Saturday, July 27, 2024
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अर्थसंकट के बीच अस्थिरता

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Samvad 14


Kishan Partap Singhइसे ही कहते हैं कोढ़ में खाज पैदा होना। 1948 में ब्रिटेन की गुलामी से मुक्ति के बाद का सबसे बड़ा आर्थिक संकट झेल रहा श्रीलंका अब राजनीतिक अस्थिरता के हवाले होता भी दिख रहा है। वहां के राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे ने मंगलवार को देश की संसद में अपना बहुमत खो दिया क्योंकि कई दर्जन सांसदों ने उनकी सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया, जिनमें सोलह सांसद तो खुद राजपक्षे की पार्टी के ही हैं। ज्ञातव्य है कि श्रीलंका की संसद में कुल 225 सदस्य हुआ करते हैं और अब गोटाबाया राजपक्षे के पास इनमें बहुमत के लिए जरूरी संख्या से पांच सांसद कम हो गये हैं। हालांकि अभी यह साफ नहीं है कि आर्थिक संकट से निपटने में विफलता को लेकर गोटाबाया के इस्तीफे की मांग पर अड़ा विपक्ष उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाएगा या नहीं।

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ये पंक्तियां लिखने तक तक इतना ही पता है कि उनके द्वारा दिया गया संयुक्त सरकार में शामिल होने का न्योता विपक्ष को मंजूर नहीं है और उसने उनसे तत्काल इस्तीफा मांगा है। इस बीच पूरे मंत्रिमंडल के इस्तीफे के बाद मंगलवार को नियुक्त नए वित्तमंत्री ने भी पद संभालने के लिए एक दिन बाद ही यह कहते हुए इस्तीफा दे दिया कि देश के आर्थिक संकट से निपटने में पारम्परिक सरकारी कदम कारगर नहीं सिद्ध होने वाले। दूसरी ओर सरकारी पार्टी से अलग हुए निर्दलीय सांसद विजेयदासा राजपक्षे ने इस बात के मद्देनजर देश में खून की नदियां बह जाने तक की आशंका जता डाली है कि सरकार जनता की बुनियादी जरूरतें पूरी कर पाने में असफल हो गई है। इस बीच श्रीलंकाई रिजर्व बैंक के गवर्नर अजीत निवार्ड कबराल ने भी अपने पद से इस्तीफा दे दिया है।

बहरहाल, इस संकट के सिलसिले में समझने की सबसे बड़ी बात यह है कि यह एक दिन में नहीं पैदा हुआ कि श्रीलंका के सत्ताधीश यह कहकर इसकी जिम्मेदारी से छुटकारा पा सकें कि क्या करें, सब कुछ इतना अचानक हुआ कि कुछ करते ही नहीं बना। जानकारों के अनुसार इस संकट की आहत तभी महसूस की जाने लगी थी, जब उसकी अर्थव्यवस्था के तीन बड़े आधार-पर्यटन, विदेशों से आनेवाला श्रीलंकाइयों का पैसा और देश से किए जाने वाले वस्त्र व चाय आदि के निर्यात-कोरोना की ग्लोबल महामारी के दौरान बुरी तरह दुर्दशाग्रस्त हो गए। तब उस पर 12 बिलियन डॉलर का विदेशी कर्ज चढ़ गया और विदेशी मुद्रा भंडार में आई अभूतपूर्व गिरावट के कारण उक्त कर्ज की किस्तें चुकाने के भी लाले पड़ गए।

वैसे, श्रीलंका के पर्यटन उद्योग को 21 अप्रैल, 2019 को देश में जगह-जगह हुए बम ब्लास्टों से भी करारा झटका लगा था। उन विस्फोटों में कोलंबो में ही 50 से ज्यादा लोग मारे गए थे और अलग-अलग होटलों व शहरों में 300 से ज्यादा की मौत हो गई थी। फलस्वरूप विदेशी पर्यटक वहां जाने से कतराने लगे थे। अब ताजा अर्थसंकट की वजह से भी पर्यटक उधर का रुख नहीं करेंगे, जिससे उसके पर्यटन उद्योग को आगे और झटके लगने के आसार हैं। तिस पर रासायनिक खाद पर प्रतिबंध लगा दिए जाने के कारण देश की सारी खेती लंगड़ा गई है और देशवासियों के पेट भरने के लिए चावल का आयात करना पड़ रहा है।

