औषधीय वनस्पतियां पर्यावरण बचाने और बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान देती हैं। जैविक पौधों की खेती से या जंगल क्षेत्र में जड़ी-बूटी जैसे फॉरेस्ट प्रोडक्ट्स को बढ़ावा देने से जैव विविधता का रक्षण होता है। जंगलों और सुनसान इलाकों को आर्थिक रूप से सक्षम बनाने के लिए कई प्रोजेक्ट्स में औषधीय पौधों को शामिल किया जा रहा है। इससे जंगलों की कटाई और अन्य विनाशकारी गतिविधियां कम हो रही हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) का कहना है कि विकासशील देशों में करीब 80 फीसदी लोग अपनी स्वास्थ्य जरूरतों को पूरा करने के लिए जड़ी-बूटी आधारित दवाओं पर निर्भर हैं। सदियों पुरानी चिकित्सा पद्घतियों जैसे आयुर्वेद, सिद्ध और यूनानी में जड़ी-बूटियों से इलाज किया जाता है। होम्योपैथी दवाओं और करीब 40 फीसदी आधुनिक दवाओं में भी पेड़-पौधों से निकाले गए तत्वों का इस्तेमाल होता है। यही वजह है कि दुनिया में औषधीय और सुगंधित पौधों और उनके उत्पादों की वैश्विक मांग सालाना 15 फीसदी की दर से बढ़ रही है। विश्लेषकों का मानना है कि 2050 तक जड़ी-बूटियों से बने उत्पादों का बाजार 5 लाख करोड़ डॉलर तक पहुंच सकता है। आधुनिक दवाओं के दुष्प्रभावों के कारण इन उत्पादों की मांग बढ़ रही है। भारत के पास जड़ी-बूटियों का भंडार है और उसे दुनिया का हर्बेरियम कहा जाता है, लेकिन फिर भी इन उत्पादों की अंतरराष्ट्रीय व्यापार में भागीदारी बहुत कम है।
भारत दुनिया के उन 12 देशों में शामिल है, जहां अपार जैव विविधता है। दुनिया में अपार जैव विविधता वाले 18 क्षेत्र हैं, जिनमें से दो भारत में हैं। भारत में 960 तरह की जड़ी-बूटियों का व्यापार होता है, लेकिन उनमें से केवल 35-40 की ही व्यावसायिक खेती होती है। बाकी जड़ी-बूटियां जंगलों से एकत्र की जाती हैं, जिसके कारण वन्य भंडार तेजी से कम हो रहा है। दुख की बात यह है कि इन जड़ी-बूटियों का दोहन बेतरतीब ढंग से किया जा रहा है, जिससे उनके दोबारा उगने की संभावना कम है। औषधि वनस्पतियां पर्यावरण अनुकूल होती हैं। पर्यावरण बचाने और बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान देती हैं। उच्च प्रति के जैविक पौधों की खेती से या जंगल क्षेत्र में जड़ी-बूटी जैसे दोयम फॉरेस्ट प्रोडक्ट्स को बढ़ावा देने से बायो डायवर्सिटी (जैव विविधता) का रक्षण और देखभाल भी होती है।
जंगलों और सुनसान इलाकों को आर्थिक रूप से सक्षम बनाने के लिए कई प्रोजेक्ट्स में औषधीय पौधों को शामिल किया जा रहा है। उस कारण जंगलों की कटाई और अन्य विनाशकारी गतिविधियां कम हो रही हैं। फाइटरोमेडिएशन (वातावरण में फैले विषैले पदार्थों को शुद्ध करने और पर्यावरण व्यवस्थाओं में फिर से जान डालने के लिए वनस्पतियों का उपयोग) में भी कुछ औषधि वनस्पतियों का उपयोग किया जाता है। पर्यावरण संवर्धन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली नीम जैसी कई औषधियां बंजर और कम उपजाऊ जमीन में पाई जाती हैं। वेटीवर ग्रास जैसी कुछ औषधियों से अरोमैटिक तेलों का उत्पादन किया जाता है।
