Saturday, July 27, 2024
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जन आंदोलनों की जरूरत

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Nazariya 22


bharat dograमौजूदा दौर में प्रतिकार की राजनीतिक आवाजों के साथ गैर-दलीय राजनीतिक जनांदोलनों को भी सक्रिय किया जाना चाहिए। ये जनांदोलन जल, जंगल, जमीन से लगाकर पर्यावरण, मानवाधिकार, कृषि, महिला, दलित, आदिवासी आदि तबकों/ मुद्दों को फिर से बीच बहस में ला सकते हैं। आज के विश्व में बहुत व्यापक, गहरी निष्ठा के व अहिंसक जन-आंदोलनों की इतनी जरूरत है जितनी कि मानव-इतिहास में पहले कभी नहीं थी। यह इस कारण है कि हम इतिहास के सबसे नाजुक दौर से गुजर रहे हैं, जब मानव-निर्मित कारणों से मनुष्य व अन्य जीवन-रूपों के लिए अस्तित्व मात्र का खतरा उत्पन्न हो रहा है व धरती की जीवनदायिनी क्षमता ही स्थाई रूप से क्षतिग्रस्त होने के खतरे में है। इस स्थिति में यह बहुत जरूरी है कि न्याय, समता, पर्यावरण की रक्षा, सभी जीवों की रक्षा, अमन शांति जैसे शाश्वत जीवन मूल्यों में जिन लोगों की गहरी निष्ठा है, वे आपसी भेदभाव को दूर कर धरती व इस पर रहने वाले जीवों की रक्षा के लिए व्यापक एकता स्थापित करें व संगठित होकर एक दूसरे का सहारा बन जाएं। जो आंदोलन या संगठन आर्थिक समता व सामाजिक न्याय के लिए प्रयासरत हैं वे पर्यावरण रक्षा के आंदोलन से अलग नहीं हैं। दोनों आंदोलनों का मूल उद्देश्य दुखदर्द कम करना है। इसी तरह शान्ति आंदोलन भी नजदीकी तौर पर दोनों आन्दोलनों से जुड़ा है। विध्वंसक युद्ध होते रहे तो बाकी सब सार्थक उद्देश्य पीछे छूट जाएंगे। शान्ति आंदोलन को भी पता है कि विषमता बढ़ती गई व प्राकृतिक संसाधन लुटते रहे तो युद्ध की संभावना बढ़ेगी। अत: इसमें कोई संदेह ही नहीं कि यह सब उद्देश्य आपस में नजदीकी तौर पर जुड़े हैं। ऐसे में सभी जन-आंदोलनों की व्यापक एकता बनाकर आगे बढ़ना चाहिए। इस तरह के व्यापक जन-आंदोलन के लिए अहिंसक व पारदर्शी होना बहुत जरूरी है। न्याय प्राप्ति में विशेषकर दीर्घकालीन हितों को ध्यान में रखा जाए तो हिंसक व गुप्त आंदोलनों की अपेक्षा अहिंसक व पारदर्शी आंदोलन कहीं अधिक सार्थक व उपयोगी होंगे। पहली तरह के आंदोलन उत्साह पैदा कर अन्याय आधारित व्यवस्था को हटाने के अल्पकालीन उद्देश्य में सफल हो जाएं तो भी सबकी दीर्घकालीन भलाई को आगे ले जाने वाला नया समाज बनाने में उन्हें कठिनाई होती है। अत: जन-आंदोलनों को अहिंसा, लोकतंत्र व पारदर्शिता की राह पर सहमति बनानी चाहिए। इस जन-आंदोलन से अधिक लोग जुड़ सकें, इसके लिए जरूरी है कि वर्त्तमान विकास के मॉडल की सीमाओं और विसंगतियों के बारे में व्यापक स्तर पर जन-संवाद किया जाए।

करोड़ों वर्षों से लाखों तरह के जीवन-रूपों को पनपा रही धरती की जीवनदायिनी क्षमता यदि औद्योगिक क्रान्ति की दो-तीन शताब्दियों में ही बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गई तो इस पर आधारित विकास के मॉडल को कैसे उचित माना जाए? इन सवालों पर आम लोगों में ईमानदारी से चर्चा हो तो स्पष्ट हो जाएगा कि मौजूदा विकास मॉडल तरह-तरह के खतरों की ओर ही ले जा रहा है जिसके दुष्परिणाम हमसे अधिक हमारे बच्चों को भुगतने पड़ेंगे। यह विकास का ऐसा मॉडल है जो मनुष्य की प्रगति को मुख्य रूप से अधिकतम भौतिक सुख-सुविधाओं को जुटाने से जोड़ता है। यह सोच मूलत: अनुचित है और भूमंडलीकरण के दौर में तो और भी विकृत हो गई है।

वैध-अवैध ढंग से कमाए धन से दुनिया के लगभग 10 प्रतिशत लोगों ने अपने लिए ऐसी भोग-विलास की जीवन-शैली स्थापित कर ली है जिसे सब तक ले जाने के लिए कई धरतियों के प्राकृतिक संसाधनों को लूटने की जरूरत होगी। इस जीवन-शैली ने दुनिया की सोच व तकनीकों को बहुत प्रभावित किया है व इस कारण धरती के अधिकांश लोगों के लिए जो प्राथमिकताएं चाहिए उनकी उपेक्षा होती रही है।

भोगवादी जीवन-शैली का जो आकर्षण फैला उसने जनसाधारण के जीवन में बहुत भटकाव भी उत्पन्न किया है। भविष्य की प्रगति की राह भौतिक सुख-सुविधाओं को अधिकतम करने की नहीं, अपितु सबसे बड़ी जरूरत तो समाज के सब संबंधों को ठीक करने की है। ऐसे चार संबंधों पर विशेष तौर पर ध्यान देना जरूरी है – मनुष्य के मनुष्य से संबंध, मनुष्य के प्रकृति से संबंध, मनुष्य के अन्य जीवों से संबंध व वर्त्तमान पीढ़ी के भावी पीढ़ी से संबंध। ये संबंध स्वार्थ व आधिपत्य के स्थान पर रक्षा और सहयोग पर आधारित होने चाहिए। इन सभी संबंधों में रक्षा व सहयोग की भावना को मजबूत करने में ही मानव समाज की वास्तविक प्रगति है व इसे मजबूत करने में जन-आंदोलनों की बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती है।

महाविनाशक हथियारों व जलवायु बदलाव जैसी सबसे विकट समस्याओं के समाधान में एक बड़ी समस्या यह आ रही है कि विभिन्न देश अपने-अपने हितों पर अड़े हैं। सबसे धनी देशों व शक्तिशाली देशों का दृष्टिकोण बहुत ही संकीर्ण व स्वार्थी है। अत: यदि मौजूदा अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था में ये सबसे विकट समस्याएं निकट भविष्य में हल न हो सकीं तो इनके समय पर संतोषजनक समाधान के लिए हमें नई अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्थाओं के बारे में भी सोचना पड़ेगा। इस तरह के प्रयासों के लिए संकीर्ण राष्ट्रवाद से ऊपर उठकर, जो पूरी दुनिया की भलाई का माहौल बनाना जरूरी है उसमें भी जन-आंदोलनों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होगी।


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