यह उन दिनों की कथा है, जब गोपाल भांड बंगाल के राजदरबार के एक प्रमुख सदस्य थे। अपने विनोदी स्वभाव से न केवल वह सबका मनोरंजन करते थे बल्कि कई गुत्थियां भी हंसते-हंसते सुलझा देते थे। बंगाल के राजा का उन्हें स्नेह प्राप्त था। राजा उन्हें हर तरह से प्रोत्साहन भी दिया करते थे। एक बार राजसभा में एक पंडित पधारे। वह कहीं दूर से आए थे। वे भारत की अधिकांश प्रचलित भाषाएं, यहां तक कि संस्कृत, अरबी, फारसी भी धाराप्रवाह बोल सकते थे। उनका खूब स्वागत- सत्कार किया गया। आते ही उन्होंने अपने भाषा ज्ञान की डींग हांकी। किसी ने पूछा कि उनकी मातृभाषा क्या है तो उन्होंने चुनौती देने के अंदाज में कहा कि वे इसका पता लगाकर दिखाएं। दरबार में उपस्थित पंडित और दूसरे लोग सन्न रह गए। उन्होंने गोपाल भांड की ओर देखा। गोपाल बोले, मैं तो भाषाओं का जानकार नहीं, पर मैं यह पता लगा सकता हूं कि उस पंडित की मातृभाषा क्या हैं? पर शर्त यह है कि मुझे अपने तरीके से पता लगाने की अनुमति दी जाए।’ दरबारियों के कहने पर राजा ने गोपाल भांड को इसकी अनुमति दे दी। अगले दिन सब लोग सीढ़ियों से उतर रहे थे। वह पंडित जी भी थे। अचानक गोपाल ने पंडित जी को जोरों का धक्का दिया। धक्का लगते ही वह अपनी मातृभाषा में गाली देते हुए नीचे आ पहुंचे। वहां मौजूद सारे लोगों को उनकी मातृभाषा का पता लग गया। लोगों ने गोपाल भांड को शाबाशी दी। गोपाल ने कहा, देखिए,तोते को आप राम-राम और राधेश्याम सिखाया करते हैं, वह भी हमेशा राम नाम सुनाया करता है। किंतु जब बिल्ली आकर उसे दबोचना चाहती है, उसके मुंह से टें-टें के सिवाय और कुछ नहीं निकलता। आराम के समय सब भाषाएं चल जाती हैं, पर संकट में मातृभाषा ही काम देती है।