Tuesday, May 20, 2025
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सियासी सफर की बहुत यादें समेटे हैं किठौर

  • मथुरा से हस्तिनापुर जाते हुए किठौर ठहरते थे भगवान श्रीकृष्ण
  • सर्वप्रथम 1946 में एमएलसी बने थे यहां के मौलाना बशीर अहमद भट्टा

जनवाणी संवाददाता |

किठौर: सियासी ऐतबार से किठौर का अपना अलग मुकाम है। महाभारतकाल से ही किठौर राजाओं का आश्रय स्थल रहा है। किवंदति है कि मथुरा से हस्तिनापुर जाते समय भगवान श्रीकृष्ण यहां अवश्य ठहरते थे। वर्तमान का डीएस पब्लिक स्कूल उनका आश्रय स्थल बताया जाता है। तब इस बस्ती को कृष्ण-ठौर कहा गया। कालांतर में कृष्ण-ठौर का रूप देशज शब्द किठौर ने ले लिया। ब्रिटिश शासनकाल में यहां के धुरंधरों ने सियासत के जो कीर्तिमान गढ़े वह किसी और को मयस्सर नहीं हुए।

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किठौर से सर्वप्रथम मौलाना बशीर अहमद भट्टा 1946 में नामित विधान परिषद सदस्य रहे। तत्पश्चात 1952 में निर्वाचित होकर पुन: विधान परिषद पहुंचे। किठौर सीट पर 1952 में ही प्रथम विधानसभा चुनाव इसी कस्बे के मूल निवासी डा. रामजीलाल सहायक जीतकर विधायक बने। बताते हैं कि प्राथमिक शिक्षा के बाद रामजीलाल सहायक मेरठ जाकर रहने लगे थे। पीएचडी डिग्री धारक यह दलित नेता करीब तीन दशक तक प्रदेश की राजनीति में सक्रिय रहा।

भारतीय राष्टÑीय कांग्रेस से अपने सियासी सफर का आगाज करने वाले इस सियासी धुरंधर ने विभिन्न दलों से किठौर, हस्तिनापुर, सिवालखास पर छह बार जीत दर्ज कर विधानसभा में लगातार दस्तक दी। डा. रामजीलाल सहायक प्रदेश में चार बार मंत्री भी रहे। 1957 से 1967 तक लगातार दो बार यहां कु. श्रद्धा देवी कांगे्रस से विधायक रहीं। 1967 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के मंजूर अहमद ने श्रद्धा देवी को 569 वोटों से हराया था। बाद में वह कांगे्रस में चले गए और पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा व राजीव गांधी के करीबी रहे। पूर्व मंत्री अब्दुल हलीम व मंजूर अहमद परिवार के बेहद करीबी रहे वृद्ध आफताब चैहान बताते हैं कि विधानसभा भवन लखनऊ की दार-ए-शफा का निर्माण भी मौलाना बशीर अहमद भट्टा ने किठौर से र्इंट मंगवाकर कराया था।

ऐसे होते थे चुनाव

आफताब चौहान का कहना है कि राजनीति का कलेवर ही बदल गया है। पहले राजनेता नैतिकता से परिपूर्ण होते थे। प्रतिद्वंद्वी भी एक-दूसरे का सम्मान करते थे। आरोप-प्रत्यारोप का मतलब नहीं था। राजनीतिक दल मतदान से महीनों पूर्व घोषणा पत्र जारी कर देते थे। फिर गाड़ियों, रिक्शों पर लाउडस्पीकर लगाकर चुनाव प्रचार किया जाता था। खुलेआम जनसभाएं होती थीं। पार्टियों के झंडे, बैनर, पम्पलेट बंटते थे। निर्वाचन आयोग कोई बंदिश नहीं लगाता था।

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