Wednesday, July 3, 2024
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अमृतवाणी: धर्म से पहले मानव

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बात उन दिनों की है, जब जापान में बौद्व धर्मसूत्र उपलब्ध नहीं थे। तभी वहां के एक प्रसिद्व धार्मिक विद्वान तेत्सुजेन ने जापानी भाषा में उन्हें प्रकाशित कराने का निर्णय लिया। लेकिन इस काम के लिए उनके पास पैसा नहीं था। तेत्सुजेन ने इसके लिए आम लोगों से चंदा मांगना शुरू कर दिया। दस सालों तक उन्होंने चंदा मांगकर इतना धन एकत्र कर लिया, जिससे ग्रंथ आसानी से प्रकाशित किया जा सकता था। लेकिन तभी उनके इलाके में बाढ़ आ गई। लोग बेघर हो गए। अब तेत्सुजेन के सामने दुविधा थी कि वह ग्रंथ प्रकाशित कराएं, या बाढ़ प्रभावित लोगों की सहायता करें। तेत्सुजेन ने ग्रंथ के ऊपर बाढ़ पीड़ितों की मदद को ऊपर रखा। उन्होंने चंदे में मिला वह सारा धन, बाढ़ पीड़ितों की सहायता में खर्च कर दिया। इसके बाद उन्होंने फिर से प्रकाशन के लिए चंदा मांगना प्रारंभ कर दिया। लगभग दस सालों में उन्होंने फिर उतना ही धन जुटा लिया जितनी उन्हें ग्रंथ के लिए आवश्यकता थी। लेकिन तभी देश में महामारी फैल गई और उन्होंने फिर सारा धन रोगियों की सेवा में लगा दिया। जब तीसरी बार उन्होंने ग्रंथ प्रकाशन के लिए धन एकत्र करने के लिए लोगों से चंदा मांगना शुरू किया तो लोग नाराज हो गए। उन्होंने तेत्सुजेन को भला-बुरा कहना शुरू कर दिया, आप पैसा तो ग्रंथ छापने के नाम पर ले जाते हैं, लेकिन खर्च किसी और ही काम में कर देते हैं। इस पर तेत्सुजेन ने जवाब दिया, ग्रंथ प्रकाशन से कहीं ज्यादा श्रेयस्कर मरते हुए लोगों को बचाना होता है। त्सुजेन ने लोगों से हाथ जोड़कर कहा कि इंसान को सबसे पहले देश के लोगों के विषय में चिंता करनी चाहिए, धर्म की बाद में। क्योंकि जनमानस और आवाम बचेगा, तभी तो धर्म का अस्तित्व रहेगा। तेत्सुजेन की बातें सुनकर लोगों को उनकी उदारता का एहसास हो गया।
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