देहरादून जोली ग्रांट हवाई अड्डे से ऋषिकेश जाते हुए आदर्श ग्राम रानीपोखरी में घुसने से ठीक पहले एक बड़ा सा पुल मिलता है जो एक नदी पर है। नदी झ्र पानी की नहीं सफेद पत्थरों की नदी। वैसे इस नदी का नाम है-जाखन। सूखी जाखन नदी को देख कर कोई यह नहीं कह सकता कि इस पर बना पुल सन 2022 में नदी के तेज भाव में टूट गया था। टिहरी जिले में कद्दूखाल चम्बा के मध्य स्थित पहाड़ियों बनाली से निकलती हुई देहरादून के दक्षिण पूर्व में सौंग व सुसवा से मिलती हुई गंगा में समा जाती यह नदी बरसात के दिनों को छोड़कर अक्सर सूखी ही नजर आती है। उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में शिवालिक पहाड़ियों की तरफ बेहट हो कर जाने वाले रास्ते में कई नदियां मिलती हैं-शाकंभरी नदी, हिंडन, नागदेव, सहंसरा, गंजीराव-अधिकांश नवंबर में ही सूख गई। भारत के बड़े हिस्से की पानी की जरूरतों को पूर्ति करने वाले उत्तराखंड के हिमालय और उससे सटे शिवालिक से निकलने वाली हजारों ऐसी जल धाराएं हैं, जो हिमनदों से नहीं निकलतीं और इन्हीं की मद्धम और पतली धाराओं से इन पर्वतमालाओं की गोद में बसे खेत-जंगल-बस्ती जल पाते हैं।
कुछ बदलते मौसम की मार तो बहुत कुछ विकास के नाम पर इंसानी हस्तक्षेपों ने इन गैर-हिमानी नदियों के अस्तित्व पर संकट खड़ा कर दिया। सैकड़ों जल धाराएं सूख गई और हजारों इस अंत की तरफ आतुर हैं। समझना होगा कि गंगा-यमुना जैसी बड़ी जल धाराएं पहाड़ के लोगों के लिए उपयोगी हैं नहीं, वे तो तेज प्रवाह से मैदानी इलाकों को आशीर्वाद देती हैं। इन नदियों पर बन रहे बांध भी पहाड़ से अधिक मैदान के लिए लाभकारी हैं। पहाड़ जिन जल धाराओं पर जिंदा है, उनसे समाज और सरकार दोनों ही बेपरवाह हैं। गैर-हिमानी नदियां मुख्य रूप से वर्षा जल और भूमिगत जल से पोषित होती हैं। ये नदियां उत्तराखंड के मैदानी और पहाड़ी क्षेत्रों में सिंचाई, पेयजल और जलविद्युत उत्पादन के लिए महत्वपूर्ण स्रोत हैं। इन नदियों का पारिस्थितिक तंत्र भी बेहद संवेदनशील होता है और कई दुर्लभ प्रजातियों का घर है।
नेचुरल रिसोर्स डाटा मैनेजमेंट सिस्टम (एनआरडीएमएसा) की एक रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश की तमाम बड़ी नदियों की 332 सहायक नदियां सूखकर बरसाती नदियों में तब्दील को चुकी हैं। कोसी नदी को जोड़ने वाले 36 गाड़-गधेरे सूख गए हैं। मेलनगाड़, छोटी कोसी, जथरागाड़, रनगाड़, देवगाड़, साईनाला, बेनगाड़, जैजलगाड़, सिमगाड़ आदि जो कोसी की सहायक नदियां थीं वे अपनी अंतिम सांसें गिन रही हैं।
उत्तराखंड के लगभग 68 फीसदी भूभाग को गैर हिमानी नदियों और हजारों सरिताओं (धारे, गाड़-गधेरों) से पानी मिलता है। कोसी, गगास, गोमती, रामगंगा के उद्गम धर पानीधर से निकलने वाली 11 सहायक नदियां धीरे-धीरे सिकुड़ रही हैं। इसी तरह पश्चिमी राम गंगा नदी में 134 छोटे गाड़ गधेरे व नदियां सूख चुकी हैं। कोसी की 36, सुयाल की 30, रामगंगा की 134, सरयू नदी की 24, जौंगण की 30, पनार की 32, गगास की 70 सहायक नदियां व गाड़-गधेरे सूख चुके हैं। पांच दशक पहले तक कोसी (कोशिकी) नदी में 22 सहायक नदियां मिलती थीं, तब इसकी कुल लंबाई करीब 225 किलोमीटर थी। लेकिन आज यह 41 किलोमीटर ही रह गई है। सन 1992 में कोसी नदी का जल प्रवाह