संन्यास जीवन का, जीवन को देखने का और ही ढंग है। बस, ढंग का फर्क है। संन्यासी और गृहस्थी में घर का फर्क नहीं है, ढंग का फर्क है। संन्यासी और गृहस्थी में जगह का फर्क नहीं है, भाव का फर्क है। संन्यासी और गृहस्थी में जगह का फर्क नहीं है, भाव का फर्क है। संन्यासी और गृहस्थी में परिस्थिति का फर्क नहीं है, मन:स्थिति का फर्क है। संसार में जो है…, सभी संसार में होंगे। कोई कहीं हो-जंगल में बैठे, पहाड़ पर बैठे, गिरि-कंदराओं में बैठे, संसार के बाहर जाने का उपाय परिस्थिति बदल कर नहीं है। संसार के बाहर जाने का उपाय मन:स्थिति बदल के बाहर जाने का है, मन को रूपांतरित करके बाहर जाने का है। दो-तीन उसके अंग हैं। पहला, जो जहां है, वह वहां से हटे नहीं। क्योंकि हटते केवल कमजोर हैं। भागते केवल वे ही हैं, जो भयभीत हैं। और जो संसार को भी झेलने में भयभीत हैं, वह परमात्मा को नहीं झेल सकेगा। जो संसार का ही सामना करने में डर रहा है, वह परमात्मा का सामना कर पाएगा? संसार जैसी कमजोर चीज जिसे डरा देती है, परमात्मा जैसा विराट जब सामने आएगा, तो उसकी आंखें ही झप जाएंगी। वह ऐसा भागेगा कि फिर लौटकर देखेगा भी नहीं। यह क्षुद्र-सा चारों तरफ जो है, यह डरा देता है, तो उस विराट के सामने खड़े होने की क्षमता नहीं होगी। और फिर अगर परमात्मा यही चाहता है कि लोग सब छोड़कर भाग जाएं, तो उसे सबको सबमें भेजने की जरूरत ही नहीं है। नहीं, उसकी मर्जी और मंशा यही है कि पहले लोग क्षुद्र को, आत्माएं क्षुद्र को सहने में समर्थ हो जाएं, ताकि विराट को सह सकें। जो ट्रेनिंग को छोड़कर भागता है, वह संन्यासी नहीं है। जीवन जहां है, वहीं संन्यासी हो गए, फिर तो भागना ही नहीं। संन्यास अगर संसार के सामने भागता हो, तो कौन कमजोर और कौन सबल?
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