गीता गुरु-शिष्य संवाद है, जिस में अर्जुन शिष्य हैं और भगवान श्री कृष्ण सदगुरु हैं। जब भी उपदेश दिया जाएगा, उसके लिए माध्यम की आवश्यकता होगी। सद्गुरु वही माध्यम हैं। अर्जुन को उपदेश करते हुए दसवें अध्याय में भगवान ने कहा कि सूर्य में तेज मैं हूं, चन्द्रमा में शीतलता मैं हूं, सप्तर्षि मैं हूं आदि आदि।
अर्जुन ने कहा-भगवन! जो कुछ भी आप कहते हैं, सत्य है, किंतु आपकी विभूतियों को प्रत्यक्ष में कैसे देखा जाना संभव है? भगवान ने कहा, अर्जुन! ऐसा कुछ भी नहीं जो मैं तुझे न दे सहूं । लो, मेरे इस स्वरूप को देखो। जगत में सर्वत्र व्याप्त मेरे स्वरूप को देखो। आदित्यों, वसुओं, रुद्रो तथा अश्विनीकुमारों को देखो।
अर्जुन आंखें फाड़कर देखता ही रह गया, उसे कुछ भी दिखाई नहीं पड़ा। सहसा भगवान रुक गये, बोले, अर्जुन! तुम मुझे इन आंखों से नहीं देख सकते, अत: मैं तुम्हें वह दृष्टि देता हूं जिससे तुम मुझे देख सको। जहां दृष्टि का संचार हुआ, अर्जुन कांपने लगा। उसे संपूर्ण सृष्टि भगवान के अंतराल में दिखाई पड़ी।
जब युद्ध महाभारत का दृश्य आया तो वह और भी घबरा गया। उसने कहा, सूतपुत्र कर्ण, जयद्रथ, भीष्म, द्रोण, दुर्योधन इत्यादि योद्धा दिव्यास्त्रों की वर्षा करते हुए बड़े वेग से आपके मुख में प्रविष्ट हो रहे हैं। अमित प्रभाववाले आप कौन हैं? भगवान ने बताया, मैं ही बढ़ा हुआ काल हूं। तुम युद्ध नहीं करोगे तब भी ये जीवित नहीं बचेंगे।
मेरे द्वारा ये पहले ही मारे जा चुके हैं, तू निमित्त मात्र हो जा युद्ध कर और यश प्राप्त कर। यह मृत्यु लोककाल के नियंत्रण में है। हमें निमित मात्र होकर कर्म करते जाना है, क्योंकि हर कर्म का प्रतिफल पहले से निर्धारित है। फिर कर्म फल के बारे में सोच कर चिंतित क्यों होना? अच्छे कर्म, अच्छे फल के साथ और बुरे कर्म, बुरे फलों के साथ पूर्व निर्धारित है।
प्रस्तुति: राजेंद्र कुमार शर्मा