गर्मी के मई जून महीनों में 790 लीटर होता था, जो अब 196 लीटर से भी काम हो गया। सनद रहे इस नदी पर 343 से अधिक गांव निर्भर हैं। अल्मोड़ा नगर की पूरी जल आपूर्ति इसी से है। इसके अलावा कौसानी, चनौदा, ताकुला, सोमेश्वर, कोसी, हवालबाग, गेवापानी, दौलाघाट, गोविंदपुर, कठपुड़िया, द्वारसौ, शीतलाखेत जैसे पर्यटक स्थल भी इस पर निर्भर रहे हैं। द्वारहाट के दुर्गम गाव बड़ेत में गैरहिमानी नदी गगास व खिरो के घटते जलस्तर से खेती पर संकट आ गया।
‘अर्थ फ्यूचर’ पत्रिका के अप्रैल-24 अंक में प्रकाशित शोध चेतावनी देता है कि पिछले ढाई दशकों के दौरान वार्षिक वर्षा और वनस्पति आवरण में वृद्धि के बावजूद, प्रमुख गैर-हिमानी नदियों की सहायक धाराओं का बारहमासी तंत्र का लगभग 82 प्रतिशत गैर-बारहमासी प्रकृति में बदल गया है। इनकी प्रमुख नदी का प्रवाह इस अवधि में 16 गुना काम हो गया। इसलिए, गैर-हिमालाई प्रमुख नदियां घट रही हैं और अपने अस्तित्व के लिए लगातार संघर्ष कर रही हैं। जंगल की आग व लगातार भूस्खलन से गैर हिमानी नदियों की सेहत पर विपरीत प्रभाव पड़ा है।
जलवायु परिवर्तन: बढ़ते तापमान, अनियमित वर्षा और ग्लेशियरों का पिघलना गैर-हिमानी नदियों के जलस्तर को प्रभावित कर रहा है। अत्यधिक मानवीय गतिविधियां: बढ़ती जनसंख्या, कृषि, उद्योग और पर्यटन के लिए पानी की अत्यधिक मांग नदियों के जलस्तर को कम कर रहे हैं। वनों के अंधाधुंध कटाव से भूमिगत जलस्तर कम हो रहा है और मिट्टी का कटाव बढ़ रहा है, जिससे नदियों में गाद की मात्रा बढ़ रही है। अवैध खनन से नदियों का बहाव बदल रहा है और उनके तलछट को नुकसान पहुंच रहा है। बड़े पैमाने पर बांधों का निर्माण नदियों के प्राकृतिक प्रवाह को बाधित कर रहा है।
यह अब आम लोग समझ रहे हैं कि विकास के नाम पर पहाड़ों पर विस्फोट से जमीन की भीतर टेढ़े -मेढ़े रास्तों से आने वाली जल धाराओं के ममार्ग अवरुद्ध हो रहे हैं। वहीं पेड़ों की कटाई ने भी ऐसी जल-धाराओं को नुकसान पहुंचाया है। बढ़ती शहरी आबादी, बदतर मल-जल निकासी तंत्र और अत्यधिक बहु जल शोषण ने भी गैर हिमानी नदियों तक पाने लाने वाली सरिताओं को नुकसान पहुंचाया है। पहाड़ों पर मनुष्य का जंगली जानवरों से बढ़ रही मुठभेड़ के मूल में भी ऐसी नदी-धाराओं का लुप्त होना है। इससे जानवरों के भोजन और प्यास दोनों के स्रोत पर कुप्रभाव हुआ और और बदवहास जानवर बस्ती की तरफ आने लगा।
छोटी जल धाराओं के लुप्त होने से उत्तराखंड में खेती के लिए सिंचाई का खतरा भी उपजा है। समझना होगा कि गैर हिमानी नदियों का सूखना केवल प्राकृतिक समस्या नहीं है; यह मानवजनित गतिविधियों का परिणाम भी है। इस संकट को हल करने के लिए सरकार, समाज और व्यक्तियों को मिलकर प्रयास करना होगा। नदियों को बचाना हमारे अस्तित्व और भविष्य के लिए आवश्यक है। कुछ साल पहले ऐसे छोटी जल धाराओं को पुनर्जीवित करने के लिए एक अलग से प्राधिकरण के गठन की बात भी चली थी, लेकिन वह कागजों से आगे नहीं बढ़ी। सबसे युवा पहाड़ हिमालय और बुजुर्ग पहाड़ शिवालिक की गोद से निकलने वाली गैर हिमानी नदियां विचित्र तरीके से भूगर्भीय परिवर्तनों से जुझ रही हैं। भूकंप को ले कर बेहद संवेदनशील क्षेत्र में जल धाराओं का लुप्त होना किसी बड़ी आपदा का भी संकेत होता है।