वह केजरीवाल सरकार को काम नहीं करने देती और छोटी-छोटी सी बातों पर उपराज्यपाल के जरिए अड़ंगेबाजी करती है।
इस मामले को राजनीतिक दृष्टि की बजाय सामान्य नजरिये से देखें तो ये महसूस होता है कि राष्ट्रीय राजधानी में दो चुनी हुई सरकारों का होना हमेशा टकराव पैदा करता रहेगा। केंद्र और राज्य दोनों के अधिकार और कर्तव्य संविधान में उल्लिखित हैं। लेकिन केंद्र शासित क्षेत्र में चुनी हुई विधानसभा बनने के बाद उसे पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जाना ही उचित होता है जैसा गोवा के मामले में हो भी चुका है।
आगे भी दिल्ली सरकार बनाम एलजी या केंद्र के बीच होने वाली इसी तरह की कई लड़ाई देखने को मिल सकती हैं। इस फैसले के जनता के लिए मायने हैं ही लेकिन इसके राजनीतिक मायने भी हैं। ये मामला केजरीवाल बनाम केंद्र सरकार का था और अब इस जीत के बाद केजरीवाल सरकार के इरादे तो इससे बुलंद होंगे ही।
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