धर्म को राजनीति में घुसा देने पर धर्म, धर्म नहीं रह जाता, वह भी राजनीति हो जाता है। भारत में धर्म को राजनीति में घुसा कर जनता को जनता से लड़ाने की साजिशें 1857 से ही जारी हैं। ऐसी परिस्थिति में बहुसंख्यक धर्म के गरीबों को बहुत ज्यादा खतरा है। राजनीति में धर्म को घुसा देना बहुसंख्यक धर्म के दलालों के हित में ही होता है। परंतु जो अल्पसंख्यक हैं, उनके लिए धर्म को राजनीति में घुसाना खतरे से खाली नहीं है। इसे अधिकांश अल्पसंख्यक बुद्धिजीवी समझता है। वह जानता है कि धर्म को राजनीति में घुसाने से अल्पसंख्यकों पर खतरा बढ़ जाता है। आज भारत का अल्पसंख्यक ज्यादा खतरा महसूस कर रहा है, खास तौर पर मुसलमान ज्यादा खतरा महसूस कर रहा है, उस पर हमले बढ़ रहे हैं, वह डरा हुआ है। इस डर से निकलने के लिए कुछ मुसलमान कांग्रेस की शरण में जाना चाहते हैं।
मगर फिर सोचते हैं कि इसी कांग्रेस की छत्रछाया में या यूं कहें कि इसी के शासनकाल में सांप्रदायिक संगठन फले-फूले। कुछ मुसलमान सपा-बसपा जैसी जातिवादी पार्टियों की शरण में जाना चाहते हैं, मगर वे देख रहे हैं कि इन्हीं जातिवादी नेताओं और उनकी पार्टियों के सहयोग, समर्थन या फूट डालने की नीति के कारण ही भाजपा सत्ता में है।
कुछ मुसलमान अपनी सियासत अपनी कयादत के नाम पर अपनी बिरादरी के पूंजीपतियों को मजबूत करने में लगे हैं। मगर इस तरह की मुस्लिम सांप्रदायिकता छिपे तौर पर हिंदू सांप्रदायिकता को जायज ठहराने के साथ-साथ मजबूत भी बनाती है। जाहिर सी बात है, अगर आप 15-20 प्रतिशत प्रतिशत मुसलमानों को धर्म के नाम पर इकट्ठा होने को जायज मानते हैं तो 80 प्रतिशत हिंदू आबादी को धर्म के नाम पर संगठित होने को नाजायज कैसे कह पाएंगे?
कुछ मुसलमान लोग कम्यूनिस्ट पार्टी का साथ देना चाहते हैं, मगर कुछ लोग कहते हैं कि कम्यूनिस्ट लोग ईश्वर को नहीं मानते, वे तुम्हारा धर्म चौपट कर देंगे। सच्चाई तो सामने है-ईश्वर को मानने वाले लोग ही गाय, गोबर, गंगा, मंदिर, मस्जिद, चर्च के नाम पर जनता को जनता से लड़ा रहे हैं।
कम्युनिस्ट किसी भी धर्म को मानने वालों का विरोध नहीं करते, पूजा पद्धति को लेकर किसी को एक गाली भी नहीं दे सकते। वे तो सिर्फ शोषण का विरोध करते हैं। वे चाहते हैं कि कोई इंसान किसी इंसान का खून हरगिज न पी सके। कोई ताकतवर देश किसी कमजोर देश का शोषण न कर सके।
धार्मिक बहुसंख्यक लोग किसी धार्मिक अल्पसंख्यक को सता न सकें। कमजोर लोगों को सताने वाले जालिम कितना भी ताकतवर हों, कम्युनिस्ट हमेशा उन जालिमों के खिलाफ और सताए जा रहे लोगों के साथ खड़ा होता है। धर्म अमीरों की शान और गरीबों की सिसकियां हैं। अमीर आदमी गरीबों का लूटकर बेशुमार धन इकट्ठा कर लेता है, मगर वो ये नहीं बताया कि उसने गरीब जनता से ही लूटकर इकट्ठा किया है। वह बड़ी शान से कहता है कि ये सब मुझे ईश्वर ने दिया है।
वहीं गरीब आदमी प्रार्थना करते समय रोते हुए ईश्वर से अपने बच्चों का पेट पर्दा चलाने के लिए दुआ मांगता है। धर्म निरुत्साह का उत्साह है- यह धर्म का तीसरा रूप है। जब मनुष्य हताश और निराश होकर थक हार कर बैठ जाता है तो ऐसी परिस्थिति में ईश्वर पर भरोसा करके संघर्ष में फिर उतर जाता है।
उसे विश्वास होता है कि ईश्वर उसकी मदद करेगा, यही विश्वास उसकी हिम्मत को बढ़ा देता है। धर्म जनता के लिए अफीम का गोला है। गाय, गोबर, गंगा, गीता, मन्दिर मस्जिद के नाम पर जो नफरत फैलायी जा रही है, इसे अफीम नहीं कहेंगे तो और क्या कहेंगे? हमारे देश भारत में अनु. 370, तीन तलाक, अयोध्या मामला, तबलीगी जमात, ज्ञानवापी, घर वापसी आदि के नाम पर अल्पसंख्यकों के खिलाफ क्या हो रहा है, यह किसी से छिपा नहीं है।
मगर फर्जी वीडियो बनाकर यह दिखाया जा रहा है कि चीन के कम्युनिस्ट शासन में मुसलमानों को सताया जा रहा है। अफवाहें फैलाकर चीन के कम्युनिस्ट शासन को इसलिए बदनाम किया जा रहा है, क्योंकि अमेरिका और आरएसएस दोनों को यही डर है कि भारत या अन्य देशों के मुसलमान लोग कहीं कम्युनिस्टों के साथ न एकजुट हो जाएं।
थोड़े अंतरों के साथ दलित एवं पिछड़े वर्गों के मामले में भी आरएसएस का यही नजरिया है। इसलिए आरएसएस की चाल में फंसने से पहले दलितों, पिछड़ों, मुसलमानों में जो शोषित-पीड़ित लोग हैं, वे खुद से सवाल करें कि आखिर कम्युनिस्ट विचारधारा में ऐसा क्या है जो उनके खिलाफ है? यही सवाल हिंदुत्व का रा-मैटेरियल बन चुके गरीब सवर्णों से भी है।
जहां तक मुसलमानों का सवाल है, वे जब तक धर्म को बेहद निजी मामला समझकर उसे राजनीति से अलग नहीं करेंगे, तब तक वे सांप्रदायिक ताकतों की ‘पिच’ पर खेलते रहेंगे। जातिवाद भी सांप्रदायिक ताकतों की ही बनायी हुई ‘पिच’ है। इसलिए सांप्रदायिक ताकतों से लड़ने के लिए सपा, बसपा, जैसी जातिवादी ताकतों के साथ भी खड़े होना आत्मघाती कदम होगा।
ये जातिवादी ताकतें जनता में फूट डालकर या भाजपा आरएसएस का समर्थन करके सांप्रदायिक ताकतों को ही मजबूत बनाते हैं। अत: सांप्रदायिक ताकतों के साथ-साथ जातिवादी ताकतों से भी लड़ना होगा। दोनों से लड़े बगैर फरेब और साजिशों से नहीं बचा सकता।
राजनीति में धर्म की मिलावट नहीं करनी चाहिए। दलितों पिछड़ों, गरीब और सवर्णों की समस्याएं और दुख एक हैं। मजदूरों, किसानों, बुनकरों, कारीगरों, छात्रों, नौजवानों को हालात को समझते हुए सांप्रदायिक ताकतों से दूर रहना चाहिए।
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