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अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर इस समय चीन आर्थिक, सैनिक एवं कूटनीतिक रूप से रूस को पीछे छोड़ कर अमेरिका के मुकाबले में आ खड़ा है तथा विश्व के छोटे, मध्यम देश उसकी सहायता लेने एवं बदले में उसे अन्य तरीकों से उपकृत करने के लिए बेताब हैं। दक्षिणी, पूर्वी और पश्चिमी एशिया में भी ऐसा ही हो रहा है, जिस पर स्वाभाविक रूप से भारत को चिंता होनी ही चाहिए। आखिर चीन कभी भी हमारा मित्र देश नहीं रहा और हमारी हजारों वर्गमील जमीन उसने हथियायी हुई है और अभी भी वह भारत के लिए परेशानी का सबब बना हुआ है। अगर गंभीरता से दृष्टिपात किया जाए तो यह बिल्कुल स्पष्ट है कि वर्तमान केंद्रीय सरकार के दोनों शासनकाल में चीन का भारत के संदर्भ में दु:स्साहस बहुत बढ़ा है।
चिकन नेक, डोकलाम के बाद न केवल उसने पूर्वी लद्दाख में भारतीय गश्त क्षेत्र में प्रवेश करके सैन्य निर्माण कर लिए हैं, अपितु मीडिया रिपोर्ट के अनुसार वो भारतीय अक्साई चिन में भी तेजी से सैन्य निर्माण करके अपनी स्थिति मजबूत कर रहा है। इसके साथ-साथ अब उसने अक्साई चिन और अरुणाचल को चीन के नक्शे में अधिकारिक रूप से दिखा दिया है।
यह विचित्र संयोग है कि जब जब चीनी राष्ट्रपति की भारतीय प्रधानमंत्री से मुलाकात होती है उसके ठीक बाद चीन सीमा संबंधी कोई नई शरारत कर बैठता है। इसका एक गलत अर्थ विश्व में यह भी जाता है कि चीन भारतीय नेतृत्व की तरफ से किसी भी विरोधात्मक प्रतिक्रिया नहीं होने के प्रति निश्चिन्त है। भारत के लिए ऐसी स्थिति परेशानी प्रदान करने वाली है। आखिर नेहरू के टाइम पर भी चीन के आक्रमण का सैन्य जवाब भारत ने सीमा पर दिया था।
उस समय तब की सरकार ने चीनी आक्रमण को देश से छुपाया नहीं था और स्वयं नेहरू ने सेना को चीन को निकाल भगा देने का आदेश दिया था। यह रिकॉर्ड में है। यह और बात है कि आजादी मिली ही थी और सेना तब तक बहुत मजबूत नहीं हो पायी थी। संसाधनों का बंटवारा हो गया था। पर हम लड़ कर हारे थे। तत्कालीन सरकार ने चीन से उस दौरान या बाद में कोई हारी हुई मानसिकता से बात नहीं की थी अपितु संसद से सर्वसम्मति से अपनी जमीन वापस लेने का प्रस्ताव पारित करवाया गया था।
उसके बाद तो हमने चीन को नाथूला की लड़ाई में शिकस्त दी थी। उनके 350 से भी ज्यादा सैनिक एक छोटे से युद्ध में ही हताहत हो गए थे और उसे पीछे हटने पर मजबूर होना पड़ा था। आज हम विश्व की चौथी सबसे मजबूत सैन्य शक्ति और पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हैं किंतु इस सब के बावजूद हमारी सरकार चीन का सशक्त प्रतिरोध करने में अशक्त दिखाई देती है।
चीन पिछले 9 साल से निरंकुश गुंडागर्दी कर रहा है। विदेश मंत्रालय और पीएमओ यहां अपनी योग्यता सिद्ध करने में असफल सिद्ध हुआ हैं। यहां इंदिरा गाँधी याद आती हैं जो चीन की नाक के नीचे से सिक्किम को निकाल लाई थीं। इस समय आवश्यकता है एक दृढ़ सैन्य और विदेश नीति की। हम तिब्बत को उसकी 2002 से पुर्व वाली स्थिति में दर्शाना प्रारंभ कर सकते हैं।
याद रहे 2002 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने चीन के साथ द्विपक्षीय वार्ता में तिब्बत को चीन का पूर्ण अंग स्वीकार कर लिया था जबकि उससे पहले नेहरू सरकार ने तिब्बत को केवल चीन का स्वायतशासी क्षेत्र माना था जिसमें केवल सैन्य और विदेशी मामले में चीन का नियंत्रण रखा गया था।
हम अन्य सशक्त देशों से बात करके ताईवान और दक्षिणी चीन सागर पर अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर एक कठोर रवैया अपना सकते हैं। हम तिब्बत और हांगकांग के यात्रियों के लिये स्टेपल्ड वीजा जारी कर सकते हैं जैसा कि चीन अरुणाचल प्रदेश और कश्मीर के यात्रियों के लिये करता है।
साथ ही रक्षा क्षेत्र में हमें भारी संख्या में पनडुब्बियों, परमाणु चलित पनडुब्बियों, युद्धपोतों, युद्धक विमानों तथा हल्के पहाड़ी टैंकों की अविलंब आवश्यकता है जिसकी तत्काल आपूर्ति केवल आयात से ही हो सकती है। स्वदेशी निर्माण अपनी धीमी गति से चलता है और उसे अपना काम करने दें। सैन्य आयात के लिए हमें आवश्यक बजट की समस्या रहती है जिसे हम कारपोरेट टैक्स बढ़ा कर, गैर उत्पादक लोकलुभावन खर्चों में कमी करके तथा बरामद काले धन का इस्तेमाल करके आसानी से दूर कर सकते हैं।
अभी तक की हमारी सभी सरकारों का मुख्य रूप से जोर भारतीय नागरिकों को पाकिस्तान की ओर से आ रहे खतरे के बारे में बताते रहने पर रहा है। सार्वजनिक रूप से कभी भी भारत सरकार चीन से खतरे पर बात नहीं करती है। वर्तमान सरकार तो बिल्कुल भी नहीं। चीन पर न तो संसद में बहस होती है और न बाहर के मंचों पर। यह गलत और नुक्सानदेह नीति है।
हमें चीन के साथ भारी व्यापार घाटे को कम करने के लिए वहां से आयात घटाने होंगे। हम हैवी इंफ्रास्ट्रक्चर सामान जैसे स्टील, सीमेंट, रबड़ का आयात वैकल्पिक देशों से कर सकते हैं। इलेक्ट्रोनिक तथा रसायनिक कच्चे माल की आपूर्ति आसानी से कोरिया, जापान, ताईवान, मलेशिया से हो सकती है। जरूरत है वर्तमान भारत सरकार को एक स्पष्ट और पारदर्शी चीन नीति अपनाने और दिखलाने की।
शतुर्मुर्ग की तरह रेत में सिर छुपा कर बैठ जाने और कुछ नहीं हुआ कुछ नहीं होगा का अलाप करने से बात नहीं बनेगी। इस हेतु प्रधानमंत्री जी को रक्षा सलाहकार समिति का पुनर्गठन करके उसे पुन: सक्रिय करना होगा और उसमें विदेश एवं सैन्य मामलों के विद्वान और निष्पक्ष विशेषज्ञों को रखना होगा। साथ ही विपक्ष को भी विश्वास में लेना होगा ताकि सदा से चली आ रही विदेशी एवं सैन्य मामलों में एकमतता वाली परंपरा कायम रह सके।
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