संस्कार ने जब ग्रेजुएशन की परीक्षा पास करके आगे की पढ़ाई के लिए किसी दूसरे शहर जाने के लिए मन बनाया तो उसकी मां बड़ी उदास हो गई। संस्कार के पिता कॉलेज में इंग्लिश के एसोसिएट प्रोफेसर थे और संस्कार को खूब प्यार करते थे। संस्कार बचपन से ही आईएएस आॅफिसर बनना चाहता था और इसके लिए वह कठिन मेहनत भी करता था। कलेजे पर पत्थर रखकर वह अपने बेटे को बाहर भेजने के तैयार हो गई। वक्त बीतता गया और एक दिन संस्कार के मां की खुशियों का ठिकाना नहीं रहा जब उसके बेटे का आईपीएस के लिए सिलेक्शन हो गया। संस्कार ने आईपीएस जॉइन नहीं किया और आईएएस में सिलेक्शन के लिए पुन: तैयारी करता रहा। दुर्भाग्यवश वह फिर किसी बार न तो आईएएस और न ही आईपीएस के रैंक में अपना स्थान बना पाया। वह अंतत: असफल रहा। थक कर उसने एक छोटा-सा बिजेनस शुरू कर लिया और किसी तरह से हताशा और अवसाद की तेज आंधी से खुद को महफूज रखने में कामयाब हो पाया।
कामना की वर्षों के लव अफेयर के बाद एक सफल बिजनेसमैन से शादी हुई थी और उसके जीवन में किसी चीज की कमी नहीं थी। वह अपने पति के साथ बड़ी खुशी के साथ अपना जीवन गुजार रही थी। वर्ष दर वर्ष गुजरता गया और कामना प्रतीक्षा करती रही कि किसी दिन उसके भी गोद जरूर भरेंगे। लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था और दुर्भाग्यवश वह माँ नहीं बन पायी। पति समझदार थे और उसने सब कुछ प्रारब्ध को सौंपते हुए किसी बच्चे को गोद ले लिया। कामना की गोद हरी हो गयी किन्तु खुशियों से भरी इस कहानी का यहीं अंत नहीं हुआ। कामना के खुशहाल जीवन में आंधी तब आई जब उसके पति का अपने बिजनेस पार्टनर के साथ अफेयर्स के किस्से तेजी से फैलने लगे। वक्त ने करवट ली और इसी चक्कर में कामना का बसा बसाया संसार उजड़ गया। समय तेजी से गुजरता गया और एक दिन ऐसा भी आया जबकि अपने पति से तलाक पाकर कामना अपने गोद लिए हुए बेटे के साथ गुमनामी के अलग संसार में रहने लगी।
जीवन के दो किस्से और दोनों का अंत दिल तोड़नेवाला, मन को मायूस करनेवाला। सोचा क्या था और अंजाम क्या हुआ। सपने क्या बुने थे और हकीकत में क्या मिला। इंतजार क्या चीज पाने का था और हकीकत में हासिल क्या हुआ। आज के लम्हे कितने मनभावन थे और कल के दिन कितनी उदासी भरी। आशय यह है कि जीवन का हर पल एक नया पल होता है, हर पल एक नया जीवन होता है। आशय यह भी है कि जीवन में कुछ भी स्थायी नहीं है। सुख के दिन भी यदि टिकते नहीं हैं तो दुख की घड़ियों का भी जीवन लंबा नहीं होता है। किन्तु जब हम सुख के दिनों में होते हैं और मन प्रसन्न होता है तो वक्त के गुजरने का ऐहसास नहीं होता है और ऐसा महसूस होता है गोया वक्त बंद मुट्ठी में रेत की तरह नीचे फिसल गया हो। किन्तु दु:ख की घड़ियाँ बड़ी मुश्किल से गुजरती हैं। लम्हे वर्षों का दु:खद ऐहसास दे जाता है। पीड़ा और व्यथा में मन को प्रतीत होता है कि वक्त कहीं ठहर-सा गया हो।
मानव जीवन में त्रासदियां अनवरत रूप से चलती रहती हैं और फिर भी हम सपने देखना नहीं छोड़ते हैं। इससे भी अधिक हम हमेशा ही यह सोचते हैं कि सब कुछ हमारे मन के मुताबिक हो, हमारे सोचे हुए और बनाए गयी योजना के अनुसार हो। लेकिन ऐसा हो नहीं पाता है और हम हताशा के घोर अंधकार में डूबते चले जाते हैं। जीवन व्यर्थ लगने लगता है और हम खुद को अभिशप्त महसूस करने लगते हैं। ऐसी स्थिति में जीवन में कुछ भी अच्छा नहीं लगता है और दुनिया बेरंग प्रतीत होने लगती है। यहाँ पर एक अहम प्रश्न यह उठता है कि जब हमेशा मन का नहीं होता है, हमेशा सोचा हुआ सिद्ध नहीं होता है और हम वैसी स्थिति में घबरा जाते हैं, चिंताएं हमें घेर लेती हैं और जीवन सारहीन प्रतीत होने लगता है तो फिर दिल को समझाने का सच्चा रास्ता क्या शेष रहता है? आखिर कब तक उदास रहा जाए, कब तक खुद को कोसा जाए? आखिर जीवन को वापिस पटरी पर लाने की सही तरकीब क्या है?
