1973 से साल-दर-साल जारी ‘विश्व पर्यावरण दिवस’ के समारोहों और इसी मौके पर प्लॉस्टिक की पन्नी बीनने या पौधारोपण को याद करने जैसे टोटकों से क्या हम पृथ्वी को बरकरार रख पाएंगे? अब तक का सबसे गर्म, 2024 का यह साल बेरहमी से बता रहा है कि इंसानों के बच पाने का अब बहुत कम वक्त बचा है, लेकिन क्या हम इस चेतावनी को सुन-समझ पाएंगे? गर्मी प्रचंड है, इतनी प्रचंड कि कहीं ट्रैक्टर के बोनट पर रोटियां सेंकने तो कहीं रेत में पापड़ भूने जाने की खबरें आ रही हैं। तापमान अर्ध-शतक के एकदम नजदीक पहुंच गया है। मनुष्य का शरीर 37-38 डिग्री तक का तापमान सह सकता है, मगर गर्मी है कि अनेक जगहों पर 47 से 49 तक पहुंच चुकी है। मुमकिन है, कहीं 50 डिग्री सेल्सियस को छू भी लिया हो। मेडिकल जर्नल ‘लैंसेट’ के मुताबिक अगर बाहरी टेंपरेचर 50 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाए तो मांसपेशियां जवाब देने लगती हैं। जीवन से जुड़े महत्वपूर्ण अंग काम करना बंद कर देते हैं और हार्ट-अटैक जैसी समस्याएं हो सकती हैं।
यह अचानक नहीं हुआ है; इस साल की शुरुआत में ही चेतावनी आ चुकी थी कि 2024 सबसे गर्म वर्ष होने जा रहा है। इसके पीछे प्रशांत महासागर की ऊपरी सतह को उबाल देने वाले ‘अल नीनो’ का कितना प्रभाव है, समन्दर के नीचे की ठंडी लहरों को सहेज, संभालने वाली ‘ला नीना’ की कितनी असफलता है, इस सबकी मौसम वैज्ञानिक समीक्षा कर रहे हैं। जलवायु परिवर्तन, ‘ग्लोबल वार्मिंग’ आने वाले दिनों में और कितना कहर ढहाने वाले हैं इस पर कई रिपोर्ट्स आएंगी, चिंता की लकीरें थोड़ी गहरी हो जाएंगी और फिर बारिश आने के बाद सारी चिंता दूर हुयी मान ली जाएगी। पृथ्वी और उस पर बसे प्राणियों के अस्तित्व के लिए संकट बन गए ‘जलवायु परिवर्तन’ की चिंता में जेनेवा में हुए तीन वैश्विक सम्मेलनों से लेकर रिओ, बर्लिन, कोपेनहेगेन से होते हुए ‘क्योटो प्रोटोकोल’ तक हुई कोशिशों में अमरीका सहित उसके संगी-साथी धनी देशों ने जो पलीता लगाया है वह अब तो सामान्य जानकारी रखने वाला भी जानने लगा है।
सीधे-सादे आम इंसान पृथ्वी के साथ जघन्य अपराध करने वालों के प्रायोजित प्रचार के झांसे में आ जाते हैं और खुद को ही दोषी मानते हुए आत्मधिक्कार करते-करते कुछ दिखावटी समाधानों से हल निकालने का मुगालता पाल लेते हैं। ये भले लोग वे हैं जिन्हें तापमान के 40 डिग्री पहुँचते ही ‘हर नागरिक को कम-से-कम एक पेड़ लगाने’ की हिदायत याद आती है। पेड़ लगाना अच्छी बात है, जरूरी है, ऐसा किया जाना चाहिए, मगर इसे ही एकमात्र तरीका मान लेना कुछ ज्यादा ही भोलापन है। ऐसा करना वनों, जंगलों, पेड़ों का विनाश करके उसे विकास बताने वालों की धूर्तता पर पर्दा डालना है। यह काम आम आदमी नहीं कर रहा, बल्कि सरकारें भी कर रही हैं। किस विनाशकारी तेजी और ध्वंसकारी गति से कर रही हैं, इसे चंद तथ्यों से समझा जा सकता है।
‘खाद्य एवं कृषि संगठन’ (एफएओ) के मुताबिक वर्ष 2015 से 20 के बीच भारत में प्रति वर्ष 6 लाख 68 हजार हेक्टेयर वनों का विनाश किया गया। यह दुनिया में दूसरे नम्बर का वन-विनाश था। लगभग इसी दौर में 4 लाख 14 हजार हेक्टेयर ऐसे प्राकृतिक वनों, जो बारिश के लिए जलवायु तैयार करते थे, को रौंद दिया गया। इन्हें अब कभी दोबारा उगाया नहीं जा सकता। इनके अलावा पिछले दो दशकों में 2 करोड़ 33 लाख हेक्टेयर वृक्ष-आच्छादित क्षेत्र उजाड़ दिए गए ; इनमें लगे सभी पेड़ उखाड़ दिए गए। यह भारत की कुल वृक्ष-आच्छादित भूमि का 18 फीसदी होता है। एक और रिपोर्ट के हिसाब से पिछले तीसेक वर्षों में कोई 14 हजार वर्ग किलोमीटर वनों को माइनिंग, बिजली और डिफेन्स की परियोजनाओं के लिए लिया गया है।
