शम्सुर्रहमान फारूकी साहब इस उपन्यास के जरिये यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि किस्सागोई क्या है, कैसे की जाती है और बिना कंटेंट के किस्सागोई का कोई अर्थ नहीं है। इस उपन्यास को पढ़ते हुए यह अहसास भी होता है कि वह कई चांद थे सरे आसमां की गंगा जमुनी संस्कृति को ही यहां भी खोज रहे हैं। महज डेढ़ सौ से भी कम पृष्ठों में तीन अलग-अलग वक्तों का अगर को इतने दिलचस्प अंदाज में शक्ल दे सकता है तो वह फारूकी साहब ही हैं। वह इसे प्रकाशित नहीं देख पाए लेकिन यकीन है कि वह जहां कहीं भी होंगे वहां से मौजूदा समय को देख पा रहे होंगे।
मशहूर शायर और आलोचक शम्सुर्रहमान फारूकी को किस्सागोई का उस्ताद माना जाता है। उनकी किस्सागोई में महज किस्से ही नहीं होते, बल्कि वह अपने शिल्प में बड़े मसलों पर बात करते हैं। उनके बहुचर्चित उपन्यास ‘कई चांद थे सरे आसमां’ में उन्होंने गंगा जमुनी संस्कृति के लगभग 200 साल के इतिहास को खंगाला है। इतना ही नहीं, यह उपन्यास उस दौर को राजनीतिक नजरिये से भी देखता है। दरअसल यह उपन्यास भुला दी गई या भुलाई जा रही, उसी संस्कृति की खोज करता है। उनका हालिया उपन्यास ‘कब्जे जमां’ (राजकमल प्रकाशन, अनुवाद डॉ. रिजवानुल हक) बेशक गंगा जमुनी संस्कृति का आईना नहीं है, लेकिन यह छोटा सा उपन्यास तीन अलग-अलग वक्तों को देखता है। यह देखता है कि इन तीनों वक्तों में सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक मिजाज कैसे थे। फारूकी साहब अपने इस उपन्यास को छपे हुए नहीं देख पाए। लेकिन जो रचनाकार समय की सरहदों से परे रहता हो, समय जिसकी कलम में किसी भी समय को जीवित कर देने की ताकत रखता हो, जो अपनी कलम के सहारे किसी भी दौर में आ-जा सकता हो, उसके लिए मृत्यु को कोई विशेष अर्थ नहीं होना चाहिए। आने वाला समय और उससे मौजूदा समय और आने वाला समय इस उपन्यास को विरासत की तरह संजोएगा।
कब्जे जमां शब्द का अर्थ है अलग-अलग समयों को पकड़ना। इसे और बेहतर ढंग से इस तरह समझ सकते हैं, मान लीजिए अल्लाह ताला ने अपने किसी बन्दे के लिए तवील जमाने को मुख़्तसर किया है, लेकिन वह जमाना उसके लिए मुख़्तसर नहीं है। इस उपन्यास का नायक एक सिपाही है। यह सिपाही अपने जीते जी इतिहास के दो अहम वक्तों को जीता है। हिंदी साहित्य में इस तरह के प्रयोग लगभग न के बराबर हुए हैं। अगर किसी ने इतिहास में जाने की कोशिश भी की है तो महज एक दो किरदारों को ही रिक्रएट किया है। इस तरह का क्रिएशन किसी चमत्कार की तरह उपन्यास में आता है। वह पाठक पर ना तो कोई प्रभाव छोड़ता है और ना ही उपन्यास को समृद्ध करता है। लेकिन फारूकी साहब बड़ी सहजता से एक समय से दूसरे समय में शिफ्ट होते हैं। केवल उनका किरदार ही दूसरे समय में शिफ्ट नहीं होता बल्कि समाज, राजनीति, जबान, संस्कृति सब कुछ पिछले दौर में शिफ्ट कर जाता है। दिलचस्प यह भी है कि एक समय से दूसरे समय में पहुंचते समय पाठक को किसी तरह का कोई झटका भी नहीं लगता। समय के उस ओर जाने की यह सहजता फारूकी साहब की खुसूसियतों में शुमार है।
