सोमवार 14 अक्टूबर की शाम एक न्यूज चैनल की महिला एंकर यूपी के बहराइच में हुई सांप्रदायिक हिंसा के बहाने चर्चा में शामिल बीजेपी प्रवक्ता और और ‘आरएसएस के बुद्धिजीवी’ को ‘इस्लामोफोबिया’ फैलाने का भरपूर मौका देने में जुटी थी। उसने अपनी बात को और प्रामाणिक बताने के लिए महाराजगंज कस्बे में हुई झड़प के पहले का वीडियो दिखाने का ऐलान किया। वीडियो में दिखा कि प्रतिमा विसर्जन का जुलूस एक जगह रुका है और डीजे पर जोर-जोर से गाना बज रहा है- ‘चाहे जितना जोर लगा लो…चाहे जितना शोर मचा लो…जीतेगी बीजेपी, यूपी में तो जीत के आएंगे फिर योगी जी…!’ जाहिर है एंकर झेंप गई। दुर्गा पूजा से जुड़े किसी शास्त्र में ऐसा श्लोक या भजन नहीं है जिसमें बीजेपी की जीत की कामना की गयी हो। स्पष्ट हुआ कि महाराजगंज में प्रतिमा विसर्जन के बहाने बीजेपी और आरएसएस के लोग सीधे अपना शक्ति-प्रदर्शन कर रहे थे और राजनीतिक विरोधियों को ललकार रहे थे। इसका धर्म के किसी आयाम से कोई लेना-देना नहीं था। यह सीधे-सीधे धर्म और त्योहारों के राजनीतिक इस्तेमाल का मामला था। नतीजे में एक नौजवान को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा, दर्जनों जेल में हैं और बड़ी तादाद में घर और दुकानें यहां तक अस्पताल तक फूंक डाले गए हैं। बहराइच में जो क्षति हुई वह समाज की, प्रदेश की और देश की है। लेकिन इससे राजनीतिक लाभ की शर्मनाक कोशिश कौन कर रहा है, यह भी स्पष्ट है।
सिर्फ कल्पना की जा सकती है कि इस घटना में जान गंवाने वाले नौजवान रामगोपाल मिश्र की पत्नी और मां-बाप परक्या बीत रही होगी। रामगोपाल की छह महीने पहले ही शादी हुई थी। उसकी हत्या की जितनी निंदा की जाये कम है और हत्यारों को कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए। यह सवाल भी है कि जब रामगोपाल हरा झंडा उखाड़ कर भगवा झंडा फहरा रहा था तो पुलिस हाथ पर हाथ धरे क्यों बैठी हुई थी? जिन वीडियो में यह दिखायी दे रहा है कि रामगोपाल झंडा उखाड़ने की कोशिश में छत की रेलिंग तोड़ रहा है, उसमें पुलिस का कोई जवान क्यों नहीं है? क्या पुलिस ऐसा चाहती थी कि झंडा उखाड़ा जाए, फिर उसकी प्रतिक्रिया हो? न पुलिस ने छत पर चढ़ने से रामगोपाल को रोका और न झंडा उखाड़ने से। अगर उसे रोक लिया जाता या बाद में ही पुलिस पकड़ लेती तो शायद हत्यारों को गोली मारने का मौका नहीं मिलता।
ऐसी घटना वहीं हो सकती है जहां सरकार या तो अनुपस्थित हो, या फिर वह ऐसा होने देना चाहती हो। चूंकि यूपी में योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री पद पर आसीन हैं और कानून व्यवस्था पर उनके ‘लौह नियंत्रण’ के ‘विज्ञापन’ हर तरफ छाये हुए हैं तो यही माना जाना चाहिए कि जो कुछ हुआ योगी सरकार की मर्जी से हुआ। दुर्गा प्रतिमा के विसर्जन का जुलूस 13 अक्टूबर की शाम को निकला था जब झगड़ा हुआ, लेकिन प्रशासन 14 अक्टूबर को भी हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा जब लाठी-डंडों और हथियारों के साथ निकाले गए जुलूस ने अल्पसंख्यकों से जुड़ी संपत्ति और प्रतिष्ठानों पर जगह-जगह तोड़फोड़ और आगजनी की। कई शोरूम यहां तक कि अस्पताल तक जला दिया गया। कई घरों पर हमले हुए। क्या प्रशासन के मुस्तैद रहते ऐसा संभव हो सकता था? जाहिर है नहीं। प्रशासन का पहला काम होता है कि वह तनाव की स्थिति में भीड़ न इकट्ठा होने दे। इसी तर्क पर 2020 में हाथरस में सामूहिक बलात्कार का शिकार हुई दलित लड़की की लाश को योगी प्रशासन