Friday, March 29, 2024
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देवलोक और इन्द्र-कहां, कौन

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आज किसी आम आदमी से पूछें कि देवलोक कहां था, इंद्र आदि देव कौन थे तो वह झट से कहेगा कि देवलोक दूसरी दुनिया अथवा अंतरिक्ष में था और देव सर्वगुण सम्पन्न महामानव थे। किंतु यह सत्य नहीं है। देवलोक इसी धरती पर था और देव प्राचीन काल की एक जाति थी। देवों में भी आम मनुष्यों की तरह कमियां, कमजोरियां तथा दोष दुर्गुण होते थे। हां, इतना अवश्य है कि देवजाति अपने समय की सभ्य, सुसंस्कृत, शिक्षित और ज्ञान विज्ञान में उन्नत थी।

देवलोक भारतवर्ष अथवा आर्यवर्त के उत्तर में था। प्राचीन ग्रंथों में देवलोक और देवों पर पर्याप्त चर्चा हुई है। कालिदास ने रघुवंश में लिखा है कि इन्द्र त्रिविष्टम का अधिपति था, जयन्त उसका राजकुमार, शची उसकी महारानी और अमरावती उसकी राजधानी थी। त्रिविष्टम तिब्बत का मूल नाम है। हिमवान, गन्धमादन और सुमेरू, तीनों का सन्निवेश त्रिविष्टम में हुआ है। महाभारत ने उसे त्रिकुट कहा है। गंधमादन में कैलाश और कश्मीर शामिल हैं। एक युग था जब जीवन की संपूर्ण सुख सुविधाओं से भरे पूरे इस प्रदेश को स्वर्ग कहा जाता था और उसके निवासी देवता। सुमेरू का नाम चीनी भाषा में थियानशान है जिस का अर्थ है देवताओं का पर्वत।

कालिदास का सम्पूर्ण वांड़मय भूगोल और इतिहास का ही काव्य है। पूरा कुमारसंभव काव्य ही तिब्बत का इतिहास है। चरक ने भी एक घटना का जिक्र किया है कि एक बार आर्यवर्त में रोगों की बाढ़ आ गई। लोग परेशान थे कि क्या करें और रोगियों को कैसे बचाया जाए क्योंकि वहां कोई चिकित्सालय न था और न ही कारगर औषधियां उपलब्ध थीं।
तब सब ऋषियों-मृगु , अंगिरा, अत्रि , वशिष्ठ, कश्यप, अगस्त्य, प्रलस्त्य, वामदेव, असित, गौतम और भारद्वाज ने आगे बढकर मार्ग सुझाया-चलो वहां चलें जहां खेत, यज्ञ और किन्नर रहते हैं, जहां गंगा का निकास है, जहां हमारे पूर्वज रहते थे और जहां इन्द्र का शासन है और जो अमरावती विश्वविद्यालय के आचार्य हैं। वे गये, इन्द्र ने उनका स्वागत किया और आयुर्वेद पढ़ाया। जनता को पीड़ित करने वाले रोगों की चिकित्सा बताई।

प्रसिद्ध तीर्थ मानसरोवर जो अब तिब्बत में है, भारत से हर साल हजारों लोग यात्रा पर जाते हैं। प्राचीन काल में इसी मानसरोवर के किनारे चारों ओर ऋषि मुनि रहा करते थे, इसलिए यह तीर्थ है। सत्य में यही हमारी मातृभूमि और पितृभूमि है। वेदों में गहन ज्ञान से परिपूर्ण सूत्रों के तत्वदृष्टा स्वष्टा, प्रजाति, इन्द्र, अश्विनी कुमार, विष्णु और पूषा इसी तिब्बत के थे। रावण का प्रसिद्ध पुष्पक विमान स्वष्टा ने बनाया था।

पंचजन का समाजशास्त्र, इन्द्र की वैज्ञानिक प्रतिभा और अश्विनीकुमारों का शरीर विज्ञान आज भी विश्व के साहित्य में अप्रतिम है। भारतीय आयुर्वेद ने त्रिदोष विज्ञान का अविष्कार किया। इसीलिए तो चरक ने कहा कि औषधियों की सर्वश्रेष्ठ भूमि हिमवान है जो तिब्बत का ही नाम है। आयुर्वेद की प्राचीन औषधियों के नाम इन वैज्ञानिकों के नाम पर ही है जो तिब्बत के उस आदिकालीन विश्वविद्यालय के आचार्य थे जैसे ब्राहमी, वैष्णवी, इन्द्रवारूणी, चन्द्रप्रभा, कटू, रोहिणी, सरस्वती जयन्ती आदि।

