कभी कभी कुछ खत-भले ही उन्हें लिखें सदियां बीत गई हों, संदर्भ बदल गए हों-अचानक मौजूं हो जाते हैं। पिछले साल जब दुनिया कोविड महामारी की पहली लहर से जूझ रही थी, उन दिनों भी एक खत अचानक सुर्खियों में आया, जो वर्ष 1527 में लिखा गया था। पत्र में मार्टिन ल्यूथर-जिन्होंने ईसाई धर्म में प्रोटेस्टंट सुधार की मुहिम की अगुआई की थी-ने अपने ही संप्रदाय के एक अग्रणी को सलाह दी थी कि महामारी के दिनों में उन्हें क्या करना चाहिए। इतिहास बतााता है कि यूरोप उन दिनों ब्युबोनिक प्लेग के गिरफ्त में था, जिसमें हजारों लोग मारे गए थे, यहां तक कि ल्यूथर को भी सलाह दी गई थी कि वह स्थानांतरण करें। इस खत के अंश-जो पिछले साल वायरल हुए थे-आज भी मौजूं लग सकते हैं, जिसमें ल्यूथर व्यक्ति को क्या करना चाहिए या नहीं करना चाहिए इस पर अपनी राय प्रगट कर रहे हैं: ‘मैं फिर…, हवा को शुद्ध करने की कोशिश करूंगा, दवा दूंगा और लूंगा। मैं उन स्थानों और लोगों से बचने की कोशिश करूंगा जहां मेरी मौजूदगी अनिवार्य नहीं है ताकि मैं खुद दूषित न हो जाउं और फिर अपने तयीं दूसरों को संक्रमित करूं और प्रदूषित करूं और इस तरह अपनी लापरवाही से किसी की मौत का कारण बनूं।’
यह उम्मीद करना गैरवाजिब होगा कि मार्टिन ल्यूथर द्वारा अपने किसी सहयोगी/अनुयायी को लिखे इस खत से जनाब तीरथ सिंह रावत, जो उत्तराखंड के मुख्यमंत्री हैं, वाकिफ होंगे। अलबत्ता पिछले साल के अनुभव से वह इतना तो जरूर जानते होंगे कि किस तरह पूजा अर्चना के सार्वजनिक स्थान या धार्मिक समूहों-समागम वायरस के लिए सुपर स्प्रेडर अर्थात महाप्रसारक का काम करते हैं। उन्हें इतना तो जरूर याद रहा होगा कि किस तरह ज्ञात इतिहास में पहली दफा- मक्का से वैटिकन तक या काशी से काबा तक तमाम धार्मिक स्थल और समागम बंद रहे थे ताकि नए-नए दस्तक दिए वायरस के प्रसार को रोका जा सके।
कुंभ मेला जिसे अपने अनोखेपन के लिए अंतरराष्ट्रीय मीडिया द्वारा हमेशा ही कवर किया जाता है, आज भी सुर्खियों में है, अलबत्ता इस वजह से अधिक कि किस तरह महामारी के बीच इसका आयोजन हो रहा है। कोविड पोजिटिव मामलों का कुंभ मेले के क्षेत्र में उछाल आया है, जिसके चलते वह एक नया ‘हॉटस्पॉट’ बना है। तमाम साधु एवं यात्री संक्रमित हुए हैं। यात्री एवं साधु जो कुंभ से अपने अपने घरों को लौटेंगे, वे कोविड को लेकर मुल्क में चल रही खराब स्थिति को और बदतर बना देंगे।
यह अकारण नहीं कि मुंबई की मेयर ने ऐलान कर दिया है कि कुंभ से लौटने वाले कोविड का प्रसाद बांटेंगे और इसलिए उन्हें अपने-अपने खर्चे पर सेल्फ क्वाररंटाइन रहना पड़ेगा। जनता की याददाश्त बहुत कम समझी जाती है, लेकिन सभी को पिछले साल का दक्षिण कोरिया का अनुभव याद होगा जब कोविड के महज एक मरीज ने की लापरवाही के चलते-जो एक खास चर्च की अनुयायी थी-कुछ ही सप्ताहों में दक्षिण कोरिया के कोविड के मामले कुछ केसों से लेकर हजारों तक पहुंचे थे।
सवाल यह उठता है कि क्या मुख्यमंत्री महोदय इस पूरे प्रसंग को लेकर अपनी कोई नैतिक जिम्मेदारी स्वीकार करेेंगे कि उनके आकलन की गलती से यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति बनी? क्या उन्हें यह कभी पूछा जाएगा कि आखिर उन्होंने अपने पूर्ववर्ती की योजना को क्यों बदला या नौकरशाही के एक हिस्से द्वारा दी गई इस सलाह को कि महाकुंभ का समागम कोविड संक्रमण के सुपर स्प्रेडर का काम करेगा, क्यों खारिज किया। संघ परिवार एवं उससे जुड़े सत्ताधारियों के आचरण पर गौर करने वाले बता सकते हैं कि ऐसा कुछ नहीं होगा।
