राजेंद्र कुमार शर्मा
वर्तमान में संस्थानों और एमएनसी में एक ऐसी संस्कृति का चलन पनप रहा है, जिसमें ‘आॅलवेज आॅन’ वाले कॉन्सेप्ट को तरजीह दी जा रही है। छोटे-बड़े संस्थानों और उनके एंप्लॉयर्स में कर्मचारियों, अधिकारियों से ड्यूटी पर न होते हुए भी, ड्यूटी से संबंधित कार्य करने की अपेक्षा की जाती है अर्थात 24 गुना 7 क्रियाशील रहने की मांग कार्यस्थलों पर एक आम बात हो चली है। ऐसे कर्मचारियों की मांग में वृद्धि देखी जा रही है जो रविवार या त्योहार जैसे छुट्टी के दिन भी ड्यूटी कर सकते हों। युवा पीढ़ी के संस्थानों और संगठनों में, जहां सेना जैसे कमांड और नियंत्रण का चलन है, वहां पर इस प्रकार संस्कृति सरलता से देखी जा सकती है।
आलवेज आन कहीं एक संकट की दस्तक तो नहीं
कार्यस्थल पर सदैव क्रियाशील रहने की अपेक्षा और आदत को एक संकट या समस्या के रूप में देखा जाने लगा है। क्योंकि यह न केवल कर्मचारियों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित कर रहा है, बल्कि कार्यस्थल पर नवाचार और उत्पादकता को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर रहा है। जहां टेक्नोलॉजी का उद्देश्य कार्य को आसान बनाना और उत्पादकता बढ़ाना होना चाहिए था, वहीं इसका दुरुपयोग कर संगठनों को आलवेज आन बना दिया गया है, जिसके कारण निरंतर काम करने की मांग इतनी बढ़ गई है कि वे सामान्य दैनिक जीवन की दिनचर्याओं जैसे कि नींद, भोजन, व्यक्तिगत संबंध, शादी-ब्याह से गैरहाजिरी, व्यायाम या शौक में खलल पैदा कर रही है।
सदैव सक्रियता की मांग की सार्वभौमिकता
यह स्थिति या समस्या सिर्फ छोटे संगठनों की ही नहीं है, बल्कि बड़े प्रतिष्ठित संगठनों में भी समान रूप से व्याप्त है। वहां भी कर्मचारियों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे मूक रहकर किसी भी कीमत पर ‘विजय भव:’ के लिए काम करें। ‘सदैव सक्रिय’ रहने की ये अपेक्षाएं, संगठनात्मक संस्कृति में इतनी आम बात हो गई हैं, जहां कहा जाता है कि ‘हर कोई ऐसा ही तो करता है, फिर हम क्या कर्मचारियों से कुछ अलग डिमांड कर रहे है।’अर्थात संगठन और संस्थानों ने ‘आॅलवेज आॅन’ का सर्वभौमीकरण कर दिया है।
नेतृत्व जो मानवीय आवश्यकताओं को समझे
उपरोक्त वर्णित कार्यस्थल वातावरण में आवश्यकता एक ऐसे नेतृत्व की है जो संस्थान या संगठन के व्यवसायिक उद्देश्यों की पूर्ति के साथ साथ मानवीय आवश्यकताओं भी ध्यान में रखे। वह जानता है कि संस्थान या संगठन का स्थाई लाभ, उसके कर्मचारियों की खुशी और उनके स्वास्थ्य में ही निहित है। इसे मानव केंद्रित ( ह्यूमन सेंट्रेड) नेतृत्व का नाम दिया जाता है, जो भावात्मक संबंधों को भी वरीयता देता है। ऐसा नेतृत्व एक शिक्षक की भांति भावात्मक पक्ष को ध्यान में रखते हुए कार्य भार को कर्मचारियों के बीच विभाजित करता है, जिससे कार्य के अच्छे परिणाम प्राप्त होते हैं। ऐसा नेतृत्व अपने कर्मचारियों की बॉडी लैंग्वेज को अच्छे से समझने वाला होता है। उसकी यही दक्षता , उसको पारदर्शी रूप से संप्रेषण में सहायक बन, कर्मचारियों को मनोवैज्ञानिक सुरक्षा प्रदान करती है।
वास्तविक मानवीय संपर्क निर्माण
यह नेतृत्व, विश्वास का एक वास्तविक मानवीय संपर्क स्थापित करने में मददगार होता है जो एक स्वीकार्यता वाला वातावरण पैदा कर, द्वन्द्व की कोई आशंका को समाप्त कर देता है। कार्यस्थल पर तनाव को कम करने के लिए नेतृत्व भावात्मकता और बुद्धिमत्ता के साथ किया जाना चाहिए।
राजेंद्र कुमार शर्मा