यह बेहद चिंताजनक है कि आजादी के साढ़े सात दशक गुजर जाने के बाद भी देश बाल विवाह जैसी सामाजिक बुराई बनी हुई है। ‘द लैंसेट ग्लोबल हेल्थ’ पत्रिका में प्रकाशित स्ट्डी में कहा गया है कि 2016 से 2021 के बीच, कुछ राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों में बाल विवाह की प्रथा आम हो गई है। स्ट्डी के मुताबिक मणिपुर, पंजाब, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल समेत आधा दर्जन राज्यों में बालिका विवाह के मामले बढ़े हैं जबकि छत्तीसगढ़, गोवा, मणिपुर और पंजाब समेत आठ राज्यों में बाल विवाह के मामलों में वृद्धि हुई है। यह स्ट्डी इसलिए विश्वसनीय है कि अध्ययन दल में हार्वर्ड विश्वविद्यालय के शोधकर्ता और भारत सरकार से जुड़े लोग शामिल थे। हालांकि स्ट्डी में पाया गया है कि बालिका और बाल विवाह में राष्ट्रीय स्तर पर गिरावट आई है। स्ट्डी के मुताबिक बालिका विवाह की व्यापकता 1993 में 49 प्रतिशत से घटकर 2021 में 22 प्रतिशत हो गई है जबकि बाल विवाह की व्यापकता 2006 में 7 प्रतिशत से घटकर 2 प्रतिशत हो गई है। लेकिन विडंबना यह है कि विगत वर्षों में बाल विवाह की कुप्रथा को समाप्त करने की दिशा में जो उल्लेखनीय सफलता मिली है वह 2016 से 2021 के बीच के वर्षों में थम गई है।
यह पहली बार नहीं है जब बाल विवाह के चिंतनीय आंकड़े सामने आए हैं। अभी गत वर्ष ही केंद्रीय गृहमंत्रालय के नवीनतम जनसांख्यिकीय नमूना सर्वेक्षण से उद्घाटित हुआ था कि झारखंड में कम उम्र की लड़कियों की शादी का प्रतिशत सबसे अधिक है। बाल विवाह का राष्ट्रीय औसत जहां 1.9 प्रतिशत है, वहीं झारखंड राज्य का आंकड़ा 5.8 प्रतिशत है। उल्लेखनीय है कि यह सर्वेक्षण 2020 में कराया गया और उसके बाद भारत के महानिदेशक (जनगणना) और जनगणना आयुक्त द्वारा रिपोर्ट जारी की गयी। रिपोर्ट में पश्चिम बंगाल राज्य की स्थिति भी अच्छी नहीं बताई गई थी। यहां जितनी शादियां होती हैं उनमें से आधी युवतियों का विवाह 21 साल की उम्र पूरी करने से पहले हो जाता है। गत वर्ष पहले नेशनल फैमिली हेलथ सर्वे से भी खुलासा हुआ था कि तमाम जागरुकता भरे कार्यक्रम और कड़े कानूनी प्रावधानों के बावजूद भी देश में बाल विवाह जारी है।
राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग और गैर सरकारी संगठन यंग लाइव्स की रिपोर्ट में भी कहा जा चुका है कि गांव के साथ-साथ महानगर भी बाल विवाह जैसी सामाजिक बुराई की चपेट में हैं। संयुक्त राष्ट्र के रिपोर्ट के मुताबिक भारत बाल विवाह के मामले में दूसरे स्थान पर है। भारत में दुनिया के 40 प्रतिशत बाल विवाह होते हैं। 49 प्रतिशत लड़कियों को विवाह 18 वर्ष से कम आयु में हो जाता है। यूनिसेफ के अनुसार राजस्थान में 82 प्रतिशत विवाह 18 साल से पहले ही हो जाते हैं। यह स्थिति तब है जब भारतीय संविधान में विभिन्न कानूनों एवं अधिनियमों के माध्यम से बाल विवाह रोकने के प्रावधान हैं। 1929 में हरविलास शारदा के प्रयत्नों से बाल विवाह निरोधक अधिनियम पारित हुआ जिसे शारदा एक्ट के नाम से भी जाना जाता है, में प्रावधान है कि विवाह के समय लड़के की आयु 18 वर्ष तथा लड़की की आयु 15 वर्ष होनी चाहिए। इससे कम आयु के विवाह को बाल विवाह माना जाएगा।
