Saturday, July 27, 2024
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अमीर होते देश में आत्महत्या करते लोग

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विवेकानंद माथने |

विचित्र विडंबना है कि जिस देश में दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने के जतन जारी हों, वहां आत्महत्याओं में लगातार बढ़ोतरी होती जाए। भारत सरकार आत्महत्याओं की बढ़ती संख्या और दर को रोकने में पूर्णता असफल हुई है। सभी को स्वास्थ्य सुविधा और हाथों को काम देने वाली शिक्षा देने में असफल हुई है। किसान और असंगठित कामगारों को सुनिश्चित आय प्रदान करने में असफल हुई है। बेरोजगारी दूर करने के उपाय करने और एमएसएमई (सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम) की नीति को प्रभावी ढंग से लागू करने में असफल हुई है। भारत सरकार की गलत नीतियों के कारण आत्महत्याओं के कारकों में बढ़ोतरी होने से आत्महत्याएं लगातार बढ़ रही हैं।

भारत में बढ़ती आत्महत्याएं चिंता का विषय है। वैसे इसके कई कारण दिये जा सकते हैं, लेकिन आत्महत्या मुक्त भारत की दिशा में आगे बढ़ने और उसके सही कारणों को जानकर उपाय करना जरुरी है। एनसीआरबी (नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो) की रिपोर्ट के अनुसार भारत में हुई आत्महत्याओं का आर्थिक, व्यवसायिक, शैक्षणिक और आयु के आधार पर विश्लेषण करने पर जो तस्वीर उभरती है, उससे स्पष्ट होता है कि बढ़ती आत्महत्याओं के लिये सरकारी नीतियां अधिक जिम्मेदार हैं।

एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार भारत में वर्ष 2022 में कुल 1 लाख 70 हजार 924 आत्महत्याएं हुई हैं और आत्महत्याओं की दर 12.4 रही है। भारत में प्रतिदिन 468 आत्महत्याएं हुई हैं। वर्ष 2014 में कुल 1 लाख 31 हजार 666 आत्महत्याएं हुई थीं और आत्महत्याओं की दर 10.6 रही थी। पिछले 9 साल में आत्महत्याएं और उसकी दर निरंतर बढ़ती जा रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के अनुसार 2019 में दुनिया में 7 लाख 3 हजार आत्महत्याएं हुई हैं। इसमें से 77 प्रतिशत आत्महत्याएं निम्न और मध्यम आय वाले देशों में हुई हैं। वैश्विक स्तर पर 15 से 29 साल के बच्चों में आत्महत्या मृत्यु का चौथा प्रमुख कारण रहा है। आत्महत्या की दर भेदभाव के शिकार हुये कमजोर समूहों में अधिक है। संख्या की दृष्टि से आत्महत्याओं में भारत दुनिया में नंबर एक पर है।

आत्महत्याओं के लिये मानसिक स्वास्थ्य, व्यक्तिगत समस्याऐं, सामाजिक और आर्थिक कारक प्रमुख कारण माने जाते हैं। मानसिक कारकों में अवसाद, चिंता, तनाव और सामाजिक-आर्थिक कारकों में गरीबी, बेरोजगारी, कर्ज, सामाजिक बहिष्कार, भेदभाव आत्महत्या के जोखिम को बढ़ाते हैं। संघर्ष, आपदा, हिंसा, दुर्व्यवहार, नुकसान का अनुभव और अकेलेपन की भावना आत्मघाती व्यवहार से करीबी से जुडी हुई है। संकट के क्षणों में आवेग में अधिक आत्महत्याएं होती हैं। शैक्षणिक स्थिति के आधार पर दसवीं कक्षा से कम पढ़े 67.9 प्रतिशत और दसवीं से बारहवीं कक्षा तक पढ़े 15.9 प्रतिशत लोगों ने आत्महत्याऐं की हैं। कुल आत्महत्याओं में 12 वीं कक्षा तक पढ़े 83.8 प्रतिशत लोगों ने आत्महत्या की हैं। इनमें से 9 प्रतिशत लोगों की शिक्षा की जानकारी नहीं है। इसमें बारहवीं से कम की संख्या जोड़ने पर बारहवीं तक पढ़े लोगों में आत्महत्याऐं करने वालों की संख्या में और बढ़ोतरी होगी। आत्महत्याओं में बारहवीं से अधिक पढ़े 7.2 प्रतिशत लोगों का समावेश है।

आर्थिक स्थिति के आधार पर वार्षिक 1 लाख रुपये से कम आय वर्ग में, याने मासिक 8 हजार रुपये से कम मासिक आय वर्ग में 64.3 प्रतिशत लोगों ने आत्महत्याऐं की हैं। वार्षिक 1 से 5 लाख रुपये आय वर्ग, याने मासिक 8 हजार से 42 हजार रुपये आय वर्ग में 30.7 प्रतिशत लोगों ने आत्महत्याऐं की हैं। कुल आत्महत्याओं में 5 लाख से कम आय वर्ग में 95 प्रतिशत लोगों ने और 5 लाख से अधिक आय वर्ग में 5 प्रतिशत लोगों ने आत्महत्या की हैं।