सच पूछिये तो 2019 में बनी वर्तमान श्रीलंकाई सरकार को तभी, संकट की आहट के वक्त ही, जाग जाना और अपनी जनता को विश्वास में लेकर उसके पार जाने के हर संभव बदम उठाने में लग जाना चाहिए था। लेकिन ऐसा करने के बजाय उसने अपने राजनीतिक हित साधने के लिए कई तरह के टैक्स घटा दिए और लोगों को मुफ्त अनाज बांटना शुरू कर दिया। नतीजा वही हुआ, जो नहीं होना चाहिए था। विदेशी कर्जे में आपादमस्तक डूबे इस देश के पास रोजमर्रा के खर्चों के लिए भी धन नहीं बचा और विदेशी मुद्रा भंडार रिक्त होकर रह गया। पेट्रोल और डीजल के स्टॉक खत्म हो गए तो उनकीं खरीद मुश्किल हो गई। डीजल की किल्लत की वजह से सारे बड़े विद्युत संयंत्र बंद हो गए और बिजली के बगैर स्थिति इतनी खराब हो गई कि स्ट्रीटलाइटें बंद कर दी गई और अस्पतालों में डॉक्टरों द्वारा किये जाने वाले आॅपरेशन बंद हो गये।

अब जिन लोगों के पास कुछ पैसे बचे हुए हैं, उन्हें अपनी जरूरत की दवाओं और खाने-पीने की चीजों के लिए दुकानों के सामने लंबी-लंबी कतारें लगानी पड़ रही हैं, जबकि क्रय क्षमता गंवा चुके लोग उपद्रव पर उतर आए हैं। उनमें से अनेक अपनी जान बचाने के लिए भाग-भागकर भारत भी आ रहे हैं। खाद्यान्न और दूध या तो श्रीलंका में उपलब्ध नहीं हैं या फिर इतने महंगे हैं कि आम लोग उन्हें खरीद नहीं पा रहे। चावल 500 रुपये किलो, चीनी 300 रुपये किलो और दूध का पाउडर 1600 रुपये किलो बिक रहा है।

निस्संदेह, अब, जब आग न सिर्फ लग गई बल्कि इस कदर विकराल हो गई है, कुएं खोदने में लगने भर से काम नहीं चलने वाला। लेकिन सवाल है कि क्या श्रीलंकाई सत्ताधीश इस बात को समझ पा रहे हैं और क्या राजनीतिक संकट के बीच वे संकअ से निपटने के उपयुक्त कदम उठा पाएंगे? विदेशी मामलों के जानकार डॉ. वेदप्रताप वैदिक इसमें संदेह जताते हुए बताते हैं कि वहां राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और अन्य तीन मंत्री एक ही राजपक्षे परिवार के सदस्य हैं। उनके अनुसार ऐसी पारिवारिक सरकार शायद इससे पहले दुनिया में कभी नहीं बनी है।

समण जा सकता है कि जिस सरकार में सर्वोच्च पदों पर इतने भाई-भतीजे बैठे हों, वह तानाशाह से कम नहीं हो सकती और लोकतंत्र के लबादे में यही तानाशाही श्रीलंका की सबसे बड़ी समस्या बनी हुई है। ऐसे में शायद ही किसी को मालूम हो या वह आश्वस्त होकर कह सकता हो कि ‘श्रीलंका का राज-परिवार’ संकट में अपनी जनता का सच्चा हमदर्द बनकर सामने आएगा। यह हमदर्दी होती और वह देश व दुनिया के हालात तो ठीक से समझकर वक्त की नजाकत के अनुसार विभिन्न स्तरों पर उपयुक्त राजनय बरतता तो हालात इतने विकराल होते ही नहीं। खासकर तब, जब श्रीलंका एक आइलैंड देश है और महज 2.25 करोड़ की जनसंख्या के कारण उस पर उतना बड़ा बोझ भी नहीं है, कोई न कोई पड़ोसी या संपन्न देश उसकी ओर मदद का हाथ बढ़ा ही देता। वैसे ही जैसे भारत के प्रयासों से रूस उसको कम कीमतों पर कच्चा तेल बेचने पर राजी हो गया है।

ठीक है कि अब, जब संकट का पानी सिर तक आ पहुंचा है और फिलहाल, उतरता नहीं दिखाई देता, श्रीलंका भारत से संबंध सुधारने की कोशिशों में जुट गया है, लेकिन इस जुट जाने को ‘देर आयद दुरुस्त आयद’ नहीं कह सकते, क्योंकि हाल के बरसों में वह जिस चीन पर अपनी निर्भरता बढ़ाता जा रहा था, उसने इस संकट में उससे किनारा कर रखा है। इसलिए श्रीलंका की यह स्थिति कब तक बनी रहेगी, कहा नहीं जा सकता। उसका राजनीतिक संकट उसके आर्थिक संकट को और गहरा करने लग जाए तो भी ताज्जुब की बात नहीं।


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