उपन्यास की शुरुआत 21वीं सदी से होती है। जयपुर के किसी गांव में रहने वाला एक सिपाही अपनी बेटी की शादी के लिए रुपयों का इंतजाम करने घर से निकलता है। रास्ते में उसे डाकू लूट लेते हैं। जयपुर पहुंचने के बाद उसे पता चलता है कि एक दानी तवायफ इस मामले में उसकी मदद कर सकती है। सिपाही उससे तीन सौ रुपये का कर्ज़ा लेता है। सिपाही अपनी बेटी की शादी कर देता है। कुछ समय बाद जब वह कर्ज वापस लौटाने जाता है तो उसे पता चलता है कि तवायफ मर चुकी है। वह तवायफ की कब्र पर पहुंचता है। वहां वह देखता है कि कब्र फटी हुई है। उसमें एक दरवाजा कहीं जाता हुई दिखाई देता है। यह दरवाजा उन्हें तीन सौ साल के बाद की दुनिया में ले जाता है। कब्र से बाहर आकर वह सोचता है कि वह तो कब्र में लगभग तीन घंटे घूमा होगा, इन तीन घंटों में तीन सौ साल कैसे बीत गए। लेकिन यहां फारूकी साहब समय को पुनर्परिभाषित करते हैं। इस नई परिभाषा के अनुसार एक घंटा सौ साल के बराबर है। लिहाजा जयपुर के गांव से चला सिपाही तुगलक खानदान के शासनकाल में पहुंच जाता है। यह कालखंड 1504-1517 तक फैला हुआ है। फारूकी साहब सिकंदर लोदी के काल को यहां चित्रित करते हैं। उस समय का समाज, उस समय की जबान, रहन सहन और संस्कृति को पाठक देख और महसूस कर सकते हैं। यह वह समय था जब जबान में बेहद बारीकियां थीं। सोलहवीं सदी के गद्य में वाक्य विन्यास भी बहुत अलग हुआ करता था। मिसाल के तौर पर बोला जाता था-मुझे बुरा तो बहुत लागा, या बाप ने मेरी शादी बरस अट्ठारह के सिन में कर दी थी। अनुवादक रिजवानुल हक ने इस काल खंड के वाक्य विन्यास के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की है। पाठक इस समय के गद्य का लुत्फ यहां ले सकते हैं।
इसके बाद यह उपन्यास अठारहवीं सदी के मध्यकाल में पहुंचता है। मुगल वंश में इस वक्त अहदम शाह बादशाह हैं। कहा जाता है उस समय उर्दू जबान बेहतरीन थी। फारूकी साहब ने न केवल उस समय बोली जाने वाली उर्दू बल्कि उस वक्त की शाइरी और शायरों को भी बखूबी चित्रित किया है। यह वह समय था जब मुगल तहजीब अपने शबाब पर थी। फारूकी साहब ने इस वक्त का पूरा खाका पाठकों के सामने खींच दिया है। दरअसल उन्होंने ऐतिहासिक परंपराओं, रवायतों को पूरी शिद्दत से दिखाया है। उस काल के शायरों में हशमत, ताबां और मीर साहब की दुनिया पाठकों को जीवंत दिखाई पड़ेगी। साथ ही इनकी शायरी के जरिये फारूकी साहब उस समय के अदब को भी चित्रित सरते हैं। वास्तव में यह उपन्यास 21वींस 16वीं और 18वीं सदी के अलग-अलग सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक मिजाज और उसके साथ अपने वक्तों की बोली बानी पर बेहतरीन उपन्यास है। एक बार फिर शम्सुर्रहमान फारूकी साहब इस उपन्यास के जरिये यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि किस्सागोई क्या है, कैसे की जाती है और बिना कंटेंट के किस्सागोई का कोई अर्थ नहीं है। इस उपन्यास को पढ़ते हुए यह अहसास भी होता है कि वह कई चांद थे सरे आसमां की गंगा जमुनी संस्कृति को ही यहां भी खोज रहे हैं। महज डेढ़ सौ से भी कम पृष्ठों में तीन अलग-अलग वक्तों का अगर को इतने दिलचस्प अंदाज में शक्ल दे सकता है तो वह फारूकी साहब ही हैं। वह इसे प्रकाशित नहीं देख पाए लेकिन यकीन है कि वह जहां कहीं भी होंगे वहां से मौजूदा समय को देख पा रहे होंगे।