व्यवसायिक स्थिति के आधार पर गृहिणी 14.8 प्रतिशत, विद्यार्थी 7.6 प्रतिशत, बेरोजगार 9.2 प्रतिशत, स्वयं रोजगार करने वाले 11.4 प्रतिशत, खेती कार्य करने वाले 6.6 प्रतिशत, दैनिक मजदूरी करने वाले 26.4 प्रतिशत लोग हैं। वेतन पाने वाले 9.6 प्रतिशत और सेवानिवृत्त 0.8 प्रतिशत हैं। अन्य 13.5 प्रतिशत हैं। इससे एक बात स्पष्ट होती है कि लगभग 76 प्रतिशत आत्महत्याऐं असुरक्षित रोजगार के क्षेत्र में हुई हैं। अज्ञात आंकडों में जोड़ने से यह आंकडा और बढ़ेगा।
आयु के आधार पर कुल आत्महत्या पीडितों में सबसे अधिक 59 हजार 108 याने 34.58 प्रतिशत आत्महत्याएं 18 से 30 साल आयु के लोगों की हुई हैं और 54 हजार 351 याने 31.8 प्रतिशत आत्महत्याएं 30 से 45 साल आयु के लोगों की हुई हैं। व्यक्ति को आर्थिक और सामाजिक स्थिरता प्राप्त करने के लिहाज से यह उम्र सबसे महत्वपूर्ण होती है। कुल आत्महत्याओं में 5 लाख से कम आय वर्ग में 95 प्रतिशत लोगों ने आत्महत्या की हैं। 12 वीं कक्षा तक पढ़े 83.8 प्रतिशत लोगों ने आत्महत्या की है। 76 प्रतिशत से अधिक आत्महत्या असुरक्षित रोजगार के क्षेत्र में हुई है। रोजगार और आर्थिक स्थिरता प्राप्त करने की उम्र में 66.38 प्रतिशत आत्महत्या हुई हैं।

भारत में कुल आत्महत्याओं का आर्थिक, व्यवसायिक, शैक्षणिक और आयु के आधार पर विश्लेषण करने से स्पष्ट होता है कि आत्महत्याओं के लिये गरीबी, शिक्षा की कमी और असुरक्षित रोजगार अधिक जिम्मेदार है। ये आंकडे भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था, शिक्षा व्यवस्था और खेती-किसानी की दुर्दशा तथा बढ़ती बेरोजगारी से युवाओं में बढ़ते तनाव की स्थिति को दशार्ते हैं।

देश में 95 प्रतिशत किसानों की औसत आय 1 लाख रुपये से कम है। उनकी आय की कोई गारंटी नहीं है। किसानों के बेटी-बेटों की शादी में दिक्कत आ रही है। सरकार कहती है कि किसानों के सुशिक्षित बच्चे खेती नहीं करना चाहते, लेकिन उपरोक्त आकडों से यह स्पष्ट होता है कि जिन कारकों के चलते आत्महत्याऐं हो रही हैं, उन सभी में किसान परिवार के सदस्य किसी-न-किसी से जुडेÞ हैं। एनसीआरबी की रिपोर्ट में किसानों की आत्महत्याओं की संख्या कम दर्ज करके उसे छुपाने का प्रयास किया गया है।

कृषि कार्य में किसान का पूरा परिवार जुड़ा होता है। केवल खेती नाम पर नहीं होने या कर्ज ना होने के कारण किसी आत्महत्या को किसान की आत्महत्या दर्ज न करना किसानों के प्रति साजिश है। किसान परिवार में हुई आत्महत्या को खेती में दर्ज करना चाहिये। उद्योग और सार्वजनिक क्षेत्र को निजी कंपनियों के हाथों सौंपा जा रहा है। अब व्यापार को भी कारपोरेट्स के हवाले किया जा रहा है। पारिवारिक खेती को कारपोरेट खेती में बदला जा रहा है। देश के चंद कारपोरेट घरानों के पास संपत्ति इकठा हो रही है। दूसरी तरफ 80 करोड लोगों को 5 किलो अनाज पर आश्रित बनाया गया है।
भारत सरकार आत्महत्याओं की बढ़ती संख्या और दर को रोकने में पूर्णता असफल हुई है। सभी को स्वास्थ्य सुविधा और हाथों को काम देने वाली शिक्षा देने में असफल हुई है। किसान और असंगठित कामगारों को सुनिश्चित आय प्रदान करने में असफल हुई है। बेरोजगारी दूर करने के उपाय करने और एमएसएमई (सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम) की नीति को प्रभावी ढंग से लागू करने में असफल हुई है। भारत सरकार की गलत नीतियों के कारण आत्महत्याओं के कारकों में बढ़ोतरी होने से आत्महत्याऐं लगातार बढ़ रही हैं।


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