श्रीराम जन्मभूमि मंदिर,अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा समारोह 22 जनवरी को होना प्रस्तावित है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ व उसके सहयोगी संगठन तथा भारतीय जनता पार्टी व उसकी केंद्र व राज्य की सरकारें इस आयोजन को न केवल राष्ट्रीय अपितु अभूतपूर्व व भव्य बनाने के लिए दिन रात काम कर रही हैं। धार्मिक अनुष्ठान कहे जाने वाले इस पूरे आयोजन में हमारे देश के चार प्रमुख शंकराचार्य इस ऐतिहासिक व धार्मिक आयोजन पर अपनी असहमति दर्ज कराते हुए इसमें शामिल न होने का निर्णय लिया है। वैसे तो ओडिशा के पुरी में गोवर्धन मठ के शंकराचार्य निश्चलानंद सरस्वती, गुजरात में द्वारकाधाम में शारदा मठ के शंकराचार्य सदानंद सरस्वती, उत्तराखंड के बद्रिकाश्रम में ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद तथा दक्षिण भारत के रामेश्वरम में श्रृंगेरी मठ,के शंकराचार्य जगद्गुरु भारती तीर्थ सभी शंकराचार्यों ने सार्वजनिक तौर पर अपनी अपनी नाराजगी जाहिर करते हुए इसके कई अलग-अलग कारण बताए हैं। परंतु इनमें सबसे महत्वपूर्ण व विस्तृत साक्षात्कार बद्रिकाश्रम में ज्योतिर्मठ,के शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद द्वारा सुप्रतिष्ठित पत्रकार करण थापर को दिया गया। काबिले गौर है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ व उसके सहयोगी संगठन व भारतीय जनता पार्टी राम जन्मभूमि मंदिर आंदोलन के दौरान प्राय: कुंभ मेलों के दौरान या अन्य अवसरों पर देश के साधु संतों द्वारा आयोजित विशाल धर्म संसद को अपने मंदिर आंदोलन का न केवल अगुआकार बल्कि मंदिर निर्माण व आंदोलन संबन्धी सभी निर्णय लेने वाला संगठन बताती थी। मंदिर आंदोलन के दौरान अक्सर यह सुनाई देता था कि मंदिर या आंदोलन संबन्धी फैसले संत समाज ही करेगा। परंतु नरेंद्र मोदी के 2014 में सत्ता में आने के बाद तो गोया भाजपा व संघ ही न केवल देश बल्कि धर्म संबन्धी भी निर्णय अपनी इच्छा व राजनैतिक नफे नुक़्सान के अनुसार लेने लगा। यहां तक कि चारों शंकराचार्यों के अनुसार संतों से हिंदू धर्म के सबसे प्रमुख आराध्य भगवान राम की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा संबन्धी किसी भी तरह की परिचर्चा करना तक मुनासिब नहीं समझा गया? जब इन्हीं शंकराचार्यों ने प्राण प्रतिष्ठा के मुहूर्त के समय को लेकर और अधूरे मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा किए जाने को लेकर तमाम सवाल खड़े किए तो पेशेवर ट्रोलर्स व दरबारी मीडिया द्वारा इन्हीं सम्मानित शंकराचार्यों पर तरह तरह के लांछन लगाये जाने लगे? यहां तक कि भगवान राम को लेकर संतों के संप्रदाय तक पर बहस छेड़ दी गई? उनकी कारगुजारियों पर सवाल खड़े होने लगे? उन्हें कांग्रेसी बताया जाने लगा? यहां तक कि चारों पीठों के वास्तविक शंकराचार्यों के जवाब में फर्जी शंकराचार्य व पीठाधीश्वर तक बयानबाजी के लिए उतार दिए गए? किसी के पास शंकराचार्यों के इस सवाल का जवाब नहीं कि अधूरे मंदिर में मूर्ति स्थापना और प्राण प्रतिष्ठा कैसे हो सकती है? शंकराचार्यों के अनुसार केवल मंदिर का गर्भगृह तैय्यार होने मात्र पर ही मूर्ति स्थापना व प्राण प्रतिष्ठा बिल्कुल नहीं की जा सकती।
