साहिर लुधियानवी की एक नज्म है, खून अपना हो या पराया हो; नस्ल-ए-आदम का खून है आखिर। जंग मशरिक में हो कि मगरिब में, अम्न-ए-आलम का खून है आखिर। वर्तमान दौर में ये पंक्तियां एकदम सटीक बैठती हैं, क्योंकि जिस दौर में आज हम जी रहें हैं या कहें मानव सभ्यता जिस तरफ बढ़ रही है, उन हालात को देखकर यही अंदेशा लगाया जा रहा है कि दुनिया तीसरे विश्व युद्ध की तरफ बढ़ रही है। दुनिया में अमन चैन जैसे शब्द अब बेमानी से लग रहे हैं। अभी चंद समय पहले ही दुनिया कोरोना जैसी वैश्विक महामारी के भयाभय दौर से गुजरी है। इस महामारी के जख्म अभी भरे भी नहीं हैं कि दुनिया तीसरे विश्व युद्ध की तरह बढ़ चली है। कोरोना महामारी ने विश्व को यह आईना जरूर दिखाया कि भले भी कोई देश कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो, भले ही परमाणु बम और अणुबम पर इतरा ले और महाशक्ति होने का गुमान क्यों न हो, लेकिन जब कोई महामारी मौत बनकर आती है, फिर 2022 में भी उसे सहजता के साथ टाला नहीं जा सकता है।
कौन नहीं जानता कि युद्ध भले ही रूस और यूक्रेन के बीच चल रहा हो, लेकिन इस युद्ध में अमेरिका का योगदान भी कम नहीं है। यूक्रेन को युद्ध के लिए उकसाने का काम अमेरिका ने ही किया है। इस युद्ध के अपने कई मायने हैं और इतना ही नहीं, सबके अपने-अपने स्वार्थ भी हैं, लेकिन क्या युद्ध किसी भी समस्या का समाधान हो सकता है? नहीं ना! गौरतलब हो कि दूसरी तरफ वर्तमान दौर में समूचा विश्व ग्लोबल वार्मिंग जैसे वैश्विक संकट को झेल रहा है, जिसका परिणाम आए दिन भूकंप, बढ़ते जल संकट के रूप में सामने आ रहा है। इंसान स्वच्छ हवा-पानी तक को तरस रहा है। तो वहीं कोरोना का संकट भी अभी टला नहीं है। आए दिन नए-नए वेरिएंट लोगों पर मौत बनकर मंडरा रहे हैं, पर हमें इन सब बातों से भला कहां फर्क पड़ने वाला है? हमें तो आधुनिकता का नंगा नाच जो करना है। नित नए प्रयोग करना है, अणुबम बम से लेकर परमाणु बम तक का परीक्षण करना है। विश्व शक्ति बनना है। ऐसे में सर्वश्रेष्ठ बनने की चाहत में हम अपने ही विनाश की इबारत लिख रहे हैं। इसमें समूचा विश्व बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहा है। आज भले ही हम अपनी तकनीकी पर इतरा ले लेकिन आने वाली पीढ़ी को हम बारूद के ढेर पर बैठा रहे है।
हमें समझना होगा कि मानव मात्र की भलाई अणुबम और परमाणु बम पर नहीं, बल्कि सत्य, अहिंसा और दयाभाव पर टिकी हुई है। इसे केवल पाठ्यक्रम तक सीमित नहीं रखा जाना चाहिए। बल्कि हर मानव का यही धेय्य होना चाहिए कि उनके मन में दया और करूणा हो। लेकिन वर्तमान परिदृश्य को देखकर तो यही लगता है जैसे दो देशों का युद्ध महज समूचे विश्व के लिए मनोरंजन का साधन बन गया हो। किसी के दु:ख दर्द को देखकर मानव संवेदना जैसे मर सी गई हो। दुनिया में भुखमरी, कुपोषण पर चर्चा हो न हो लेकिन किस देश के पास क्या और कितने हथियार हैं, कितने बम मिसाइल हैं, इसकी चर्चा जोरों से शुरू हो गई है। ऐसे में हमें समझना होगा कि एक भूखे इंसान को हथियार नहीं बल्कि पेट भर अनाज चाहिए। अणुबम और परमाणु बम पर बैठकर अमन चैन की आस करना बेमानी है।
