लगातार बढ़ती कीमतों, बिगड़ते स्वाद और बीमार करने वाला खाद्य-तेल उपभोक्ताओं तक कैसे पहुंचता है? बाजार और वैश्विक राजनीति उसे कितना प्रभावित करते हैं? एक जमाने के हमारे मूंगफली, नारियल, सरसों और तिल के देशी तेल कहां बिला गए हैं? सरकार ने खाद्य तेल के मामले में जो दखल दिया वह ‘आयात शुल्क’ कम करना था। इसका परिणाम है कि साल भर में आयात 18 फीसदी बढ़ गया, खाद्य तेल की कीमतें कम नहीं हुुर्इं (उनका बढ़ना भले कम हो गया है) और किसान हाय-हाय करने लगे हैं। चुनावी साल होने के चलते सरकार एक तरफ महंगाई के सवाल पर अतिरिक्त चौकसी बरत रही है तो वोट की ताकत दिखाते हुए किसान संगठन भी सरकार पर अपना दबाव बनाने का कोई अवसर नहीं चूक रहे हैं।
हरियाणा के सूरजमुखी उत्पादकों का ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ (एमएसपी) बढ़ाने की मांग वहां की सरकार ने जिस तेजी से स्वीकार की, वह एक रिकार्ड ही होगा। अगर किसी को ‘एमएसपी’ की नौटंकी और कीमतों के मामले में बाजार में मांग-आपूर्ति के स्वाभाविक खेल को समझना हो तो यह सबसे उपयुक्त समय है।
ऐसा चावल और गेहूं के मामले में भी समझा जा सकता है, लेकिन उससे आसान और सुविधाजनक है-दलहन और तिलहन की राजनीति और अर्थनीति को जानना। सत्तर के दशक तक खाद्य तेल और तिलहन के बाजार पर बड़े-बड़े ‘तेलिया सेठों’ की जकड़बंदी बन चुकी थी।
उनके ही बढ़ाए मूंगफली के तेलों की कीमत ने गुजरात के हास्टल का मेस बिल बिगाड़ा और वहां छात्रों की अगुआई में प्रसिद्ध ‘नवनिर्माण आंदोलन’ शुरू हुआ था जिसके एक ‘प्रोडक्ट’ हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी हैं। यही दौर भारत में खाद्यान्नों की आत्मनिर्भरता बनाने का भी था और दूध उत्पादन में जबरदस्त क्रांति का भी।
सो उसी ‘अमूल’ ने खाद्य तेलों के बाजार में ‘तेलिया सेठों’ का एकाधिकार तोड़ा और ‘धारा’ जैसा ब्रांड लांच किया जिसकी पकड़ देश के दो तिहाई डिब्बाबंद तेल बाजार पर हो गई। तभी शुरू हुए भूमंडलीकरण और उसमें तिलहन और दलहन संबंधी विश्वबैंक की सलाह (या दबाव!) ने सारा हिसाब पलट दिया।
आज भारत अपनी जरूरत का 56 फीसदी तेल विदेशों से लाता है जिसका बिल पेट्रोलियम के बाद नंबर दो का है। दूसरी ओर किसान रोज बेहाल होकर सड़क पर उतरते हैं और आम उपभोक्ता परेशान रहता है। यह तब है जबकि इन्हीं तीन दशकों में मूंगफली, नारियल, सरसों और तिल जैसे पारंपरिक तेलों का चलन (और पैदावार भी) कम हुआ है और सोयाबीन, पाम आयल, पामोलीन, कुसुम और सूरजमुखी जैसे तेलों का चलन बढ़ा है।
इनका स्वास्थ्य और हमारे स्वाद पर क्या असर हुआ है वह अलग चर्चा का विषय है, लेकिन हमारी जेब पर उनसे ज्यादा बुरा असर पड़ा है। पारंपरिक तिलहन का उत्पादन करने वाले छोटे किसान तो बिलाते जा रहे हैं। बड़े किसान तो फिर भी नए उत्पाद अपनाकर लाभ पाते हैं, लेकिन छोटा किसान इस बदलाव में खेती से ही विमुख हो रहा है। कथित ‘एमएसपी’ का लाभ भी बड़े किसान ही पाते हैं, जिनके पास बेचने को काफी पैदावार रहती है।
