देश की लोकसभा व राज्यसभा दोनों में पिछले दिनों अभूतपूर्व दृश्य देखने को मिले। महामहिम राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव के दौरान विपक्ष खासतौर पर कांग्रेस नेता राहुल गांधी द्वारा उद्योगपति गौतम अडानी व प्रधानमंत्री के रिश्तों को लेकर कई गंभीर आरोप लगाते हुए कई सवाल पूछे गए। गौर तलब है कि जब से हिंडनबर्ग की रिपोर्ट आने के बाद अडानी के कॉरपोरेट साम्राज्य में सुनामी आई है और सूत्रों के अनुसार स्टेट बैंक ऑफ इंडिया व भारतीय जीवन बीमा निगम सहित लाखों भारतीय निवेशकों द्वारा अडानी समूह पर किए गए निवेश पर संकट मंडराया है, तभी से केवल विपक्ष ही नहीं बल्कि पूरे देश की निगाहें इस बात पर टिकी थीं कि देखें आखिर प्रधानमंत्री अपने ऊपर लगने वाले ‘अडानी संरक्षण’ जैसे गंभीर आरोपों का क्या जवाब देते हैं। परंतु कई दिनों तक इसी विषय पर संसद के दोनों सदनों में हुये भारी हंगामे के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दोनों सदनों में लगभग डेढ़ घंटे तक राष्ट्रपति के अभिभाषण पर अपने विशेष अंदाज में भाषण तो जरूर दिया परंतु अडानी मुद्दे पर स्पष्टीकरण देना या इसकी चर्चा करना तो दूर अडानी का जिक्र तक करना मुनासिब नहीं समझा। राज्य सभा में तो उस समय अजीब स्थिति देखने को मिली जबकि एक ओर तो विपक्ष सदन में ‘मोदी-अडानी भाई भाई’ के नारे लगा रहा था परन्तु उसी समय प्रधानमंत्री इस विरोध से बेफिक्र होकर विपक्ष पर ही हमलावर होते रहे।
वे उस समय अडानी मुद्दे पर जवाब देने के बजाये पंडित नेहरू व इंदिरा गांधी की सरकारों के ‘दोष’ गिनाने में व्यस्त थे। मोदी-अडानी की प्रगाढ़ मित्रता को दो दशक से भी अधिक समय बीत चुका है। इस दौरान गुजरात से लेकर देश विदेशों तक अडानी ने अपने साम्राज्य का जिस तरह सही व गलत तरीकों से विस्तार किया है, यह किसी से छुपा नहीं है।
और हिंडनबर्ग ने जिसतरह अडानी के ‘झूठ’ और अनियमिताओं पर आधारित साम्राज्य की हवा निकाली है, वह भी पूरा विश्व देख रहा है। विश्व के तीसरे सबसे बड़े उद्योगपति का रातोंरात शीर्ष दस और शीर्ष बीस तक की सूची से बाहर हो जाना कोई असाधारण घटना नहीं है। परंतु जिस समय हिंडनबर्ग ने अडानी की पोल खोली उस समय अडानी भी राष्ट्रवाद की आड़ में अपना मुंह छिपाते दिखाई दिए थे।
उन्होंने हिंडनबर्ग की रिपोर्ट को राष्ट्रवाद पर हमला बता दिया था। उधर प्रधानमंत्री भी अपने भाषण में अडानी के सम्बंध में कोई सफाई देने के बजाये विपक्ष व उसकी नीति व नीयत पर ही सवाल उठाते रहे। प्रधानमंत्री अपने समर्थन में जिस चीज का सबसे मजबूत सहारा लेते हैं वह है उनकी पूर्ण बहुमत की सरकार और इतनी आलोचनाओं के बावजूद कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में उनका विजय अभियान जारी रहना।
तभी चाहे संसद में विपक्ष पर बहुमत के शस्त्र से हमलावर होना हो या इसी की आड़ में जरूरी सवालों से किनारा करना या उनसे बचना व अनदेखी करना,सरकार द्वारा इस ‘हुनर’ का इस्तेमाल बखूबी किया जा रहा है। वैसे भी हमारे प्रधानमंत्री को शायद इस बात में महारत हासिल है कि वे जब भी जहां भी ‘लाजवाब’ हुए उसी समय उन्होंने ‘खामोशी’ का आवरण ओढ़ लिया।
याद कीजिये गुजरात का मुख्यमंत्री होते हुये उनके साथ वरिष्ठ पत्रकार करण थापर का वह साक्षात्कार जिसमें वे पानी मांग कर पीते और करण के सवालों का जवाब देने के बजाय बीच में ही साक्षात्कार छोड़कर जाते दिखाई दिए थे। इसी तरह पत्रकार विजय त्रिवेदी को विमान में दिए गए एक साक्षात्कार के दौरान भी वे सवाल से मुंह मोड़ते नजर आए और बार-बार त्रिवेदी द्वारा प्रश्न पूछने के बावजूद वे सवालों की अनसुनी करते रहे। 2014 में देश का प्रधानमंत्री बनने के बाद से तो आजतक प्रधानमंत्री द्वारा एक भी संवाददाता सम्मलेन नहीं बुलाया गया।
और यदि कुछ चुनिंदा गैर पत्रकारों को साक्षात्कार दिया भी गया तो उसकी प्रश्नावली न तो प्रधानमंत्री के स्तर से मेल खाती थी न ही देश इस तरह के सवालों को जानने में दिलचस्पी रखता कि ‘मोदी जी आम काट कर खाते हैं या चूसकर’ और न ही इसमें कि ‘मोदी जी में फकीरी कहां से आई’? परंतु देश निश्चित रूप से उन सवालों का जवाब जरूर जानना चाहता है जो विपक्ष द्वारा अडानी साम्राज्य के सत्ता संरक्षण में अर्श पर जाने और हिंडनबर्ग की रिपोर्ट को लेकर सदन में पूछे गए हैं।
सत्ता हासिल कर लेने या बहुमत प्राप्त करने का अर्थ यह हरगिज नहीं है कि विपक्ष के उन ज्वलंत सवालों से मुंह मोड़ लिया जाए, जिन्हें लेकर संसद कई दिनों तक ठप्प रही? वे सवाल निश्चित रूप से जवाब चाहते हैं, जिनके चलते देश के स्टेट बैंक ऑफ इंडिया व एलआईसी जैसे संस्थनों पर संकट खड़ा हो गया और जिसके चलते इन संस्थाओं के करोड़ों निवेशकों में संदेह, भय व चिंता पैदा हो गई है। संसद की कार्रवाई से राहुल गांधी के अडानी संबंधी किए गए सवालों को संसद की कार्यवाही से अलग करने से तकनीकी रूप से इन आरोपों से बचने की कोशिश की जा सकती है।
प्रधानमंत्री इसी की आड़ लेकर जवाब देने से भी बच सकते हैं परंतु भारत के प्रधानमंत्री व सरकार का इतने अति महत्वपूर्ण मुद्दे पर खामोश रहना और सवालों का जवाब देने के बजाये इधर-उधर की बातें कर देश की संसद को अपनी ‘भाषण शैली’ के प्रदर्शन का स्थान मात्र मान लेना मुनासिब नहीं। इन्हीं परिस्थितियों पर मशहूर शायरा ‘परवीन शाकिर’ की एक गजल का यह शेर कितना सटीक बैठता है कि-मैं सच कहूंगी मगर फिर भी हार जाऊंगी। वह झूठ बोलेगा और लाजवाब कर देगा।