Monday, January 6, 2025
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विभाजन का दर्द दिखाता सिनेमा

Samvad 52


DR MAMTAसंचार माध्यमों में सिनेमा अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है। टेलीविजन से कई दशकों पूर्व ही सिनेमा ने भारतवर्ष में अपनी मजबूत पकड़ बना ली थी। जिस प्रकार हिंदी साहित्य के शुरुआती दौर में भी नाटकों के विषय धार्मिक पात्रों के आस-पास होती थी ठीक उसी तरह फिल्मों में भी कथानक धर्म, इतिहास और लोक गाथाओं के इर्द-गिर्द बुने जाते रहे। 1947 में मिली आजादी के बाद भारतीय सिनेमा ने देश के सामाजिक यथार्थ को गहराई से पकड़ा और जमीनी मुद्दों पर फिल्में बनाने लगा। पहले फिल्मी जगत में लोकप्रिय सिनेमा आया परंतु कुछ ही वर्षों में व्यावसायिक सिनेमा के रास्ते को फिल्मकारों ने अपनाना शुरू किया।
विभाजन का सामान्य अर्थ बंटवारा व विग्रह से है परंतु यह शब्द अपने नए अर्थों में हमारे सामने 1947 की आजादी के बाद भारत पाकिस्तान दो मुल्कों के रूप में आया। विभाजन शब्द पहले से ही प्रचलन में था, परंतु अब जब भी जेहन में यह शब्द आता है तो अपने साथ उस विभीषिका की कड़वी यादों को भी ले आता है, जिसकी परिणिती को लगभग 70 सालों के बाद भी दोनों मुल्कों के लोग सह रहे हैं। साहित्य के माध्यम से 21 वीं सदी में जन्म लेने वाला मनुष्य भी उस त्रासदी की आंच को आज भी महसूस कर रहा है। न केवल साहित्य ने बल्कि सिनेमा ने भी उसके इस संवेदनशील मन को उद्वेलित किया है। भीष्म साहनी का तमस उपन्यास हो या कृष्णा सोबती का ‘सिक्का बदल गया’, मंटों की रचनाएं तो तमाम उन एहसासों को कुरेदती हैं, जो मानव की मानवता पर प्रश्न चिह्न खड़े करती है। ‘टोबा टेक सिंह’ कहानी के माध्यम से मंटो पागल टेक सिंह की संवेदना के जरिए राष्ट्र निर्माण का मखोल भी उड़ाती है और वाजिब प्रश्न भी करती है कि एक ही पल में देश के प्रति प्रेम की भावना को सरहदों पर लकीरे खींच देने से कैसे मिटाया जा सकता है?

1974 में आई फिल्म ‘गर्म हवा’ का निर्देशन एमएस सथ्यू द्वारा किया गया। फिल्म में गरीबी, भूखमरी, रोजगार की समस्या, भष्टाचार जैसे समस्याओं के ताने-बाने में विभाजन की पीड़ा दिखाई गई है। फिल्म का परिवेश 1947 के बाद का समय है, जब देश में रह रहे मुस्लिम परिवार पाकिस्तान की ओर रुख कर रहे थे। बरसों से बसे यहां के परिवार अपनी जन्मभूमि व कर्मभूमि को छोड़कर नहीं जाना चाहते थे। सरहदें कायम करने से दिलों के रिश्ते आसानी से नहीं छूटते, यही फिल्म के मुख्य पात्र सलीम मिर्जा की व्यथा है। दीपा मेहता द्वारा निर्देशित ‘अर्थ 1947’ भारत-विभाजन पर आधारित बनी फिल्म है। हर कोई अपनी कौम को दूसरों की कौम से श्रेष्ठ बता रहा है। इस वाद-विवाद में वे अपना आपा खोने लगते हैं, परंतु किसी तरह उन्हें शांत करा जा सकता है परंतु विभाजन सुलह के सारे रास्ते खत्म कर देती है। देश के विभाजन के बाद बातचीत की प्रक्रिया भी खत्म होने लगती है अब दोस्त-दोस्त को शक भरी निगाहों से देखने लगता है। देश के विभाजन से शहरों में जगह-जगह सांप्रदायिक दंगे जैसी घटनाएं इन फिल्में को और भी भयावह बना देती है। फिल्म में एक पोलियोग्रस्त लड़की यह सब देखती है जिसमें मानवीय संबंध टूटकर बिखर जाते हैं। समाज अब प्रेम की जगह कौमी नफरत से भरा चुका है और साथ ही दिलों के रिश्ते भी टूटते नजर आते हैं।