देखा जाए तो दुनिया में यूं तो समय-समय पर कई युद्ध लड़े गए। खून की नदियां बहा दी गर्इं, परमाणु हथियारों तक का प्रयोग हुआ। पर इन युद्ध से किसका भला हुआ? युद्ध के केवल दुष्परिणाम ही सामने आते हैं। रूस यूक्रेन युद्ध भी कुछ समय के बाद थम जाएगा, लेकिन इस युद्ध में जिन लोगो ने अपनो को खोया है, क्या उसकी भरपाई की जा सकेगी? प्रकृति के प्रदूषण को हम युद्ध के कारण पल भर में कई गुणा बढ़ा देंगे क्या उसको कम कर सकेंगे? कीव जो यूक्रेन की राजधानी है, आज जहरीली हवा का गुब्बारा उसके आसमान में घूम रहा है। ऐसे में सवाल कई हैं, लेकिन प्रभुत्व की लड़ाई ऐसी है, जिसे हम देखकर भी अनदेखा कर रहे हैं। आज नहीं तो कल हमें इसके दुष्परिणाम भुगतने ही होंगे। तब कोई हथियार कोई असलहा- मिसाइल काम नहीं आएगी। आंकड़ों की बात करें तो 2020 में भारत सैन्य खर्च के मामले में अमेरिका और चीन के बाद तीसरा सबसे बड़ा देश बन गया है। फिर भी आए दिन पाकिस्तान और चीन अपनी गिद्ध दृष्टि गड़ाए हुए हैं।
जर्मनी ने अपना सैन्य बजट 47 अरब यूरो से बढ़ाकर 100 अरब यूरो कर दिया है। ऐसे में समझ सकते हैं कि दुनिया अब अपने बच्चों को शिक्षा देने से ज्यादा हथियारों को इकट्ठा करने पर उतावली है। फिर मानव सभ्यता और उसके मानवीय मूल्य कहां टिकेंगे? यह अपने आपमें बड़ा सवाल है। ऐसे में निष्कर्ष स्वरूप यह कहें कि आज हर देश की संपन्नता का पैमाना बदल गया है, तो यह अतिश्योक्ति नहीं और अब जिस देश के पास जितने ज्यादा हथियार हैं, वह उतना ही शक्तिशाली माना जाने लगा है। दो देशों के युद्ध में समूचा विश्व अपना नफा नुकसान तलाशने लगता है। उसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि युद्ध के परिणाम क्या होंगे? कितने निर्दोष लोगों की जान चली जाएगी? लोग बेघर हो जाएंगे। मानव की प्रवृत्ति भी कितनी अजीब है कि कभी एक छोटे जीव की हत्या पर विश्व भर में कोहराम मचा देता है, आंदोलन की बाढ़ लग जाती है, लेकिन आज कोई देश आगे बढ़कर यह पहल करना ही नहीं चाहता कि युद्ध थम जाए। सवाल महाशक्ति का दंभ भरने वाले देशों पर भी है, लेकिन ये मानव प्रवृत्ति जो न करा दे, वह कम है। युद्ध से किसी देश के संसाधनों पर कब्जा किया जा सकता, वहां के लोगों के दिल नहीं जीते जा सकते। युद्ध से सृष्टि विनाश की तरफ ही बढ़ेगी, लेकिन यह समझने को तैयार कौन है। सवाल तो यही है, वरना महाशक्ति बनने की होड़ तो सबमें है।
सोनम लववंशी