ज्योतिर्मठ, के शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद तो 22 जनवरी की तिथि का मुहूर्त निकालने को ही चुनौती देते हुए कहते हैं कि देश में जितने भी पंचांग प्रकाशित होते हैं, जिनमें पूरे वर्ष के शुभ मुहूर्त का उल्लेख होता है, उनमें किसी ने भी 22 जनवरी की तिथि को विशिष्ट मुहूर्त के रूप में प्रकाशित नहीं किया है। उन्होंने यह भी बताया की काशी के एक प्रतिष्ठित ज्योतिषी से यह कहा गया कि जनवरी माह में ही कोई शुभ मुहूर्त देखकर तिथि बताएं, लिहाजा ज्योतिषी जी ने आज्ञा पालन किया। अब सवाल यह है कि मंदिर भी अधूरा, शुभ मुहूर्त भी ऐसा नहीं, जिसे कहा जाए कि यह पांच सदियों से प्रतीक्षारत भगवन राम के मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा का अति विशिष्ट मुहूर्त हो? फिर आखिर यह आयोजन पूर्णत: राजनैतिक आयोजन नहीं तो इसे क्या कहा जाए? और जब शंकराचार्य जिन्हें बुलाया गया वे जा नहीं रहे और कुछ को बुलाया ही नहीं गया, कोई कह रहे हम ताली बजाने के लिए नहीं जाएंगे। ऐसे में कांग्रेस, सोनिया गांधी, खड़गे, अखिलेश या कम्युनिस्टों अथवा अन्य नेताओं के पीछे पड़ना या उन्हें राम विरोधी बताकर बिकाऊ मीडिया के हाथों उनके विरुद्ध मीडिया ट्रायल छेड़ना यह आखिर कैसा लोकतंत्र कैसी राजनीति तो कैसा धर्म?
भगवान राम के मंदिर का आयोजन वास्तव में ऐसा होना चाहिए कि केवल सभी साधु संत बल्कि सभी धर्मों व समुदायों के लोग, सभी राजनैतिक व सामाजिक दलों के लोग भी खुशी-खुशी इस पावन क्षण के साक्षी बनें, उसके भागीदार बनें। बजाये इसके बहुमत के नशे में मदमस्त वर्तमान सत्ता ने इस ऐतिहासिक अवसर पर शंकराचार्यों तक को आदर सम्मान व अहमियत कुछ भी नहीं दिया। यदि राजनीति के चाणक्य इस बात पर खुश होंगे कि इतिहास में यह लिखा जाऐगा कि राम लला को कौन लाया था तो उसी इतिहास में साथ ही यह भी दर्ज होगा कि सत्ता के अहंकार व स्वार्थपूर्ण राजनैतिक परिस्थितियों में ही जब रामलला विराजमान हो रहे थे तो उनका भवन (मंदिर) अधूरा था। यह भी कि उनके आगमन के समय फिल्मी दुनिया के लोग, उद्योगपति, खिलाड़ी, नेता आदि तो उपस्थित थे, परंतु चारों शंकराचार्य विरोध स्वरूप अनुपस्थित थे। यह भी कि अनेक राजनैतिक सामाजिक दलों ने इस आयोजन का बहिष्कार केवल इसलिए किया था कि इस धार्मिक आयोजन को पूरी तरह राजनैतिक आयोजन बना दिया गया था। स्वयं शंकराचार्यों का अनुमान है कि अभी मंदिर को पूर्ण रूप से तैयार होने में एक वर्ष और लग सकता है। और यह भी कि भगवान राम की मूर्ति प्राण प्रतिष्ठा के लिये रामनवमी से अच्छा दिन व मुहूर्त और कौन सा हो सकता है?