देश में शायद ही कोई खुशनसीब बचा होगा, जिसके आस-पड़ोस, परिवार, रिश्तेदारों, सहकर्मियों और परिचितों में से कोई देश में चल रहे कोरोना संक्रमण के संकट से प्रभावित न हो। स्थिति यह है कि सुबह से शाम तक किसी न किसी व्यक्ति से कोई अप्रिय समाचार सुनने को मिल ही जाता है, किसी के लिए अस्पताल में बेड, तो किसी के लिए आॅक्सीजन उपलब्ध नहीं हो पा रही है। पूरे देश में कहीं लोग आॅक्सीजन के लिए, कहीं वेंटिलेटर, कहीं बेड के लिए तो कहीं अपने परिजन का अंतिम संस्कार करने के लिए भटक रहे हैं, जबकि कहीं-कहीं तो आॅक्सीजन सप्लाई में गडबड़ी के कारण ही लोगों को जान से हाथ धोना पड़ रहा है। पूरे देश की स्वास्थ्य सेवाएं गर्त में जा चुकी हैं, हैल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर की कलई पूरी तरह खुलकर सामने आ गई है और इस तरह की अप्रिय सूचनाएं अब सिर्फ टेलीविजन और न्यूज चैनल्स के जरिये ही नहीं वरन आस पड़ोस से, रिश्तेदारों से और मोबाइल कॉल्स के जरिये मिलना शुरू हो चुकी हैं। लेकिन बावजूद इसके तमाम भद्रजन अभी भी इस सबके लिए सरकार और सत्ता की नाकामी को जिम्मेदार नहीं ठहराना चाहते, उनको एक अजीब तरह की जिद है कि ये सब सरकार की नाकामी नहीं, बल्कि प्राकृतिक आपदा और पब्लिक की लापरवाही के कारण हो रहा है। क्या ऐसे लोगों की मानसिकता और सोच पर सवालिया निशान नहीं लगने चाहिए?
यह समझना बेहद मुश्किल है कि ऐसी चरमराई हुई व्यवस्था के बीच वे कैसे प्रधानमंत्री और भाजपा ही नहीं वरन किसी भी राजनीतिक शख्सियत और राजनेता के प्रति अपनी आसक्ति को जीवित रख पा रहे हैं। प्रश्न यह है कि पिछले वर्ष न सिर्फ हमारे देश ने बल्कि पूरे विश्व भर ने जो त्रासदी झेली थी, उसके बाद हमारी सत्ता की प्राथमिकताएं क्या होनी चाहिए थीं? लेकिन उसकी प्राथमिकता में कौन से मुद्दे शामिल रहे? गत वर्ष जब हम इटली, अमेरिका और यूके के हालात देख रहे थे, क्या तब हमें कोबिड संक्रमण की गंभीरता को समझते हुए किसी भीषण त्रासदी से बचने हेतु हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर को डेवलप करने पर अपना पूरा ध्यान नहीं लगाना चाहिए था? क्या हमें कोबिड प्रोटोकॉल का पालन सुनिश्चित कराने के लिए हर संभव प्रयास नहीं करना चाहिए थे? क्या हमें हमारी जनसंख्या अनुपात के सापेक्ष अपनी स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति की समीक्षा कर उस पर जमीनी स्तर पर सुधार करने के प्रयास नहीं करने चाहिए थे ?