हाल तक इस बारे में कुछ प्रावधान हुआ करते थे। पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखने के लिए, भले दिखावे की कागजी शर्तें, कुछ बाध्यताएं हुआ करती थीं। हालांकि इनके अमल की स्थिति क्या थी, इसे समझने के लिए एक ही उदाहरण काफी है। मध्यप्रदेश के सिंगरौली जिले में ‘महान विद्युत परियोजना’ और कोल-ब्लॉक्स के नाम पर ‘एस्सार’ (अब अडानी) और अम्बानी ने जो संयंत्र लगाए या जो खुदाई की, उससे इस अत्यंत घने और पुराने जंगल में करोड़ों पेड़ों का अंत हुआ।
इसकी क्षतिपूर्ति के लिए सघन वृक्षारोपण किए जाने का जिम्मा इन्हीं कंपनियों का था। इसमें किस तरह का मजाक और धांधलियां की गर्इं, परियोजनाओं में काटे गए कोई 20 लाख वृक्षों की क्षतिपूर्ति के लिए इन कंपनियों से इतने ही पेड़ लगाने में किए गए कांड से समझा जा सकता है। जब ‘एक्शन टेकन रिपोर्ट’ मांगी गई तो इन कंपनियों ने दावा किया कि उन्होंने सिंगरौली से कोई साढ़े चार सौ किलोमीटर दूर सागर और दमोह में पौधे लगा दिए हैं। बिना सागर या दमोह जाए, बिना उस वृक्षारोपण को देखे ही सरकारों ने भक्त-भाव के साथ उनके इस हास्यास्पद दावे को मान लिया। यह स्थिति सिर्फ ‘महान परियोजना’ की नहीं है, बाकियों के मामले में भी उतनी ही सच है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिनमें बिना किसी अपवाद के पुनर्वनीकरण के सारे प्रावधानों की धज्जियां उड़ाई गयीं।
इस तरह के क्रूर मजाकों में सरकारें भी पीछे नहीं रहीं। 5 जुलाई 2017 को मध्यप्रदेश में भाजपा सरकार द्वारा महज 12 घंटे में लगाए गए 6 करोड़ वृक्षों के पौधारोपण की उपलब्धि का एलान कर दिया गया। पूरी दुनिया में इस असाधारण वृक्षारोपण की गूंज हुई, लेकिन जुलाई 2018 में जब इनका सरसरी आॅडिट किया गया तो पता चला कि उनमें से एक प्रतिशत पौधे भी सलामत नहीं बचे। ऐसा ही एक करिश्मा उत्तरप्रदेश की योगी सरकार ने एक दिन में 5 करोड़ पौधे लगाने का किया। पुनर्वनीकरण के प्रति सत्तासीनों की गंभीरता की हालत यह है कि उसके लिए जो फण्ड आवंटित किया गया था उसका सिर्फ 6 प्रतिशत खर्च हुआ।
मोदी राज के आते ही इन रही-सही खानापूर्तियों को भी समाप्त कर दिया गया। वर्ष 2015 में मंत्री प्रकाश जावडेकर ने अपने ‘वन और पर्यावरण विभाग’ की पूर्व-असहमतियों को विकास में बाधक बताया और उनकी बाध्यता को समाप्त कर दिया। बड़े-बड़े और कई बार अनुपयोगी हाईवे, सुपर एक्सप्रेस हाईवे, एक्स्ट्रा सुपर एक्सप्रेस हाईवे के नाम पर किये गए विनाश को विकास बताया गया। जल-जंगल जमीन से जुड़े सारे कानून ताक पर रखकर कॉरपोरेट्स को वन-भूमियां थमा दी गई। नतीजे में जंगल नेस्तनाबूद हो गए, नदियां सूख गई, धरती खोद दी गई, सिर्फ आदिवासियों और परम्परागत वनवासियों को ही नहीं पशुपक्षियों को भी उनके घरों से बेदखल कर दिया गया, पारिस्थितिकी (इकोलॉजी) मटियामेट कर दी गई।
बर्बादी कितनी भयावह है इसे देखने के लिए देश की ऊर्जा राजधानी कहे जाने वाले सिंगरौली की बगल में, उत्तरप्रदेश के सोनभद्र जिले के रेणुकूट से सड़क-यात्रा शुरू कीजिये और सिंगरौली, सीधी, उमरिया, शहडोल, अनूपपुर से गुजरते हुए छत्तीसगढ़ के कोरिया, सरगुजा नापते कोरबा तक पहुंचिये और सच्चाई अपनी आंखों से देख लीजिए। कारपोरेट ने हजारों वर्ष पुराने जंगल, लाखों करोड़ों वर्ष पुरानी पहाड़ियों सहित सब कुछ उधेड़कर रख दिया है। आज भी यही सिलसिला कुछ ज्यादा ही तेजी से जारी है।
विकास के नाम पर आए इस सर्वनाश के सांड को पूंछ से नहीं, सींग से पकड़ना होगा। आत्मधिक्कार करने और एक पेड़ लगाकर उसका परिष्कार करने की सदिच्छा से काम नहीं चलेगा; जंगल, पृथ्वी और उसकी मनुष्यता कैसे बचाई जा सकती है यह चार साल से बस्तर के सिलगेर सहित बीसियों स्थानों पर भूमि के अडानीकरण के विरुद्ध धरने पर बैठे आदिवासियों से, हंसदेव का जंगल बचाने के लिए डटे नागरिकों के उदाहरण से समझा जा सकता है। पेड़ लगाना ठीक है, मगर असली समाधान विनाश को विकास बताने वाली सरकारों और उनकी नीतियों के खिलाफ लड़कर ही निकलेगा