जिन दिनों कुंभ मेले का कोरोना के हॉटस्पॉट में रूपांतरण हो रहा था, आंध्र प्रदेश का एक छोटासा गांव-जो कर्नूल जिले में पड़ता है-उन्हीं कारणों से सुर्खियां बटोर रहा था। दरअसल उगाडी अर्थात नववर्ष के आगमन पर लोग एकत्रित हुए थे और टीमें बना कर एक दूसरे पर गोबरकंडा फेंक रहे थे। किसी पारंपारिक प्रथा का हिस्सा यह आयोजन इस मामले में खतरनाक था कि वहां शारीरिक दूरी का कोई ध्यान नहीं रखा गया था और अधिकतर लोगों ने मास्क तक नहीं पहना था। तय बात है कि अगर जिला प्रशासन में बैठे लोगों ने इस प्रथा पर पहले से ही गंभीरता से विचार किया होता तो कोविड की विकट होती स्थिति को बताते हुए स्थानीय आबादी को यह समझा सकते थे कि वह कार्यक्रम को रद्द करें और कोविड संक्रमण से अपने आप को बचाएं। मुमकिन है कि वह लोगों की भावनाओं को आहत नहीं करना चाहते थे या वह इस मामले में लापरवाह थे।
क्या कुंभ मेला के आयोजन को लेकर जहां लाखों लाख लोग पहुंचते हैं, जिसमें तमाम योजनाएं बनती हैं और उसे सरकारी समर्थन से अमली जामा पहनाया जाता है, यही बात कही जा सकती है? निश्चित ही नहीं! अब जबकि कुंभ मेले के कोविड संक्रमण स्थल में रूपांतरित होने की खबर चल पड़ी है और सरकार को खुद झेंपना पड़ रहा है, भाजपा के अचानक सुर बदलते दिख रहे हैं।
वैज्ञानिकों एवं सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए यह तो पहले से ही स्पष्ट था, लेकिन यह अब भाजपा के लिए भी स्पष्ट है कि न मां गंगा और न ही आस्था की दुहाई उसे कोविड के प्रकोप से बचा सकती है। भाजपा के इस यूटर्न को प्रधानमंत्री मोदी ने ही गोया जुबां दी जब उन्होंने कहा कि अब कुंभ में उपस्थिति प्रतीकात्मक होनी चाहिए। विडंबना ही है कि इस बात का एहसास करने में भाजपा को खुद को ही इतना समय लगा है, जिसकी कीमत आम जनता को और चुकानी पड़ेगी।
स्पष्ट है कि अगर भाजपा ने अपने आप को विधानसभा के चुनावों में किस तरह जीत हासिल की जाए इस बात पर केंद्रित नहीं किया होता-जो इन्हीं दिनों संपन्न हो रहे हैं -तो मुमकिन है कि आम लोगों की जिंदगियों के बारे में, उन्हें किस तरह सुरक्षित रखा जाए, इसके बारे में सोचती और फिर कुंभ के प्रतीकात्मक करने को लेकर फैसला लेती। अब यही उजागर हो रहा है कि किसी भी सूरत में चुनावों को जीतना या सरकारों का गठन करना, यह बात फिलवक्त भाजपा के मनोमस्तिष्क में इतनी हावी दिख रही है कि उसे लगता है कि ऐसी जीतें शासन-प्रशासन की उसकी खामियों पर आसानी से परदा डाल देंगी।
बहुत सरल तर्क है: चुनावों में जीत इस बात का प्रमाण है कि हम लोकप्रिय हैं और व्यापक समर्थन प्राप्त किए हुए हैं। वैसे कुंभ और उसके इर्दगिर्द जो चल रहा है, वह राष्ट्रीय स्तर पर जो कुछ घटित हो रहा है उसका लघु रूप मात्र दिखता है। अपनी लोकप्रिय छवि के विपरीत महामारी के दूसरी लहर की विभीषिका और सरकार का उसके लिए बिल्कुल तैयार न रहना, इसने मोदी के कथित ‘मजबूत और निर्णायक नेतृत्व’ क्षमता की असलियत सामने ला रखी है। विश्लेषकों का मानना है कि आजादी के बाद के सबसे अक्षम प्रशासकों में उन्हें शुमार किया जा सकता है।