Saturday, July 27, 2024
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जरूरी हैं कड़े चुनाव सुधार

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Samvad 17


Pankaj Chaturvadi jpgइन दिनों देश के पांच राज्यों में सबसे बडी ताकत, लोकंतत्र ही दांव पर लगा है। राजनीतिक दलों के चुनावी वायदे मुफ्त-भेट पर केंद्रित हैं। विधायक-उम्मीदवार वायदा कर रहा है कि वह मुहल्ले में नाली बनवाएगा। लेकिन जरूरी यह है कि आम वोटर को भी शिक्षित किया जाए कि वह किस उम्मीदवार को, किस चुनाव में किस काम के लिए वोट दे रहा है। चुनाव तो राज्य की सरकार को चुनने का होता है, लेकिन मसला कभी मंदिर तो कभी आरक्षण कभी गाय और उससे आगे निजी अरोप-गालीगलौज। लोकतंत्र के मूल आधार निर्वाचन की समूची प्रणाली ही अर्थ-प्रधान हो गई हैं और विडंबना है कि सभी राजनीतिक दल चुनाव सुधार के किसी भी कदम से बचते रहे हैं।
इवीएम पर सवाल उठाना वास्तव में लोकतंत्र के समक्ष नई चुनौतियों की बानगी मात्र है, यह चरम काल है जब चुनाव सुधार की बात आर्थिक -सुधार के बनिस्पत अधिक प्राथमिकता से करना जरूरी है। जमीनी हकीकत यह है कि कोई भी दल ईमानदारी से चुनाव सुधारों की दिशा में काम नहीं करना चाहता है। दुखद तो यह है कि हमारा अधिसंख्यक मतदाता अभी अपने वोट की कीमत और विभिन्न निर्वाचित संस्थाओं के अधिकार व कर्तव्य जानता ही नहीं है। लोकसभा चुनाव में मुहल्ले की नाली और नगरपालिका चुनाव में पाकिस्तान के मुद्दे उठाए जाते हैं। आज सबसे बड़ी जरूरत तो यह है कि आम लोग जाने कि हम विधायक राज्य स्तर की नीति बनाने को चुनते हैं। जैसे कि उम्मीदवार वायदा कर रहा है कि अमुक सड़क पक्की होगी, जबकि उससे उम्मीद है कि वह जीतने के बाद विधान सभा में ऐसा कानून पारित करवाए जिससे अकेले एक विशेष ही नहीं समूचे प्रदेश की सड़कें पक्की हो हो जाएं। आधी-अधूरी मतदाता सूची, कम मतदान, पढ़े-लिखे मध्य वर्ग की मतदान में कम रूचि, महंगी निर्वाचन प्रक्रिया, बाहुबलियों और धन्नासेठों की पैठ, उम्मीदवारों की बढ़ती संख्या, जाति-धर्म की सियासत, चुनाव करवाने के बढ़ते खर्च, आचार संहिता की अवहेलना-ये कुछ ऐसी बुराइयां हैं जो स्वस्थ्य लोकतंत्र के लिए जानलेवा वायरस हैं।

आज चुनाव से बहुत पहले बड़े-बड़े रणनीतिकार मतदाता सूची का विश्लेषण कर तय कर लेते हैं कि हमें अमुक जाति या समाज के वोट चाहिए ही नहीं। यानी जीतने वाला क्षेत्र का नहीं, किसी जाति या धर्म का प्रतिनिधि होता है। यह चुनाव लूटने के हथकंडे इस लिए कारगर हैं, क्योंकि हमारे यहां चाहे एक वोट से जीतो या पांच लाख वोट से, दोनों के ही सदन में अधिकार बराबर होते हैं। यदि राष्ट्रपति चुनावों की तरह किसी संसदीय क्षेत्र के कुल वोट और उसमें से प्राप्त मतों के आधार पर सांसदों की हैंसियत, सुविधा आदि तय कर दी जाए तो नेता पूरे क्षेत्र के वोट पाने के लिए प्रतिबद्ध होंगे, न कि केवल गूजर, मुसलमान या ब्राह्मण वोट के। कैबिनेट मंत्री बनने के लिए या संसद में आवाज उठाने या फिर सुविधाओं को ले कर निर्वाचित प्रतिनिधियों का उनको मिले कुछ वोटों का वर्गीकरण माननीयों को ना केवल संजीदा बनाएगा, वरन उन्हें अधिक से अधिक मतदान भी जुटाने को मजबूर करेगा।