ने पेट्रोल डालकर जला दिया था। अंतिम संस्कार के लिए लाश मांग रहे परिजनों को पुलिस ने घर में कैद कर दिया था। बहराइच में ऐसी मुस्तैदी नहीं दिखायी गयी। हिंसा को ग्रामीण क्षेत्रों में फैलने दिया गया जबकि इसे आसानी से रोका जा सकता था जैसा कि एक दिन बाद रोका गया। ऐसे में एक ही नतीजा निकलता है कि सत्ता संरक्षण में अल्पसंख्यकों के खिलाफ हमले को संगठित करके वोट बटोरने का टेस्टेड ‘गुजरात मॉडल’ यूपी में दोहराने की कोशिश की जा रही है। योगी आदित्यनाथ ने बीते दिनो ‘बंटोगे तो कटोगे’ जैसा जहरीला नारा देकर जो परिदृश्य खींचा था, बहराइच की आग से उसमें रंग भरने की कोशिश की गयी है।
दुर्गा पूजा के जुलूस बीजेपी सरकारों के आने से पहले भी निकलते रहे हैं। यूपी जिस गंगा-जमुनी तहजीब पर गर्व करता रहा है उसमें कोई दुर्गा प्रतिमा पर पत्थर फेंकने की कल्पना भी नहीं कर सकता है। उल्टा दुर्गा प्रतिमा के निर्माण से लेकर साज-सज्जा की चीजें बनाने तक में मुस्लिम समुदाय शामिल रहता आया है। रामलीलाओं में मुस्लिमों की भूमिका बड़े पैमाने पर होती रही है। राजधानी लखनऊ से सटे हुए बख्शी का तालाब इलाके की मशहूर रामलीला आज भी एक मुस्लिम परिवार आयोजित करता है। यही नहीं, लखनऊ के अलीगंज का मशहूर हनुमान मंदिर भी अवध के आखिरी बादशाह वाजिद अली शाह की दादी आलिया बेगम का बनवाया हुआ है और अयोध्या की हनुमानगढ़ी के प्रसिद्ध मंदिर का निर्माण नवाब शुजाउद्दौला ने कराया था और इसके संचालन के लिए 52 बीघा जमीन भी दान दी थी।
ऐसे उत्तर प्रदेश में धार्मिक जुलूसों पर हमले या पत्थरबाजी सहज नहीं है। आखिर रामगोपाल मिश्र के मन में ये विचार किसी ने तो भरे होंगे कि वह मकान की छत पर जाकर हरा झंडा उखाड़कर भगवा फहरा दे। क्या ये हिम्मत किसी के अंदर बिना सत्ता के संरक्षण के आ सकती है? बीजेपी से लेकर आरएसएस तक और योगी आदित्यनाथ से लेकर पीएम मोदी तक, इस समय एक ही आख्यान गढ़ने में जुटे हैं कि हिंदू खतरे में है। यह अलग बात है कि वे ऐसा कहकर अपने दस साल के शासन पर ही टिप्पणी कर रहे हैं जिसके रहते हिंदू खतरे में है। जिस देश में पीएम से लेकर सीएम तक और डीएमसे लेकर चपरासी तक के पदों पर हिंदू बैठे हुए हैं, सेना और पुलिस में भी हिंदुओं का ही बोलबाला है, वहां हिंदू खतरे में है कहना या तो हीनभावना की उपज है या फिर कोई षड्यंत्र।
रणनीति बहुत स्पष्ट है। धार्मिक जुलूस में शामिल बीजेपी और आरएसएस के कार्यकर्ता किसी मस्जिद के सामने जुलूस रोक देते हैं। वहां जमकर आपत्तिजनक नारे लगाये जाते हैं। डीजे से जोर-जोर से बीजेपी के प्रचार गाने बजाये जाते हैं। अल्पसंख्यकों का धार्मिक झंडा उखाड़ दिया जाता है या फिर मस्जिद की मीनार पर भगवा फहराया जाता है। यह सब पुलिस के सामने होता है जो बहुत आसानी से ऐसी घटनाएं रोक सकती हैं। रूट तय करते समय से ही सतर्कता बरत सकती है।
लोकसभा चुनाव में बहुमत पाने में नाकाम रहने और यूपी में तगड़ा झटका खाने के बाद बीजेपी और आरएसएस समाज को सांप्रदायिक विद्वेष में झोंककर सत्ता पर ढीली हुई पकड़ को फिर से मजबूत करने की कोशिश कर रहे हैं। यूपी में दस सीटों पर होने जा रहे विधानसभा उपचुनाव को हर हाल में जीतना है। राहुल गांधी की जाति जनगणना की मांग और अखिलेश यादव के पीडीए के नारे का उनके पास कोई सकारात्मक काट नहीं है। उन्हें हर हाल में मालिक बनना है, चाहे पूरा देश मलबा हो जाये। अब जनता को सोचना है कि वह अपने प्यारे देश को मलबा बनने देगी या नहीं।