विगत 7 अक्टूबर 2023 को हमास द्वारा इस्राइल के कुछ ठिकानों पर हमले और करीब 200 यहूदियों को बंधक बना लिए जाने के बाद से इस्राइल फलस्तीन पर हमले कर रहा है। दोनों ही हमलों की निष्ठुरता को शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। ऐसे हमलों में सबसे ज्यादा नुकसान हिंसा का शिकार होने वालों का होता है-चाहे वे सैनिक हों या नागरिक। अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस समेत कई प्रमुख पश्चिमी देशों ने इस्राइल के साथ एकजुटता प्रदर्शित की है। यहां तक कि हमास के हमले के कुछ ही घंटों बाद, भारत ने उसका समर्थन कर दिया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को मणिपुर के बारे में मुंह खोलने में कई महीने लग गए। और जब वे बोले भी तब भी घुमाफिरा कर। मगर इस्राइल के साथ हमदर्दी जताने में उन्होंने जरा भी देरी नहीं की। इस मामले में कई स्तंभकार केवल हमास को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं और युद्ध की स्थितियां निर्मित करने के लिए उसे जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। लेकिन साथ ही यह स्वागतयोग्य है कि इंग्लैंड और अमरीका में इस्राइल के खिलाफ कई बड़े प्रदर्शन हुए हैं (हालांकि मीडिया ने उनकी बहुत कम चर्चा की) और कई यहूदियों ने पश्चिम एशिया में इस्राइल की नीतियों की आलोचना की है।
जहां तक भारत का सवाल है, पूर्व में इस्राइल के मामले में उसकी नीतियां इस मुद्दे पर महात्मा गांधी के विचारों पर आधारित रहीं हैं। गांधीजी ने 1938 में लिखा था, ‘फलस्तीन उसी तरह से अरब लोगों का है, जिस तरह इंग्लैंड, अंग्रेजों का और फ्रांस, फ्रांसीसियों का है।’ उन्होंने यह भी लिखा कि ईसाईयों के हाथों यहूदियों ने प्रताड़ना भोगी है। मगर इसका यह मतलब नहीं है उन्हें मुआवजा देने के लिए फिलिस्तीनियों से उनकी जमीन छीन ले जाए।
यहूदी यूरोप में व्याप्त यहूदी-विरोधवाद के शिकार रहे हैं। यहूदियों के प्रति इसाईयों के बैरभाव के कई कारणों में से एक यह है कि ऐसा माना जाता है कि ईसा मसीह को सूली पर चढ़ाये जाने के लिए यहूदी जिम्मेदार थे। आगे चलकर व्यापारिक होड़ के कारण यह बैर और बढ़ा। यहूदी-विरोधवाद का सबसे क्रूर और सबसे हिंसक पैरोकार था एडोल्फ हिटलर। जिसने लाखों यहूदियों को मौत के घाट उतार दिया। अकेले गैस चैम्बरों में 60 लाख यहूदी मारे गए। हिटलर द्वारा यहूदियों को हर तरह से प्रताड़ित किया गया। यूरोप में यहूदियों को कई तरह के भेदभाव का सामना करना पड़ता था। इसी के नतीजे में जोयनिज्म या यहूदीवाद का जन्म हुआ। थियोडोर हर्ट्सजल ने ‘द ज्यूइश स्टेट’ शीर्षक से एक पुस्तक लिखी और इस मुद्दे पर स्विट्जरलैंड के बाल शहर में कुछ यहूदियों की बैठक हुई। ओल्ड टेस्टामेंट के हवाले से उन्होंने घोषणा की कि फलस्तीन की भूमि यहूदियों की है। उनका नारा था, ‘भूमिविहीन मानवों (यहूदियों) के लिए मानव-विहीन भूमि (फलस्तीन)।’ जाहिर है कि यह नारा उस भूमि पर 1,000 साल से रह रहे फिलिस्तीनियों के साथ बेरहमी करने का आ’ान था। और ये फलस्तीनी केवल मुसलमान नहीं थे। उनमें से 86 फीसदी मुसलमान, 10 फीसदी ईसाई और 4 फीसदी यहूदी थे। बहरहाल एक ‘ज्यूइश नेशनल फण्ड’ स्थापित किया गया और दुनिया भर से यहूदी फलस्तीन आकर वहां जमीन खरीदने लगे।