लेकिन हमारी सत्ता की प्राथमिकताओं में क्या शामिल था? उनकी प्राथमिकताओं में बहुसंख्यक तुष्टिकरण हेतु मंदिर का शिलान्यास कराना, तमाम समुदायों के तुष्टिकरण हेतु तमाम धार्मिक मेले और धार्मिक आयोजनों का आयोजन कराना और उन कृषि कानूनों को बनाकर लागू कराना था, जिनको स्वयं किसान ही स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं, और बड़ी संख्या में एकत्र होकर लगातार प्रदर्शन कर रहे हैं, क्या कोविड संक्रमण को ध्यान में रखते हुए, इन प्रदर्शनों में जुटती भीड़ और किसानों की नाराजगी को देखते हुए ऐसे कानूनों को वापस नहीं ले लेना चाहिए था, जिसकी किसानों द्वारा जरूरत ही महसूस नहीं की जा रही है? और इस सबसे ऊपर क्या देशभर में चल रही चुनावी गतिविधियों को राष्ट्रहित में कुछ वक्त के लिए टाला नहीं जा सकता था? लेकिन सारी स्थितियों की गंभीरता को ताक पर रखकर जब सत्ताधारियों ने कोविड प्रोटोकॉल की धज्जियां उड़ार्इं तो पूरे देश में जनता को यही संदेश गया कि अब स्थितियां नियंत्रण में हैं और जनता ने भी सत्ताधारियों के पदचिन्हों पर चलते हुए कोविड प्रोटोकॉल को धराशायी करने में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया।
तमाम लोगों के तर्क हैं कि इतनी बड़ी संख्या में पॉजिटिव केसेस आने पर कोई भी स्वास्थ्य व्यवस्था टिक ही नहीं सकती थी, संभव है कि यह धारणा ठीक हो, लेकिन वैश्विक स्तर पर चल रहे कोरोना संक्रमण से उपजे संकट की गंभीरता को समझकर एहतियात बरते जाते तो भले ही मेडिकल सुविधाओं में चमत्कारिक परिवर्तन न होते लेकिन संक्रमण को नियंत्रित करके उन संभावानाओं को समाप्त करने की दिशा में प्रयास किये ही जा सकते थे, जो कोरोना संक्रमितों की संख्या बढ़ने के स्पष्ट संकेत दे रही थीं। लेकिन सबसे पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने और उनका अनुसरण करते हुए तमाम राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने कोविड-19 के संक्रमितों की संख्या में गिरावट देखते हुए लापरवाही बरतना जारी रखी, यहां तक कि देशभर के तमाम अस्पतालों में हो रहे निर्माण और सुधार कार्यों को भी स्थगित कर दिया गया और और देशभर में जगह-जगह चुनावी गतिविधियों, रैलियों, जनसभाओं, धार्मिक आयोजनों और मेलों के आयोजनों को जमकर बढ़ावा दिया।
इन सब गतिविधियों के दौरान कोविड प्रोटोकॉल को तोड़ने का काम न सिर्फ जनसाधारण ने किया, बल्कि देश के प्रधानमंत्री और गृहमंत्री से लेकर पक्ष-विपक्ष के तमाम जनप्रतिनिधियों ने किया। देशभर में चुनावी गतिविधियों को बेरोकटोक चलने देने के लिए चुनाव आयोग भी कोई कम जिम्मेदार नहीं है। मद्रास हाईकोर्ट ने तो यह तक कहा है कि देश में कोरोना की दूसरी लहर के लिए चुनाव आयोग ही जिम्मेदार है, इसके लिए उस पर हत्या का केस चलना चाहिए। इन स्थितियों के बीच केंद्र और राज्यों के विपक्ष की भूमिका को भी सकारात्मक नहीं माना जा सकता, क्योंकि देश में चल रहे महामारी के संकट के मद्देनजर विपक्ष को किसी भी स्तर तक जाकर चुनावों और चुनावी गतिविधियों से दूरी बनाते हुए जनसाधारण को इस भीड़ के खतरों के प्रति आगाह करना चाहिए था। लेकिन जब सत्ता-शासन, व्यवस्था और विपक्ष सब कुछ चुनाव और चुनावी गतिविधियों के इर्द-गिर्द ही घूमने लगे तो देश के मुस्तकबिल की चिंता भला कौन करे। इन सब हालात ने आज देश को उस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है, जहां लोग स्वास्थ्य सेवाओं के लिए दर-दर भटक कर दम तोड़ रहे हैं, लेकिन अंधी और बहरी सत्ता के साथ-साथ सत्तालोलुप विपक्ष को तो सिर्फ चुनाव और वोट चाहिए।
जो परिवार अपने परिजनों को इस संकट के दौरान खो चुके हैं, उनके नुकसान की भरपाई शायद ही कोई राज्य या केंद्र सरकार कर सके, पर अभी भी इन कथित जनप्रतिनिधियों को जगाने और बताने का वक्त है कि देश जल रहा है, आज अगर देश के नागरिकों को बचाने के लिए जमीनी स्तर पर कार्य नहीं हुए, तो वोट देने के लिए जनता ही नहीं बचेगी। लोगों को ऐसे चुनाव और चुनावी गतिविधियों का बहिष्कार करना ही होगा जो स्वयं लोगों के लिए समस्या बनकर खड़ा हो जाए। कोरोना संक्रमण और उससे उपजे संकट का ये दौर शायद कुछ वक्त चलकर थम जाए, पर इस देश को समझना ही होगा कि चुनाव देश और देश के लोगों के जनतंत्र के लिए होता है, देश और लोग चुनाव और चुनावी राजनीति के लिए नहीं। चुनाव के लिए लोगों की बलि चढ़ाकर लोकतंत्र की आत्मा को जीवित कतई नहीं रखा जा सकता।