Saturday, July 27, 2024
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बड़के के अच्छे संस्कार

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अनीता श्रीवास्तव |

वे दोनों इस बात पर एक मत थे कि उन्होंने बेटे को अच्छे संस्कार दे दिए हैं। अब चिंता की कोई बात नहीं है। वैसे अच्छे संस्कार की कोई शास्त्रीय परिभाषा उनके पास थी नहीं ; लिहाजा वे उन सभी बातों को अच्छे संस्कार मानते थे जिनसे बालक उस ट्रेन की एक अच्छी सवारी बनता है, जिसका इंजन पिताजी, और गार्ड माता जी हैं। इस ट्रेन में सुरक्षित यात्रा की अनिवार्य शर्त है – माता- पिता की मानना और उनकी हाँ में हाँ मिलाना। तो यह ट्रेन अपनी इकलौती सवारी बड़का को ले कर उसकी जिÞंदगी के युवावस्था नामक स्टेशन पर पहुंच गई थी।

बाल्यकाल में कहानियों में से सच और झूठ, नैतिक और अनैतिक पर तर्क कर- कर के पिटई का हकदार बनने वाला बड़का अब चुपचाप सहमत होने वाल संस्कारी युवक बन गया था। बड़का, अब सचमुच का बड़ा हो गया था। शादी लायक हो गया था। बचपन से अनवरत दिए जा रहे अच्छे संस्कार जो कि उसमें समय-समय पर कूट- कूट कर भर दिए गए थे, अब तक बढ़िया सेट हो गए थे जैसे पानी के बाद सीमेंट हो जाता है।

अब आप ये मत पूछिएगा कि अच्छे संस्कार क्या होते हैं! आप खूब जानते हैं। जो सबसे अच्छा वाला है हम यहां केवल उसी की चर्चा करेंगे। यह कुछ इस प्रकार है-लड़कियों की तरफ आंख उठा कर नहीं देखना है। देख भी लिया तो बात नहीं करना है। छोटे चाचू की शादी में जब जम कर नकदी और दहेज मिला तब जा कर बड़के ने इस संस्कार का मर्म जाना कि लड़कियों से बचना क्यों जरूरी है। माता पिता दूर की सोच लेते हैं। इसीलिए अच्छी बातें बचपन से ही घोंट कर पिला देते हैं। यही सब सोच कर बड़के की मम्मी फोन पर, बाहर के खाने- पीने की तरह ही लड़कियों की दोस्ती से भी बचने की सलाह देती रही थीं।

आजकल बड़के की नौकरी लग गई है। इतना होते ही मम्मी जी के मन- पतीले में बड़के की शादी के खयाल खदबदाने लगे। पापा जी को लार सपने में थाल में भरे नोट दिखने लगे। बाकायदा उसके लिए रिश्ते भी आने लगे। अभी मम्मी जी, जो फोटो लिए बैठी हैं वह उनकी भाभी के मायके तरफ से आई है। पास सरक कर पापा जी को दिखाई। वे ‘हूं’ से अधिक कुछ न बोले। ‘हूं’भी इसलिए कि कुछ न कुछ तो बोलना था।

‘लड़के को दिखा लो।’ पहले पायदान पर इतना कहना काफी है। मम्मी ने लड़के को फोटो दिखाने के लिए उसके कमरे की तरफ कदम बढ़ाए। तभी उन्हें याद आया अपनी भाभी से लड़की के पिता की माली हालत के बारे में कुछ दरियाफ्त कर लें।

इधर दूसरी लड़की के पिता भी प्रयासरत हैं। वे बाबू हैं। ये वाले मास्टर हैं। तो क्या करें? जो भी लड़के को पसंद आए वही फाइनल करें। कोई गधा हो तो यही करे। लेकिन गधे न तो पापा हैं न मम्मी ही हैं। तो फिर कौन है! आप खुद ही देखिए।
वे दोनों रास्ता बदल कर अपने कमरे में आए। सारी दुनिया से निर्लिप्त हो कर आमने सामने बैठ गए। दोनों आदमी टेंशन में हैं। बेटे को कौन सी फोटो दिखाएं। मास्टर के लड़के की या बाबू के लड़के की। बेटा संस्कारी है जो भी दिखाएंगे फटाक से पसंद कर लेगा।
दोनों में बातचीत शुरू हो गई-
-आप क्या सोचते हैं…. मतलब कौन सी लड़की सही रहेगी?
-मुझे लगता है, मास्टर की बेटी ठीक है लेकिन…
-दिखने में अच्छी है।
-पढ़ाई लिखाई भी बढ़िया है। लेकिन…
-लेकिन क्या?
– दूसरे वाले की इनकम अधिक है।
-तो फिर उसी की फोटो दिखाओ। वही ठीक रहेगी।
-मैं तो कहती हूं दूसरी वाली फाइनल ही कर ही दो।
– मगर लड़का…
-लड़का अपना संस्कारी है। जहां कहेंगे कर लेगा।
-मगर होना तो यह चाहिए कि जहां लड़का कहे वहां हम तैयार हो जाएं।
-वो तो किसी फकीर की बेटी को पसंद कर लेगा तो क्या हम राजी होंगे?
-हां ये तो है। हम पहले ही पैसे से मजबूत पार्टी देखेंगे। फिर लड़की का फोटो उसे दिखाएंगे।
-बिल्कुल। फोटो तो वह पसंद कर ही लेगा। हमने संस्कार ही ऐसे दिए हैं।
बड़के को फोटो दिखाई गई। दोनों परिवारों की मीटिंग तय हुई। आमने- सामने बैठ कर बात होने लगी। लड़की की पढ़ाई। हॉबी। फ्यूचर प्लान वगैरह। सब बढ़िया। अब बड़के के पापा ने बड़के की मम्मी को देखा। फिर बड़के को। फिर लड़की के पिता पर तीर के माफिक नजरें गड़ा कर बोले, ‘कितने तक की करेंगे शादी?’
लड़की का पिता अकबका कर इधर- उधर देखने लगा।
बड़का अब उठ कर बाहर चला गया, ताकि बात- चीत खुल कर हो जाए।
ये होते हैं अच्छे संस्कार।


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