शुरुआत में अधिकांश यहूदी भी यहूदीवाद के खिलाफ थे। जो यहूदी फलस्तीन में बसे, उनसे कहा गया कि वे अपनी जमीन न तो किसी अरब को किराये पर दें और न किसी अरब को बेचें। उनका इरादा साफ था, धीरे-धीरे फलस्तीन पर कब्जा जमाते जाओ। यहूदियों की संख्या बढ़ती गयी। फिर एक अंतर्राष्ट्रीय समझौते के अंतर्गत फलस्तीन का शासन इंग्लैंड के हाथ में आ गया और वहां की आतंरिक समस्याएं बढ़ने लगीं। सन 1917 में इंग्लैंड ने बेलफोर घोषणापत्र जारी कर ‘फलस्तीन में यहूदी लोगों के लिए गृहराष्ट्र की स्थापना’ का समर्थन किया।
इस तरह फलस्तीन की समस्या की जड़ में ब्रिटिश उपनिवेशवाद है। महान यहूदी लेखक आर्थर केस्लेर ने बेलफोर घोषणापत्र के बारे में लिखा, ‘इससे विचित्र दस्तावेज दुनिया ने पहले कभी नहीं देखा था।’ अमेरिकी-इस्राइली इतिहासवेत्ता मार्टिन क्रेमर के अनुसार, ‘यह दस्तावेज संकीर्ण और तरह-तरह के प्रतिबंधों और रोकों पर आधारित राजनैतिक यहूदीवाद की ओर पहला कदम था।’ अरब लोगों ने 1936 के बाद से इस घुसपैठ का प्रतिरोध करना शुरू किया परन्तु उसे ब्रिटेन ने कुचल दिया। हिटलर द्वारा यहूदियों की प्रताड़ना के चलते द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद, यहूदी और बड़ी संख्या में यहां बसने लगे। यह दिलचस्प है कि यूरोप के देशों और अमेरिका ने यहूदियों को उनके देश में बसने के लिए कभी प्रोत्साहित नहीं किया। कुछ वक्त बाद, फलस्तीन को दो हिस्सों में बांट दिया गयाझ्रफलस्तीन और इस्राइल और यह तय हुआ कि येरुशलम और बेथलेहम को अंतर्राष्ट्रीय नियंत्रण में रखा जाएगा। जमीन का बंटवारा अरब लोगों के हितों के खिलाफ था। लगभग 30 प्रतिशत यहूदियों को जो सात प्रतिशत जमीन पर रह रहे थे को 55 प्रतिशत जमीन दे दी गयी। फिलिस्तीनियों को केवल 45 प्रतिशत जमीन दी गयी और उन्होंने इस निर्णय को अल-नकबा (तबाही) की संज्ञा दी।
इस्राइल को अमेरिका और ब्रिटेन का पूरा समर्थन मिला। युद्धों के जरिये वह धीरे-धीरे अपने कब्जे की जमीन का विस्तार करता गया और आज स्थिति यह है कि वह मूल फलस्तीन की 80 प्रतिशत से भी ज्यादा जमीन पर काबिज है। फलस्तीनी अपनी ही जमीन पर शरणार्थी बन गए हैं और आज 15 लाख फलस्तीनी सुविधा-विहीन कैम्पों में रहने पर मजबूर हैं। शुरूआती विस्थापनों में से एक में 14 लाख फिलिस्तीनियों को अपने घरबार छोड़ने पड़े थे। इस्राइल लगातार फलस्तीन की भूमि पर कब्जा बढाता जा रहा है और इस बारे में संयुक्त राष्ट्रसंघ के कई प्रस्तावों को इस्राइल नजरअंदाज करता आ रहा है। अमेरिका इस्राइल की यहूदीवादी नीतियों का खुलकर समर्थन करता आ रहा है। और इसके बदले इस्राइल पश्चिम एशिया में कच्चे तेल के संसाधनों पर कब्जा जमाने में अमेरिका की मदद करता रहा है।
दुनिया में शायद ही कोई समुदाय इतना प्रताड़ित हो जितना कि फलस्तीनी हैं। वे उनकी ही भूमि पर कुचले जा रहा है, उन्हें उनकी ही जमीन से बेदखल किया जा रहा है। फलस्तीनी ब्रिटिश उपनिवेशवाद और अमेरिकी साम्राज्यवाद के शिकार हैं। पिछले कुछ दशकों में संयुक्त राष्ट्रसंघ को बहुत कमजोर बना दिया गया है। ऐसे में इन प्रताड़ित लोगों को कौन न्याय देगा? यह दुखद है कि हिटलर ने यहूदियों के साथ जो किया था, वही यहूदी फस्तीनियों के साथ कर रहे हैं। यह अन्याय यदि और गंभीर होता जा रहा है तो इसका कारण है पश्चिमी देशों का इस्राइल को अंध-समर्थन। पश्चिम समस्या के मूल में नहीं जाना चाहता। वह नहीं स्वीकार करना चाहता कि समस्या के मूल में है यहूदी विस्तारवाद और फिलिस्तीनियों का दमन। आवश्यकता इस बात की है कि पश्चिम एशिया के संकट के सुलझाव के लिए शांति और न्याय पर आधारित आन्दोलन चलाया जाए। वर्तमान स्थिति में एक मात्र अच्छी बात यह है कि इस्राइल की मनमानी के खिलाफ प्रदर्शनों में बड़ी संख्या में यहूदी भी हिस्सा ले रहे हैं।