21 वीं सदी की शुरुआत में आई ‘गदर एक प्रेम कथा’(2001) जिसने वर्षों बाद विभाजन को एक राजनीति आयाम देते हुए हमें प्रेम की आड़ में राष्ट्रीयता की व्याख्या गड़ी। फिल्म गदर के निर्देशक अनिल शर्मा रहे हैं। निर्देशक ने फिल्म में एक सिख का एक मुसलमान लड़की के लिए साथ पनपे साधारण प्रेम को परिस्थितियों के कारण रिश्तों के बंधन बांधा। अपने प्रेम के लिए फिल्म का नायक तारा सिंह अपनी कौम से लड़ जाता है। गदर फिल्म भारतीय दर्शकों को बाँधती है क्योंकि भारतीय दर्शक के मन में पाकिस्तान के लिए उतनी ही नफरत है जितनी नफरत पाकिस्तान के कट्टर लोग भारत से करते हैं, इस नफरत का कोई हल नहीं है। फिल्म में दिखाया गया है कि पाकिस्तान से आने वाली रेलगाड़ी में लोग लाशे भेजते हैं तो यही काम यहां के भारतीय भी करते हैं। भारतीय समाज भी उसी नफरत की मानसिकता से भरा पड़ा है।

‘पिंजर’ 2003 में आई फिल्म ‘पिंजर’ अमृता प्रीतम के उपन्यास पिंजक पर आधारित है जिसका निर्देशक डॉ. चंद्र प्रकाश द्विवेदी ने किया। फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है। फिल्म में उर्मिला मातोंडकर ने जहां पूरो के चरित्र को जीवंत किया वहीं मनोज वाजपेयी ने रशीद के किरदार को निभाकर अपनी कुशल अभिनय प्रतिभा का परिचय दिया। दो पाटों के बीच कमजोर व्यक्ति ही पिसता है और यही नियति विभाजन के समय भी रही जब सांप्रदायिक उन्माद ने स्त्रियों का सबसे अधिक नुकसान किया। स्त्री लूटी गई, बेची गई और अपने परिवार से बिछड़ गई। पूरो का सफर भी उसी दर्द की परिणीति बना जिसने दो सरहदों को ही अलग नहीं किया बल्कि पूरों के अतीत, वर्तमान और भविष्य को भी हिला कर रख दिया। पूरो जैसा पात्र हिंदी सिनेमा में मिलना बहुत ही मुश्किल है जिसने अपनी संवेदना से दर्शकों को रूलाया और अपनी दरियादिली से अपने लिए प्रेम भी पाया।

‘भाग मिल्खा भाग’ फिल्म का निर्देशन राकेश ओम प्रकाश मेहरा ने 2013 में किया है, फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है। इस फिल्म की कहानी का केंद्र खेल और उससे जुड़े बहुत ही चर्चित शख्सियत ‘मिल्खा सिंह’ के जीवन पर आधारित है। फिल्म मिल्खा सिंह के संघर्षों के साथ-साथ भारत-पाक विभाजन के दंश को भी उभारता है। आज के दौर में लगातार कई फिल्में आ रही हैं, जो विभाजन का परिवेश अपनी फिल्म के केंद्रीय विषय में रखते हैं। मीडिया से उम्मीद की जाती है कि वह अपनी सामाजिक भूमिका सही ढंग से निभाए। सिनेमा के माध्यम से वह कुछ हद तक प्रयास कर रहा है परंतु यह नाकाफी है। लेकिन हां, वह कलात्मक फिल्मों के जरिए समाज के यथार्थ को दिखाकर हमारे जहन में मानवीय पीड़ा व सौहार्द को बनाए रखना चाहता है जो मनुष्य के भविष्य के लिए आवश्यक है। विभाजन के समय बोये गए बीज आज कैसे मानव समाज को प्रभावित कर रहा है, ये फिल्में समय-समय पर बताती रहीं और साथ ही हमें यह इशारा करती हैं कि हम अपने इतिहास को भुला न दें ताकि हम सहिष्षुण बनें व जाति, धर्म के नाम पर उन्मादित होती भीड़ का हिस्सा न बन जाएं।


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