जिस देश में करोड़ों लोग गरीबी की रेखा से नीचे धकेले जाने से मात्र एक महामारी की दूरी पर रहते हों, वहां लोक कल्याणकारी उपायों पर व्यय को रेवड़ी/मुफ्तखोरी कहना उन करोड़ों गरीब लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करने जैसा है, जो सरकारों की अदूरदर्शी नीतियों की वजह से आज इस दुर्दशा में रहने को अभिशप्त हैं। देश में आज लोक कल्याणकारी उपायों पर व्यय को बढ़ाए जाने की महती आवश्यकता है। इसे मुफ्तखोरी कहना जायज नहीं है। यहां हमें मुफ्त रेवड़ी और लोक कल्याण में अंतर करना आवश्यक है। हालांकि लोक कल्याण उपायों एवम मुफ्त रेवड़ियों के बीच अंतर करना बड़ा मुश्किल काम है। आय वितरण पिरामिड के शीर्ष पर विद्यमान लोग भी मुफ्त में मिलने वाली सेवाओं को लोक कल्याण के साथ जोड़कर देख सकते हैं। कोई भी नीतिगत हस्तक्षेप जो दीर्घकाल एवम मध्यकाल में उत्पादकता और उत्पादन को बढ़ाने में सहायक न हो उसे मुफ्तखोरी कहा जा सकता है। सरल शब्दों में, यदि केवल आर्थिक एवं लोकनीति के नजरिए से देखें तो, मुफ्तखोरी एक ऐसा नीतिगत हस्तक्षेप है जो दीर्घकाल एवं मध्यकाल में उत्पादन और उत्पादकता को नकारात्मक रूप से प्राभावित कर सके।
सरकार द्धारा नॉन-मेरिट गुड्स पर दी जाने वाली सब्सिडी को मुफ्त रेवड़ी कहा जाता है। नेशनल इंस्टीट्यूट आॅफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी (एनआईपीएफपी) के एक अध्ययन के अनुसार आर्थिक और सामाजिक सेवाओं की अप्राप्य लागतों (अन-रिकवर्ड कास्ट्स) को बजट सब्सिडी कहा जाता है। हालांकि, सभी सब्सिडीज को मेरिट और नॉन-मेरिट में वगीर्कृत किया जाना कठिन है। आर्थिक कठिनाइयों के बोझ के नीचे दबे लोगों की शिक्षा, स्वास्थ, भोजन, बिजली आदि की व्यवस्था करना एक जिम्मेदार सरकार का दायित्व है। हां, चुनाव पूर्व प्रसिद्धि पाने के उद्देश्य से की जाने वाली घोषणाओं और उन घोषणाओं के प्रचार-प्रसार पर किया जाने वाला व्यय गुणवत्ता पूर्ण व्यय नहीं है, उस पर नकेल कसा जाना संवैधानिक संस्थाओं का दायित्व है। किसी भी प्रकार के गैर-गुणवत्ता पूर्ण व्यय को नियंत्रित करने के लिए संवैधानिक संस्थाओं द्वारा कड़ा और निष्पक्ष रुख अपनाया जाना चाहिए। गैर गुणवत्तापूर्ण व्यय से राजकोषीय घाटा बढ़ता है और राजकोषीय घाटे को पाटने के लिए सरकार को कर्ज लेना पड़ता है।
यदि हम राज्य सरकारों की वित्तीय स्थिति पर एक नजर डालें तो हाल ही में भारतीय रिजर्व बैंक की राज्यों के वित्त पर एक अध्ययन से पता चलता है कि 2014 के बाद से राज्यों द्वारा सामाजिक क्षेत्र में होने वाले व्यय में लगातार कमी की गई है, जबकि 14वें एवम 15वें केंद्रीय वित्त आयोग की सिफारिशों के अनुसार राज्यों को अधिक संसाधन मिले हैं। हम सभी को इससे सहमत होना चाहिए कि शिक्षा और स्वास्थ्य दो ऐसे महत्वपूर्ण क्षेत्र हैं, जहां पर सरकारों को अपना व्यय बढ़ाना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा शिक्षा और स्वास्थ्य, दोनों ही क्षेत्रों में, संसाधनों के आवंटन में कमी की है। शिक्षा और स्वास्थ्य, मुख्यत: राज्य सरकारों के अधिकार क्षेत्र में आते हैं। लेकिन हमें यह समझना भी जरूरी है कि राज्य सरकारें कितना व्यय बढ़ा सकती हैं, जब राज्य सरकारों का व्यय सशर्त अनुदान से संबंधित है।