गौतम बुद्ध का मानना था कि मानव जीवन में समस्त दु:ख का कारण हमारी इच्छाएं होती हैं। इच्छारहित जीवन ही सुखी और संतुष्ट जीवन की सबसे बड़ी आधारशिला है। यदि इच्छाएं ही मानवीय दुखों का कारण हैं तो फिर इसका सामान्य अर्थ यही है कि हमें किसी चीज की इच्छा नहीं करनी चाहिए। लेकिन क्या ऐसा करना संभव है? क्या यह व्यावहारिक है? वास्तव में इच्छा और आसक्ति में फर्क होता है। अपनी किसी चाहत के प्रति आसक्ति का मतलब उससे जीवन और मृत्यु के समान जुड़ने से है। इच्छाएं तो जरूर होनी चाहिए क्योंकि वही इच्छाएं जीवन को ऊर्जा प्रदान करती है और उनसे ही हमारा जीवन चलता है। किन्तु जब इच्छाओं की पूर्णता के बारे में हम पूरी तरह आशावान हो जाते हैं और दूसरी तरफ परिणाम बिलकुल उल्टा निकलता है तो वही हमारे दु:ख का कारण होता है। इच्छा आशक्ति के बिना हो तो फिर निराशा नहीं होती है। हम निस्पृह भाव से अच्छे और बुरे परिणामों को स्वीकार कर लेते है।
प्रसिद्ध ब्रिटिश लेखक पर्सी बयसी शेली जब यह कहते हैं कि हमारे सबसे मधुर गीत वो होते हैं जिससे दर्द रिसता हो तो उसमें भी यही सत्य परिलक्षित होता है कि दर्द ही मानव जीवन की गाथा है और सुख भी दर्द के लम्हों से ही जन्म लेता है। बिना दर्द के भाव से अभिभूत हुए हम सुख का वास्तविक आनंद नहीं ले सकते हैं। एक तरह से दर्द से ही सृष्टि का प्रारंभ होता है। मां के गर्भ से जब शिशु बाहर आता है तो उसके पहले रुदन में भी यही सत्य प्रतिबिंबित होता है कि दर्द ही जीवन का सार है। लिहाजा जब कभी अपने मन की कोई बात नहीं हो तो मन को दु:खी करने की बजाय यह सोच कर मन को दिलाशा दिला देना बेहतर होगा कि शायद यही प्रारब्ध है और जीवन की यह एक ऐसी अपरिहार्य घटना है जिसे बदल पाने का सामर्थ्य किसी में नहीं है।
किंतु इसका आशय कभी भी यह नहीं है कि हमें सुख पाने की चाह का ही त्याग कर देना चाहिए, अकर्मण्य हो जाना चाहिए। बल्कि विपरीत परिस्थितियों में भी हमें आशा का दामन छोड़ना नहीं चाहिए। क्योंकि आशा ही जीवन का मरुद्यान है, तपते अंगारों पर ठंडे जल की शीतलता है, घोर निराशा का जहर है और सबसे अधिक आशा ही जीवन को यह दिलाशा देता है कि दु:ख की सुरंग चाहे कितनी ही लंबी और अंधेरी क्यों न हो, कभी न कभी सुरंग के उस पार रोशनी के विशाल संसार का उदय होने वाला ही होता है। जीवन की दु:खद और अमंगल घटनाओं को इस रूप में देखने और समझने से दु:ख के चुभन की अनुभूति की तीव्रता समय के साथ कुंद पड़ता जाता है और दु:ख फिर अजनबी नहीं रह जाता है। -श्रीप्रकाश शर्मा