Saturday, January 18, 2025
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उपद्रव धूमिल कर रहे देश की छवि

SAMVAD


PANKAJ CHATURVEDIकहते हैं कि भारत पर्व-त्योहार-उत्सव का देश है। हर दिन किसी न किसी धर्म-पंथ-विश्वास या लोक के दर्जनों पर्व होते हैं। धर्म-आस्था कभी शक्ति प्रदर्शन या अन्य मान्यता से बेहतर बताने का माध्यम रहा नहीं। इस बार रामनवमी पर देश के विभिन्न हिस्सों में जिस तरह बवाल हुए, वह दुनिया में भारत की उत्सवधर्मी छवि पर विपरीत असर डालते हैं। दुर्भाग्य है कि सोशल मीडिया टुकड़ों में वीडिया क्लिप से भरा हुआ है और हर पक्ष केवल दूसरे का दोष बता कर सांप्रदायिकता को गहरा कर रहा है। ये तो तय है कि जहां भी दंगे हुए, वहां कुछ राजनेता थे और हर जगह प्रषासन निकम्मा साबित हुआ। न खुफिया पुलिस ने काम किया, न ही सुरक्षा में तैनात बलों ने तत्परता दिखाई।

कहना गलत नहीं होगा कि बहुत सी जगह पुलिस बल खुद सांप्रदायिक हो गए हैं। वे कई जगह दंगाइयों को सहयोग करते दिखे। यह फिलहाल बिहार-झारखंड या बंगाल कें दंगों में ही नहीं, बल्कि तीन साल पहले के दिल्ली दंगों में भी दिखा था।

जरा गौर करें रामनवमी की घटनाएं महज 24 घंटों के भीतर की हैं। ये घटनाएं अधिकांश उन इलाकों में हुर्इं, जहां सांप्रदायिक तनाव की घटनाएं या तो बहुत कम होती हैं या फिर कई दशकों से वहां ऐसा हुआ नहीं था।

एक वर्ग जुलुस निकालता है, हथियार लहराते हुए तेज आवाज में संगीत और मस्जिद आते ही उसके सामने अतिरिक्त शौर प्रदर्शन। फिर कहीं से पत्थर चलना और फिर आगजनी। न पुलिस और न ही समाज ने जुलुस निकालने के रास्तों पर संवेदनशीलता दिखाई, न ही गाने या संगीत या नारों पर प्रशासन ने समय रहते पाबंदी लगाई।

न ही ऐसे अवसरों से पहले जुलुस मार्ग के घरों पर पत्थर आदि की चेकिंग का विचार आया। तनिक ध्यान से देखें तो हाथ में कतार या तलवार लहरा रहे या पत्थर उछल रहे लोग निम्न आर्थिक स्थिति से हैं, बहुत से नशे में भी हैं और उनके लिए धर्म एक अधिनायकवादी व्यवस्था है, जिसमें अन्य किसी को कुचल देना है।

आज जब आटे-दाल के भाव लोगों का दिमाग घुमाए हुए हैं, बेराजगारों की कतार बढ़ती जा रही है, देश का किसान असमय बरसात के कारण अपनी 30 से 35 फीसदी फसल खराब होने से चिंतित है, ऐसे में धर्म-जाति, भोजन, वस्त्र, आस्था, पूजा पद्धति के नाम पर इंसान का इंसान से भिड़ जाना व उसका खून कर देना, उस आईएसआईएस की हरकतों से कम नहीं है जो दुनिया में आतंक का राज चाहता है।

इस तथ्य से कोई इंकार नहीं कर सकता कि भारत में हिंदू और मुसलमान गत 1200 वर्षों से साथ-साथ रह रहे हैं। डेढ़ सदी से अधिक समय तक तो पूरे देश पर मुगल यानी मुसलमान शासक रहे।

इस बात को समझना जरूरी है कि 1857 की क्रांति के बाद अंग्रेजों को यह पता चल गया था कि इस मुल्क में हिंदू और मुसलमानों के आपसी ताल्लुक बहुत गहरे हैं और इन दोनों के साथ रहते उनका सत्ता में बना रहना मुश्किल है। एक साजिश के तहत 1857 के विद्रोह के बाद मुसलमानों को सताया गया।

अकेले दिल्ली में ही 27 हजार मुसलमानों का कत्लेआम हुआ। अंग्रेज हुक्मरान ने दिखाया कि हिंदू उनके करीब हैं। लेकिन जब 1870 के बद हिंदुओं ने विद्रोह के स्वर मुखर किए तो अंग्रेज मुसलमानों को गले लगाने लगे। यही फूट डालो और राज करो की नीति इतिहास लेखन, अफवाह फैलाने में काम आती रही।