विकासशील देशों की 80 प्रतिशत जनसंख्या परंपरागत औषधियों से जुड़ी हुई है। बहुत से औषधीय पौधों से प्राप्त दवाइयां स्वास्थ्य की सुरक्षा के काम में आती है। वर्तमान अंग्रेजी दवाइयों में 25 प्रतिशत भाग औषधीय पौधों तथा शेष कृत्रिम पदार्थ का होता है। औषधीय पौधों की जो जातियां उपयोग में लाई जाती हैं, वे पूरी तरह प्राकृतिक है। औषधीय पौधों की वैज्ञानिक तरीके से खेती करने की आवश्यकता है, क्योंकि ये विभिन्न कीट व्याधियों से सुरक्षित हैं तथा इन पर प्रतिकूल मौसम का प्रभाव भी नहीं पड़ता है। औषधीय पौधों को विशेष खाद की आवश्यकता नहीं होती है और ये विभिन्न प्रकार की भूमि में अनुकूलता बनाए रखते हैंं। अत: किसान इनका उत्पादन कर अपनी आर्थिक स्थिति के साथ-साथ देश की आर्थिक नींव मजबूत कर सकते हैं।
राष्ट्रीय कृषि विज्ञान अकादमी (एनएएएस) के एक नीति दस्तावेज ने कुछ साल पहले जंगलों में पाए जाने वाले औषधीय और सुगंधित पौधों की लूट के खिलाफ आगाह किया था। एनएएएस का मानना है कि इन जड़ी-बूटियों को जंगलों से एकत्र करने के बजाय उगाया जाना चाहिए। इनमें से कई प्रजातियों को बहुत कम लागत पर एकल, मिश्रित या दूसरी कृषि फसलों और बागवानी फसलों के साथ अंतर फसल के रूप में उगाया जा सकता है। इससे किसानों की अतिरिक्त आमदनी होगी। एक अनुमान के अनुसार, करीब पांच लाख किसान मेंथा या मेंथॉल के लिए पुदीने की खेती कर रहे हैं। इसका सालाना कारोबार 3,500 करोड़ रुपए है। भारत दुनिया में पुदीने का सबसे बड़ा उत्पादक और निर्यातक है। साथ ही भारत आमतौर पर इस्तेमाल होने वाले एक अन्य हर्बल उत्पाद इसबगोल का भी सबसे बड़ा उत्पादक है। इसबगोल के वैश्विक बाजार में भारत की हिस्सेदारी 80 फीसदी है। इसके अलावा सनाय और पोस्तदाना की भी भारत में खेती की
जाती है।
एनएएएस ने औषधीय और सुगंधित पौधों तथा उनके उत्पादों को कच्चे माल के रूप में निर्यात करने के बजाय उनका अंतिम उत्पाद बनाने पर जोर दिया है। इसके लिए उत्पादकों और उपभोक्ताओं के बीच आपसी फायदे के लिए संपर्क व्यवस्था बनाने की जरूरत है। कुछ साल पहले एरोमा एंड फाइटो फार्मास्यूटिकल मिशन की स्थापना की गई थी, जिसका मकसद बंजर, सीमांत और बेकार पड़ी जमीन पर अहम सुगंधित और औषधीय पौधों की खेती तथा उनके उत्पादों के प्रसंस्करण को बढ़ावा देना है। उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, ओडिशा, राजस्थान, गुजरात, कर्नाटक, छत्तीसगढ़, तमिलनाडु और पूर्वोत्तर में जड़ी-बूटी की खेती की अच्छी संभावना है। इनमें से अधिकांश राज्य लेवेंडर, मेहंदी, नींबू घास, अश्वगंधा, सतावर और दूसरी कई जड़ी-बूटियों की खेती कर सकते हैं। औषधीय और सुगंधित प्रजाति के पौधों पर शोध और विकास में लगे कई वैज्ञानिक संस्थान भी इस पहल में भागीदारी कर सकते हैं। अगर किसान तरीके और तकनीक से औषधीय खेती पर ध्यान देंगे तो उनकी तकदीर बदल सकती है।