किसी भी देश एवं वहां की कानून व्यवस्था की नींव, उस देश की पुलिस होती है। स्वस्थ लोकतंत्र के लिए स्वस्थ पुलिस का होना बहुत आवश्यक होता है। सच तो यह है कि कानून व्यवस्था की अच्छी स्थिति में ही देश का आर्थिक विकास हो पाता है। लेकिन हमारा दुर्भाग्य है कि हम अभी तक ब्रिटिश-कालीन पुलिस व्यवस्था में देश की मांग के अनुरूप सुधार करने में विफल रहे हैं। भारतीय समाज के परिवर्तित स्वरूप के अनुरुप पुलिस अथवा कानून का ढांचा न बन पाने से आपराधिक ग्राफ दिनोदिन बढ़ता ही जा रहा है। हाल ही में आई राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की ताजा रिपोर्ट पर गौर करें तो पता चलता है कि देश में अपराधों और अपराधियों की संख्या में कमी की बजाय लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है। रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2020 से 2021 अर्थात एक वर्ष के बीच अपहरण के मामलों में बीस फीसदी की वृद्धि के साथ महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गों के खिलाफ अपराध क्रमश: पंद्रह फीसदी, सोलह फीसदी और पांच फीसदी बढ़े हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, 2021 में हर दिन औसतन 82 लोगों की हत्या हुई है। अपहरण की बात करें, तो 2021 में देश में हर घंटे 11 से ज्यादा लोगों का अपहरण हुआ। ये आंकड़े स्पष्ट रूप से बता रहे हैं कि अब समय की मांग है कि हमारे पास एक बेहतर प्रशिक्षित पुलिस व्यवस्था होनी चाहिए। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की नई रिपोर्ट कहती है कि पिछले वर्ष की तुलना में 2021 में देश भर में महिलाओं के खिलाफ अपराधों में 15.8 फीसदी की वृद्धि हुई है। एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक 2020 में महिला अपराधों के 3,71,503 मामले दर्ज हुए थे, जबकि 2021 में यह आंकड़ा बढ़कर 4,28,278 हो गया। ज्ञातव्य है कि बढ़ते अपराध के मामलों में शीर्ष राज्यों में ओडिशा, हरियाणा, तेलंगाना और राजस्थान शामिल हैं। राजस्थान में असम की तरह ही मामलों की संख्या में मामूली कमी देखी गई, जबकि तीन अन्य राज्यों ओडिशा, हरियाणा और तेलंगाना में ऐसे मामलों में वृद्धि देखी गई। केंद्र शासित प्रदेशों में दिल्ली शीर्ष पर रही। यहां महिलाओं के खिलाफ अपराध की दर 2021 में सबसे अधिक 147.6 फीसदी थी। बता दें कि दर्ज हुए मामलों में भी दिल्ली शीर्ष पर रहा। एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार, दिल्ली में महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले सभी 19 महानगरों की श्रेणी में कुल अपराधों का 32.20 प्रतिशत हैं। इसी तरह अगर बच्चों पर होने वाले अपराधों पर गौर किया जाए तो पता चलता है कि 2021 के दौरान बच्चों के खिलाफ अपराध के कुल 1,49,404 मामले दर्ज किए गए, जो 2020 (1,28,531 मामले) की तुलना में 16.2 प्रतिशत की वृद्धि हुआ है। प्रतिशत के संदर्भ में, 2020 के दौरान ह्यबच्चों के खिलाफ अपराधह्ण के तहत प्रमुख अपराध अपहरण और बाल दुष्कर्म सहित यौन अपराध थे। गौरतलब है कि वर्ष 2020 में 28.9 की तुलना में वर्ष 2021 में प्रति लाख बच्चों की आबादी पर दर्ज अपराध दर बढ़कर 33.6 हो गया। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर कैसा हमारा पुलिस तंत्र है और कैसी हमारी न्याय व्यवस्था है? गौरतलब है कि आज अदालतों में लंबित मामलों की संख्या करोड़ों में जा पहुंची है और हमारा पुलिस तंत्र आज भी अपना ब्रिटिश रुप लिए हुए है। यही दोनों प्रमुख वजह हैं जो अपराधियों को बिना डर अपराध करने को प्रोत्साहित करतें है।
भारत को एक ऐसे पुलिस व्यवस्था की आवश्यकता है, जो उत्तरदायी और जवाबदेह हो। स्मार्ट यानी ऐसी पुलिस व्यवस्था जो कठोर लेकिन संवेदनशील, आधुनिक, सतर्क और जिम्मेदार, विश्वसनीय, तकनीकी क्षमता युक्त एवं प्रशिक्षित हो। लेकिन अभी तक वह सपना हकीकत का रुप नहीं ले सका है जोकि यह बात राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट ही बताती है। स्मार्ट पुलिस के स्वप्न को साकार करने के लिए पुलिस नेतृत्व को पूरी शक्ति देनी होगी, जिससे वह अपने तंत्र में सुधार लागू कर सके। यह नेतृत्व ऐसा हो जो इन सुधारों के कार्यान्वयन की जिम्मेदारी भी ले सके। इसका एक उदाहरण कमिश्नरी प्रणाली में दिखाई देता है। पुलिस को राजनीति और नौकरशाही के चंगुल से भी बाहर निकालना होगा। रोज-रोज के स्थानांतरण एवं पुलिस कार्यवाही में राजनैतिक दखल ने पुलिस-व्यवस्था को बहुत तोड़ा है और यही वजह है कि बार- बार स्थानांतरण से पुलिस अधिकारियों की कार्यक्षमता प्रभावित होती है।
भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एनवी रमना का कहना है कि न्यायपालिका काम के बोझ तले दबी हुई है क्योंकि निचली अदालतों में चार करोड़ से भी ज्यादा मामले लंबित हैं। तमाम लंबित मामले तथा पुलिस कर्मियों की संख्या में कमी बढ़ते अपराध के लिए जिम्मेदार है। बता दें कि एक लाख नागरिकों के लिए 222 पुलिसकर्मियों के न्यूनतम मानदंड की तुलना में देश में करीब 144 पुलिसकर्मी ही मौजूद हैं। यही कारण है कि करीब 90 प्रतिशत पुलिसकर्मियों को हर रोज 12 घंटे से भी अधिक समय तक काम करना पड़ता है और उनमें से तीन चौथाई कर्मी साप्ताहिक अवकाश भी नहीं ले पाते हैं। इससे उन पर दबाव भी होता है लेकिन फिर भी वे अपने कर्तव्य पर डटे रहते हैं। अत: उचित होगा कि पुलिस कर्मियों की जनसंख्या के आधार पर संख्या निर्धारित हो तभी अपराध नियंत्रण बाबत कुछ प्रयास संभव होगा। साथ में लंबित मामलों के तत्काल निपटान पर भी विचार मंथन किया जाना चाहिए।
तकनीक को उन्नत करने जैसे गश्त करने वाले पुलिसकर्मियों पर बॉडी कैमरे की अनिवार्यता और पुलिस थाने की कार्यवाही की वीडियो रिकार्डिंग आदि से बात नहीं बन सकती। इस हेतु मानसिकता में पर्याप्त बदलाव लाना होगा।