यह तथ्य भी गौरतलब है कि 1200 साल की सहयात्रा में दंगों का अतीत तो पुराना है नहीं। कहा जाता है कि अहमदाबाद में सन 1714, 1715, 1716 और 1750 में हिंदू मुसलमानों के बीच झगड़े हुए थे। उसके बाद 1923-26 के बीच कुछ जगहों पर मामूली तनाव हुए। 1931 में कानपुर का दंगा भयानक था, जिसमें गणेश शंकर विद्यार्थी की जान चली गई थी।

दंगें क्यों होते हैं? इस विषय पर प्रो. विपिन चंद्रा, असगर अली इंजीनियर से ले कर सरकार द्वारा बैठाए गए 100 से ज्यादा जांच आयोगों की रिपोर्ट तक साक्षी है कि झगड़े न तो हिंदुत्व के थे न ही सुन्नत के। कहीं जमीनों पर कब्जे की गाथा है तो कहीं वोट बैंक तो कहीं नाजायज संबंध तो कहीं गैरकानूनी धंधे।

1931 में कानपुर में हुए दंगों के बाद कांग्रेस ने छह सदस्यों का एक जांच दल गठित किया था। 1933 में जब इस जांच दल की रिपोर्ट सार्वजनिक की जानी थी तो तत्कालीन ब्रितानी सरकार ने उस पर पाबंदी लगा दी थी। उस रिपोर्ट में बताया गया था कि सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक विविधताओं के बावजूद सदियों से ये दोनों समाज दुर्लभ सांस्कृतिक संयोग प्रस्तुत करते आए हैं।

उस रिपोर्ट में दोनों संप्रदायों के बीच तनाव को जड़ से समाप्त करने के उपायों को तीन वर्गों में विभाजित किया गया था-धार्मिक-शैक्षिक, राजनीतिक-आर्थिक और सामाजिक। उस समय तो अंग्रेजी सरकार ने अपनी कुर्सी हिलती देख इस रिपोर्ट पर पाबंदी लगाई थी। आज कतिपय राजनेता अपनी सियासती दांवपेंच को साधने के लिए उस प्रासंगिक रिपोर्ट को भुला चुके हैं।

मुसलमान न तो नौकरियों में है न ही औद्योगिक घरानों में, हां हस्तकला में उनका दबदबा जरूर है। लेकिन विडंबना है कि यह हुनरमंद अधिकांश जगह मजदूर ही हैं। यदि देश में दंगों को देखें तो पाएंगे कि प्रत्येक फसाद मुसलमानों के मुंह का निवाला छीनने वाला रहा है। भागलपुर में बुनकर, भिवंडी में पावरलूम, जबलपुर में बीडी, मुरादाबाद में पीतल, अलीगढ़ में ताले, मेरठ में हथकरघा।

जहां कहीं दंगे हुए मजदूरों के घर जले, कुटीर उद्योग चौपट हुए। एस गोपाल की पुस्तक ‘द एनोटोमी आॅफ द कन्फ्रंटेशन’ में अमिया बागछी का लेखन इस कटु सत्य को उजागर करता है कि सांप्रदायिक दंगे मुसलमानों की एक बड़ी तादाद को उन मामूली धंधों से भी उजाड़ रहे हैं जो उनके जीवनयापन का एकमात्रा सहारा है।

गुजरात में दंगों के दौरान मुसलमानों की दुकानों को आग लगाना, उनका आर्थिक बहिष्कार आदि गवाह है कि दंगे मुसलमानों की आर्थिक गिरावट का सबसे कारण है। यह जान लें कि उत्तर प्रदेश में मुसलमानों के पास सबसे ज्यादा व सबसे उपजाऊ जमीन और दुधारू मवेशी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ही हैं।

एक बारगी लगता हो कि दंगे महज किसी कौम या फिरके को नुकसान पहुंचाते हैं, असल में इससे नुकसान पूरे देश के विकास, विश्वास और व्यवसाय को होता है। आज जरूरत इस बात की है कि दंगों के असली कारण, साजिश को सामने लाया जाए तथा मैदान में लड़ने वालों की जगह उन लोगों को कानून का कड़ा पाठ पढ़ाया जाए जो घर में बैठ कर अपने निजी स्वार्थ के चलते लोगों को भड़काते हैं व देश के विकास को पटरी से नीचे लुढ़काते हैं।

क्या धर्म को सड़क पर शक्ति प्रदर्शन का माध्यम बनाने से रोकने के लिए सभी मत-पंथ को विचार नहीं करना चाहिए? वैसे भी इस तरह के जुलुस-जलसे, सड़क जाम, आम लोगों के जीवन में व्यवधान और तनाव के कारक बनते जा रहे हैं और दुर्भाग्य है कि अब हर धर्म के लोग साल में दो चार बार ऐसे जुलुस निकाल ही रहे हैं।


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