भक्त भानुदास हर समय हरिभजन में लगे रहते थे। उनके माता-पिता जब तक जीवित रहे, भानुदास और उनके पत्नी-बच्चों का पालन-पोषण करते रहे, पर उनकी मृत्यु के बाद वे भूखों मरने लगे। पड़ोसियों ने दया दिखलाते हुए चंदा एकत्रित किया और जमा राशि से भानुदास के लिए दुकान खुलवा दी।
भानुदास व्यापार में असत्य का सहारा नहीं लेते थे। वह ग्राहक से माल के सही मूल्य और स्वयं को होने वाले लाभ की स्पष्ट चर्चा करते। इस कारण उनकी साख बाजार में जम गई। भानुदास का व्यापार दिनोंदिन बढ़ने लगा। इससे कुछ व्यापारी भानुदास से ईर्ष्या करने लगे। एक दिन नगर में कीर्तन का आयोजन हुआ।
भानुदास हरिभक्ति के इस अवसर को छोड़ना नहीं चाहते थे, सो दुकान जल्दी बंदकर वह चल पड़े। जाते-जाते उन्होंने पड़ोस के व्यापारियों से दुकान का ध्यान रखने को कहा, पर व्यापारियों ने इससे इनकार कर दिया।
भानुदास को कीर्तन में किसी भी कीमत पर जाना ही था। वह माल लादने वाला अपना घोड़ा दुकान पर बांधकर कीर्तन में चले गए। व्यापारियों ने बदला लेने का अच्छा मौका देख उनके घोड़े को खोल दिया और दुकान का सारा सामान पास के गड्डे में भर दिया।
फिर शोर मचा दिया कि भानुदास की दुकान में चोरी हो गई है। ऐसा करने के बाद सभी व्यापारी अपनी-अपनी दुकान बंद करके जा ही रहे थे कि चोरों ने उन पर धावा बोल दिया और दिनभर की सारी कमाई लेकर चले गए।
भानुदास जब वापस लौटे तो व्यापारियों को रोते-कलपते देखा। जब व्यापारियों ने भानुदास को सारी बात बताई तो वह बोले-दूसरों का अहित करने वालों का अंतत: बुरा होता है। इसलिए हमेशा अच्छा सोचें और अच्छा करने का प्रयास करें। भानुदास की बात सुनकर व्यापारी अपने किए पर बहुत शर्मिंदा हुए। उन्होंने भानुदास से क्षमा मांगी।
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