रिजर्व बैंक की राज्यों की वित्तीय स्थिति पर हालिया रिपोर्ट के अनुसार कम से कम 5 राज्य, राजकोषीय दबाव की स्थिति का सामना कर रहे हैं। इन परिस्थितियों में यह और भी जरूरी हो जाता है कि अब आर्थिक विद्वानों को सार्वजनिक व्यय की गुणवत्ता पर विशेष जोर देना शुरू कर देना चाहिए और सोशल सेक्टर (शिक्षा, स्वास्थ, ग्रामीण विकास आदि) में संसाधनों के आवंटन में वृद्धि करने पर विचार करना चाहिए। सरकारों द्वारा लोक कल्याण पर व्यय भारत में आश्चर्य रूप से कम है। दूसरे विकास शील देशों की तुलना में भी भारत में कल्याणकारी उपायों पर व्यय काफी कम है। भारत में कुछ वर्ष पूर्व शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र पर व्यय 4.7 प्रतिशत था जबकि सब-सहारा अफ्रीका में यह 7 प्रतिशत था। भारत के कुछ राज्यों में तो यह लगातार कम हो रहा है। केंद्र के स्तर पर भी लोक कल्याणकारी उपायों पर व्यय में कमी की गई है।
पूंजी निर्माण और सोशल सेक्टर पर सार्वजनिक व्यय में कमी करने से दीर्घकाल में आर्थिक वृद्धि पर निगेटिव प्रभाव पड़ेगा।बेहतर राजकोषीय प्रबंधन एवं सार्वजनिक व्यय को नियंत्रित करने के लिए सरकार को, बिना किसी राजनीतिक विभेद के, वास्तविक लाभार्थियों की पहचान कर उन्हीं को लक्ष्य करके व्यय की योजना बनानी चाहिए अन्यथा राज्य सरकारों के कर्ज का बोझ बढ़ता चला जाएगा। इससे राज्यों का अनुत्पादक व्यय (ब्याज आदि) भी बढ़ेगा, जिससे विकास बाधित होगा। सरकारों को अपने कर्ज की गणना करते समय आॅफ-बजट उधारों को भी कुल कर्ज में शामिल करते हुए ज्यादा ट्रांसपेरेंट बनाना चाहिए। इससे राजकोषीय प्रबंधन को सरल और संवहनीय बनाया जा सकेगा।
हमारे देश की केंद्र सरकार एवं अनेक राज्य सरकारों द्वारा समय-समय पर कुछ ऐसी घोषणाएं की जाती रही हैं जो दीर्घकाल एवम मध्यकाल में उत्पादकता और उत्पादन को बढ़ाने में बिल्कुल भी सहायक नहीं रहीं हैं। ऐसी नीतिगत घोषणाओं, जो उत्पादन और उत्पादकता में दीर्घकाल में वृद्धि करने में कोई योगदान नहीं देती, पर होने वाले व्यय को नियंत्रित करने के लिए एक संस्थागत तंत्र का निर्माण करना आज समय की मांग है। आज लोक कल्याण उपायों और राजकोष को होने वाले नुकसान के बीच संतुलन स्थापित करने की महती आवश्यकता है।
श्रीलंका संकट से सबक लेते हुए सरकार के ऊपर बढ़ते कर्ज के बोझ एवं बकाया देनदारी का संज्ञान लेना भी जरूरी है। आज राजस्व घाटे, राजकोषीय घाटे और जीडीपी ग्रोथ पर चिंता करने से भी ज्यादा जरूरी है सार्वजनिक कर्ज और बकाया देनदारियों के बोझ को कैसे कम किया जाए। राजकोषीय संकट, किसी वर्ष विशेष के राजकोषीय घाटे या राजस्व घाटे की वजह से नहीं बल्कि, दीर्घकाल में सार्वजनिक कर्ज के स्टॉक में वृद्धि की वजह से आता है।
एक बेहतर राजकोषीय प्रबंधन के लिए 15वें वित्त आयोग के अध्यक्ष और एफआरबीएम रिव्यू कमेटी (2017) के अध्यक्ष एनके सिंह की सिफारिशों को मानते हुए एक फिस्कल काउंसिल का गठन किया जाना चाहिए। सिंह के अनुसार उक्त काउंसिल अर्थव्यवस्था के विभिन्न वृहद आर्थिक संकेतकों-नॉमिनल एंड रियल जीडीपी, कर उत्पलावनता, कमोडिटी प्राइस आदि के लिए भविष्य की फॉरकास्टिंग कर सरकार को आने वाले संकट से आगाह भी करेगी और उस संकट से बाहर निकलने के सुझाव भी देगी।