एक प्रयास आज के सबसे बड़े उद्यमियों में एक बाबा रामदेव कर रहे हैं जिस पर खुश हुआ जाए या झुंझलाया जाए यह समझ नहीं आता, लेकिन वह इतना बड़ा जरूर है कि उसकी चर्चा की जाए। देश में हाल में सबसे ज्यादा आयात पाम आयल का हो रहा है जिसके तेल को हमारे स्वास्थ्य और स्वाद दोनों के अनुकूल नहीं कहा जाता।
सस्ता होने और रिफाइनिंग से रंग-गंध और स्वाद से ‘मुक्त’ हो जाने के चलते उसका चलन और उसकी अन्य तेलों में मिलावट खूब होने लगी है। यही कारण है कि कुल तेल के आयात में उसका हिस्सा साठ फीसदी तक पहुँच गया है। बाबा रामदेव उसी की खेती देश में करवा रहे हैं और इसके लिए उन्होंने 12 राज्य सरकारों से जमीन और नर्सरी के लिए करार किया है।
वे स्थानीय किसानों को भी प्रोत्साहित कर रहे हैं। उनकी योजना पाँच लाख किसानों को साथ लेकर पाम के एक करोड़ पौधे लगाने की है। ठीक फसल हो तो एक एक पौधे से एक क्विंटल तक तेल वाले खजूर निकलते हैं। उन्होंने 26 नर्सरियां खोल ली हैं, जबकि योजना 197 नर्सरियां खोलने की है।
जब पाम आयल की खपत हो रही है और उसकी पैदावार भारत में संभव है तो यह एक तरीका है जिसे आम किसानों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए, क्योंकि इसकी पैदावार हमारे तिलहनों से काफी अधिक है। ऐसा सोयाबीन के मामले में पिछले पचास सालों से हो रहा है, जबकि उसके स्वाद और गंध को लेकर ही नहीं उसकी अर्थव्यवस्था को लेकर भी गंभीर शंका रही है।
असल में सोयाबीन तेल की जरूरत से ज्यादा अमेरिका और यूरोप के पशुओं के चारे के लिए लगाई जाती है जो उसकी पौष्टिक खली खाकर जल्दी बड़े होते हैं और उनका मांस खाया जाता है। तेल तो असल में ‘सिट्ठी’ है जो हमारे लिए छोड़ दिया जाता है।
अमेरिका और यूरोप को सोयाबीन तेल की जरूरत नहीं है।
सोयाबीन में जितना तेल होता है, मूंगफली,सरसों, तिल में उससे काफी ज्यादा तेल रहता है। पाम में जरूर सबसे ज्यादा तेल होता है, पर आधा एकड़, एक एकड़ जोत वाला किसान पाम लगाएगा या रबी की अन्य फसलों के साथ पाम भी पैदा कर लेगा यह नहीं कहा जा सकता। दस-पांच किलो अतिरिक्त उत्पादन को वह कहां ले जाएगा, यह भी समझना मुश्किल है। मांग-आपूर्ति से कीमतों के उतार-चढ़ाव पर फसल लगाना या बदलना तो उसके वश का ही रोग नहीं है।
मांग-आपूर्ति और कीमतों के उतार-चढ़ाव तथा किसान और उपभोक्ता के रिश्तों के बीच अगर ‘आढ़ती’ और ‘तेलिया सेठ’ वापस आते दिखते हैं तो सबसे बड़ा दखल तो सरकार का ही है जिसे सामान्य प्रशासन और वोट की राजनीति के लिए किसानों के साथ आम उपभोक्ताओं के हितों का खयाल रखना होता है। इस सरकार ने खाद्य तेल के मामले में जो दखल दिया वह ‘आयात शुल्क’ कम करना था।
इसका परिणाम है कि साल भर में आयात 18 फीसदी बढ़ गया, खाद्य तेल की कीमतें कम नहीं हुईं (उनका बढ़ना भले कम हो गया है) और किसान हाय-हाय करने लगे हैं। अभी कम-से-कम दो तिलहनों, सरसों और सोयाबीन की खुले बाजार की कीमतें ‘एमएसपी’ से नीचे आ चुकी हैं और ‘नाफेड’ जैसी संस्थाओं ने खरीद कम कर दी है, सरसों के सरकारी खरीद मूल्य से साढ़े तीन सौ रुपए नीचे बिक रहा है। कहना न होगा कि अगर ‘एमएसपी’ का लाभ किसान को नहीं मिल रहा है तो इस गिरावट का लाभ भी उपभोक्ता को नहीं मिल रहा है। सरकार की वोट की राजनीति कहां जाएगी, कहना मुश्किल है।
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