वेदों की घटनाओं में हमें जो भाव मिलते हैं, वे तिब्बत की घाटियों में विकसित हुए थे। इन में भूगोल, खगोल विज्ञान, आचार और अध्यात्म आदि सभी कुछ है। वे वीरता के उपासक थे। इन्द्र का वज्र, वरूण के पाश और जयन्त के बाण वहीं निर्मित हुए थे। इस ने कभी दो आंखों वाला इन्द्र नहीं पूजा। वह सहस्त्र आंखों वाला था। उसके विष्णु चार भुजाओं के और ब्रहमा चार मुखवाले रहे हैं। उसी विरासत को हम आज तक संजोये हुए हैं।

इन्द्र, जयन्त, ययाति, नहुष विष्णु, ब्रहमा और प्रजापति इसी प्रदेश में बैठकर आर्यवर्त के पूर्वान्त से परिचयान्त सागर तक चलने वाले शासन का संचालन करते थे। मनु ने कहा है कि इसी देश की शिक्षाओं से पृथ्वी के लोगों ने सभ्यता सीखी। असुरों के आक्र मणों के विरूद्ध वह डट कर लड़ा और बल, बुद्धि तथा नीतियों में विजयी हो कर लौटा।
कालिदास ने रघुवंश में लिखा है कि बढ़ते हुए विद्रोहों को परास्त करने के लिए ककेय (पंजाब) के अश्वपति तथा कोसल के रघु और दशरथ इन्द्र के साथ कंधे से कंधा मिला कर लड़े और विजयश्री इन्द्र के हाथ सौंप कर चले आये। यहां के वैज्ञानिकों ने राजस्थान में बहने वाली सरस्वती को मोड़ कर गंगा में मिलाया और इस देव नदी को त्रिवेणी में आज तक अपने पूर्वजों के लिए हम श्रद्धा का नैवैद्य अर्पित कर रहे हैं। तिब्बत के वैभव और पराक्र म की धाक सम्पूर्ण एशिया में छा गई। ल्हासा, बालटिस्तान, लद्दाख, लाहुल, कनोर, टिहरी और गढ़वाल सभी में तिब्बत का शासन था।

अर्जुन अस्त्र विद्या सीखने इन्द्र के विश्वविद्यालय का विद्यार्थी बन कर रहा। भारतीय संगीत शास्त्र का वैज्ञानिक विकास यहीं हुआ था। गंधार के शासक चित्रसेन, परिवार्जक नारद, वीणावादिनी सरस्वती अमरावती के विद्या केन्द्रो के ही अमर कलाकार थे। सामवेद के स्वर विन्यास भी इसी विश्वविद्यालय में खोजे गये थे। किन्नर और किन्नरियों की स्वर माधुरी तिब्बत की ही देन है।

पाण्डव भी स्वगार्रोहण के लिए तिब्बत ही गए थे। तक्षशिला तिब्बत के विश्वविद्यालय का ही विस्तार था। यह अमरावती के बाद विकसित हुआ और इसको अमरत्व प्रदान करने वालों में नन्दनवन के देवता ही प्रमुख थे। ओर भाषा में जो भी साहित्य आज प्राप्त है अधिकांश तक्षशिला के आचार्यों द्वारा किये गये भारतीय ग्रथों का अनुवाद ओर भाषा में विद्यमान है। काम्पिध्य का महान विश्वविद्यालय जिस में तिब्बत और बाल्टिक तक के विद्यार्थी शिक्षा पाते रहे थे, तिब्बत के ही विश्वविद्यालय का दूसरा अंग था। आज भी फरूर्खाबाद जिले में काम्पिध्य विद्यमान है और उसके भग्नावशेष उसकी साक्षी देते हैं। अत्रोय पुनर्वसु इस विश्वविद्यालय के प्रधानाचार्य थे। उन्होंने तिब्बत पंचगग और कैलाश के साथ काम्पिध्य को एकता के सूत्र में जोड़े रखा। आज तक तिब्बत का हहा-रकपा (आचार्य) ओर भाषा में वही पढ़ता है जो प्राचीन आचार्यों ने संस्कृत में लिखा था।

रत्नभद्र, दीपंकर, श्रीज्ञान, स्थविर रत्नाकर जैसे नालंदा के धुरन्धर विद्वान 9 से 10 वीं शताब्दियों में तिब्बत के विद्या और आचार के गुरू थे। दीपंकर ने बीस नये ग्रंथ तिब्बत में 13 वर्ष रहकर लिखे और प्रचार किया। 1053 ई. में उन की नेन्थन (ल्हासा) में मृत्यु पर आचार्य रत्नाकर ने कहा था-बिना दीपंकर के भारत में अंधेरा हो गया और तिब्बत में चिर निशा।

                                                                                                        आरके भारद्वाज


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