इस बार हर राज्य में थोक में हृदय परिवर्तन करने वाले नेताओं की जमात सामने आ रही है और वे दूसरे दल में जाते ही टिकट भी पा रहे हैं। यह एक विडंबना है कि कई राजनीतिक कार्यकर्ता जिंदगीभर मेहनत करते हैं और चुनाव के समय उनके इलाके में कहीं दूर का या ताजा-ताजा किसी अन्य दल से आयातित उम्मीदवार आ कर चुनाव लड़ जाता है और ग्लैमर या पैसे या फिर जातीय समीकरणों के चलते जीत भी जाता है। संसद का चुनाव लड़ने के लिए निर्वाचन क्षेत्र में कम से कम पांच साल तक सामाजिक काम करने के प्रमाण प्रस्तुत करना, उस इलाके या राज्य में संगठन में निर्वाचित पदाधिकारी की अनिवार्यता जमीन से जुड़े कार्यकर्ताओं को सदन तक पहुंचाने में कारगर कदम हो सकता है। इससे थैलीशाहों और नवसामंतवर्ग की सियासत में बढ़ रही पैठ को कुछ हद तक सीमित किया जा सकेगा। इस कदम से सदन में कारपोरेट दुनिया के बनिस्पत आम आदमी के सवालों को अधिक जगह मिलेगी।

मतदाता सूचियों में कमियां होना हरेक चुनाव के दौरान सामने आती हैं। घर-घर जा कर मतदाता सूचियों की पुन: जांच एक असफल प्रयोग रहा है। दिल्ली जैसे महानगरों में कई कालोनियां ऐसी हैं, जहां गत दो दशकों से कोई मतदाता सूची बनाने नहीं पहुंचा है। देश के प्रत्येक वैध बाशिंदे का मतदाता सूची में नाम हो और वह वोट डालने में सहज महसूस करे; इसके लिए एक तंत्र विकसित करना भी बहुत जरूरी है। वहीं पड़ोसी राज्यों के लाखों लोगों को इस गरज से मतदाता सूची में जुड़वाया गया, ताकि उनके वोटों के बल पर चुनाव जीता जा सके। इस बार तो चुनाव आयोग ने केवल सटे हुए जिलों से मतदाता सूची का मिलान किया, लेकिन 40 फीसदी विस्थापित मजदूरों से बनी दिल्ली में उप्र, मप्र, बंगाल या बिहार व दिल्ली दोनों जगह मतदाता सूची में नाम होने के लाखों लाख उदाहरण मिलेंगे।

चुनावी खर्च बाबत कानून की ढेरों खामियों को सरकार और सभी सियासती पार्टियां स्वीकार करती हैं। किंतु उनके निदान के सवाल को सदैव खटाई में डाला जाता रहा है। राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार में कानून मंत्री दिनेश गोस्वामी की अगुआई में गठित चुनाव सुधारों की कमेटी का सुझाव था कि राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त दलों को सरकार की ओर से वाहन, ईंधन मतदाता सूचियां, लाउड-स्पीकर आदि मुहैया करवाए जाने चाहिए 1984 में भी चुनाव खर्च संशोधन के लिए एक गैर सरकारी विधेयक लोकसभा में रखा गया था, पर नतीजा वही ढाक के तीन पात रहा। 1964 में संथानम कमेटी ने कहा था कि राजनैतिक दलों का चंदा एकत्र करने का तरीका चुनाव के दौरान और बाद में भ्रष्टाचार को बेहिसाब बढ़ावा देता है। 1971 में वांचू कमेटी अपनी रपट में कहा था कि चुनावों में अंधाधुंध खर्चा काले धन को प्रोत्साहित करता है। इस रपट में हरेक दल को चुनाव लड़ने के लिए सरकारी अनुदान देने और प्रत्येक पार्टी के एकाउंट का नियमित आॅडिट करवाने के सुझाव थे। 1980 में राजाचलैया समिति ने भी लगभग यही सिफारिशें की थीं। ये सभी दस्तावेज भूली हुई कहानी बन चुके हैं।

अगस्त-98 में एक जनहित याचिका पर फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिए थे कि उम्मीदवारों के खर्च में उसकी पार्टी के खर्च को भी शामिल किया जाए। आदेश में इस बात पर खेद जताया गया था कि सियासती पार्टियां अपने लेन-देन खातों का नियमित आॅडिट नहीं कराती हैं। अदालत ने ऐसे दलों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही के भी निर्देश दिए थे। चुनाव आयोग ने जब कड़ा रुख अपनाता है तब सभी पार्टियों ने तुरत-फुरत गोलमाल रिपोर्टें जमा करती हैं। आज भी इस पर कहीं कोई गंभीरता नहीं दिख रही है।


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