इस कानून के उलंघन पर 15 दिन का कारावास तथा एक हजार रुपया जुमार्ना सुनिश्चित किया गया। लेकिन यह अधिनियम बाल विवाह रोकने में सफल नहीं हुआ। हिंदू विवाह अधिनियम 1955 में भी लड़के व लड़की के विवाह की आयु 18 वर्ष और 15 वर्ष ही रखी गयी। मई, 1976 में इस अधिनियम में संशोधन कर विवाह की आयु 21 वर्ष और 18 वर्ष कर दी गयी। एक दूसरा कानून जो अस्तित्व में है वह बाल विवाह निषेध अधिनियम 2006 है। इस अधिनियम में बाल विवाह निरोधक अधिनियम में व्याप्त खामियों को दूर कर सुनिश्चित किया है कि एक ऐसी लड़की का विवाह जो 18 साल से कम की है और लड़के का विवाह जो 21 साल से कम का है बाल विवाह कहलाएगा। इस अधिनियम में बाल विवाह के आरोपियों को दो साल तक का कठोर कारावास या एक लाख रुपए तक का जुर्माना अथवा दोनों हो सकता है।
चिंता की बात यह कि बाल विवाह के कारण महिलाओं के स्वास्थ पर खतरनाक प्रतिकूल असर पड़ रहा है। बाल विवाह के कारण शिशु मृत्यु दर और अस्वस्थता दर में भी वृद्धि हो रही है। इसके अलावा घरेलू हिंसा, लिंग आधारित हिंसा, बच्चों के अवैध व्यापार, लड़कियों की बिक्री में वृद्धि, बच्चों द्वारा पढ़ाई छोड़ने की आंकड़ों में वृद्धि, बाल मजदूरी और कामकाजी बच्चों का शोषण तथा लड़कियों पर समय से पहले जिम्मदारी संभालने का दबाव भी बढ़ रहा है। चिकित्सकों की मानें तो बाल विवाह की वजह से शिशु को जन्म देते वक्त दुनिया भर में होने वाली कुल मौतों में 17 प्रतिशत मौतें अकेले भारत में होती है। कम उम्र में विवाह से प्रसव के दौरान इन महिलाओं में 30 प्रतिशत रक्तस्राव, 19 प्रतिशत एनीमिया, 16 प्रतिशत संक्रमण, और 10 प्रतिशत अन्य जटिल रोगों की संभावना बढ़ जाती है। यहीं नहीं वे गंभीर बीमारियों की चपेट में भी आ जाती हैं। एक आंकड़े के मुताबिक कम उम्र में गभार्धान के मामलों में लगातार वृद्धि हो रही है। समय से पहले प्रसव की घटनाओं में इजाफा हो रहा है। मातृ मृत्यु दर में वृद्धि हो रही है। गर्भपात और मृत प्रसव की दर भी बढ़ रही है।
मेटरनल मॉर्टेलिटिी रेशियो (एमएमआर) और इंटरनेशनल प्रेग्नेंसी एडवाइजरी सर्विसेज की रिपोर्ट की मानें तो भारत में असुरक्षित गर्भपात से हर दो घंटे में एक स्त्री की जान जाती है। गत वर्ष पहले सरकारी संस्था नेशनल सैंपल सर्वे आॅफिस (एनएसएसओ) की एक रिपोर्ट से उद्घाटित हुआ था कि शहरों में 20 वर्ष से कम उम्र की लड़कियों में हर सातवें गर्भधारण का अंत गर्भपात के रुप में होता है। 20 साल से कम उम्र की शहरी युवतियों में गर्भपात का रुझान राष्ट्रीय औसत के मुकाबले काफी अधिक है। इस रिपोर्ट के मुताबिक देश भर में ग्रामीण क्षेत्रों में गर्भपात का प्रतिशत 2 तथा शहरी क्षेत्रों में 3 प्रतिशत है। 20 साल से कम उम्र की शहरी युवतियों में गर्भपात 14 प्रतिशत तक है जबकि गांवों में 20 साल से कम आयुवर्ग में गर्भपात का प्रतिशत मात्र 0.7 है। अगर दूसरे आयु वर्ग की महिलाओं पर नजर दौड़ाएं तो गर्भपात का प्रतिशत इतना अधिक नहीं है। मसलन 30 से 34 वर्ष उम्र की शहरी महिलाओं में गर्भपात का प्रतिशत 4.6 है जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में यह 2.9 है। इसी तरह 35 से 39 वर्ष उम्र की शहरी महिलाओं में गर्भपात का प्रतिशत 2.0 जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में यह 5.4 है।
यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि शहरों में तो कम लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी असुरक्षित गर्भपात कराए जा रहे हैं जिसकी कीमत युवतियों को जान देकर चुकानी पड़ रही है। सेव द चिल्ड्रेन संस्था की मानें तो भारत मां बनने के लिहाज से दुनिया के सबसे खराब देशों में शुमार है। संयुक्त राष्ट्र की विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट पर गौर करें तो भारत में प्रत्येक वर्ष गर्भधारण संबंधी जटिलताओं के कारण और प्रसव के दौरान तकरीबन 5 लाख से अधिक महिलाएं दम तोड़ती हैं जिसका एक प्रमुख वजह बाल विवाह है।