जिन देशों में धर्म का सियासी इस्तेमाल करने या होने देने और धर्म को शासन का आधार बनाने के परिणाम कितने अवांछनीय होते हैं या हो सकते हैं, यह देखना हो तो ईरान को देखना चाहिए। 1979 में ईरान के शाह मुहम्मद रजा पहलवी के खिलाफ हुई क्रान्ति में जहां मजहबी कट्टरवादी शक्तियां सक्रिय थीं, वहीं बहुत से लिबरल और सेकुलर समूह भी शामिल थे। लेकिन उस क्रान्ति के बाद मजहबी कट्टरवादी ताकतें सारी सत्ता पर काबिज हो गर्इं और दिनोंदिन अधिकाधिकि निरंकुश होती चली गर्इं। इस कट्टरता का कहर सबसे अधिक स्त्रियों को भुगतना पड़ा। लेकिन इस कट्टरता, इस्लामी दिशा-निर्देशों, ईरानी सेंसरशिप और ‘मॉरल पोलिसिंग’ को अंगूठा दिखाते हुए विरोध का अग्निशिखा जलाने का काम भी स्त्रियों ने ही किया।
कहानी, कविता, उपन्यास, पत्रकारिता, कार्टून, ब्लाग्स, खतो-किताबत, सिग्नेचर कैंपेन, फिल्मों, परफोर्मेंस, और अन्य माध्यमों का इस्तेमाल करते हुए स्त्रियों ने विद्रोह का बिगुल बजाया। यह अकारण नहीं है कि आज कोई भी क्षेत्र विद्रोह से अछूता नहीं है।
अनुवादक यादवेन्द्र ने ईरानी स्त्रियों के इस लोकतांत्रिक संघर्ष और विरोध की चिंगारियों को एकत्रित करके एक ऐतिहासिक दस्तावेज तैयार किया है, जिसमें आपको एक तरफ ईरानी स्त्रियों का संघर्ष और पीड़ाएं दिखाई देंगी, वही आजादी और बराबरी की उनकी तीव्र इच्छा भी दिखाई देगी।
‘घने अन्धकार में खुलती खिड़की’ (सेतु प्रकाशन प्रा.लि.) नामक इस पुस्तक का संकलन, अनुवाद और प्रस्तुतीकरण किया है प्रसिद्ध लेखक यादवेन्द्र ने। जेल संस्मरण में अनेक एक्टीविस्ट, उपन्यासकार, कहानीकारों के उनके अनुभव दर्ज़ हैं। ये स्त्रियाँ जेल में रहते हुए, दमन और उत्पीड़न के बीच भी आजादी के ख़्वाब देखती हैं। शहरनुश परसीपुर उपन्यासकार हैं।
उन्हें चार साल सात महीने की जेल की सजा सुनाई गई थी। ईरान से अमेरिका पहुँचकर उन्होंने अपने चार बार के जल अनुभवों को ‘प्रिजन मेमॉयर’ किताब में संकलित किया है। पुस्तक में इसके अंश हैं। वह बताती हैं कि किस तरह गोलियों की आवाजों को वे फटबॉल की आवाज बताया करते थे।
ईरान की स्त्रियों के जेल संस्मरणों में बेहद मार्मिक, त्रासद लेकिन आजादी के स्वप्न देखने वाले अनभव हैं, जहाँ स्त्रियाँ कैद में कल्पना के परिन्दों की उड़ान महसूस करती हैं, गर्म कम्बल की तरह एक-दूसरे को लपेटती हैं, दीवारों से कान लगाकर आजादी की आहट सुनती हैं, यातनाओं के बीच भी हँसी के फव्वारे उनके कानों में पहुँचते हैं।
अपने राजनीतिक विचारों और क्रियाकलापों के लिए जेल की कठोर सजडा भुगत चुकीं ईरानी कवयित्री और एक्टिविस्ट नसरीन परवाज को 1982 में मृत्युदण्ड की सजा सुनाई गई थी, लेकिन 1990 में उन्हें छोड़ दिया गया। अपने जेल मेमॉयर में उन्होंने लिखा-लिखना खुद को नया इंसान भी है। कभी-कभी ये लिखना चिट्ठियों के रूप में भी सामने आता है।
वामपन्थी छात्रनेताओं और फारसी के प्रमुख कवि माजिÞद नफीसी की पत्नी इज्जत ताबियाँ शाह विरोधी आन्दोलन में और फिर कट्टर धार्मिक हुकूमत के खिलाफ जी जान से शामिल थीं। 1982 में उन्हें गिरफ्तार करके गोलियों से उड़ा दिया गया। उन्होंने अपने पति को एक खत लिखा: मेरे प्यारे साथी (पति), मेरा जीवन छोटा था और हमें साथ-साथ रहने के लिए और भी कम समय मिला।
मेरी ख़्वाहिश मन में ही रह गई कि आपके साथ ज्यादा समय बिताऊं…अब तो यह मुमकिन भी नहीं है। ऐसे ही बहुत से खत पुस्तक में हैं जो स्त्रियों के सपनों और आजादी की उम्मीद में लिखे गए हैं। ये ऐसे खत हैं जो सरकार की ईरान को आउश्वित्ज बनाने कुइच्छा का खुलासा करते हैं।
ईरान की प्रमुख मानवाधिकार एक्टिविस्ट नरगिस मोहम्मदी का बेहद दर्दनाक पत्र हैं जिसमें वह कहती हैं, जेल में रहने बाद मैं बच्चों के सपनों से भी बाहर हो गई। स्त्रियों के साझा दुख तो इस पुस्तक में हैं ही लेकिन इन दुखों को क्रान्ति में बदल देने की तीव्र आकांक्षा भी है।
1992 में ‘जनान’ पत्रिका शुरू करने वाली शहरा शेरकत का कहना है, उन्हें लगता है कि आग जल रही हो तो उसके ऊपर राख डाल देनी चाहिए लेकिन वे मुगालते में रहते हैं-इससे आग की लपटें बस उस समय दिखाई नहीं देतीं और जब भी मौका मिलता है वे अपने उग्र रूप में सामने आ जाती हैं।
यादवेन्द्र ने आग के ऊपर डली उस राख को हटाने का काम इस पुस्तक के जरिये किया है। इस पुस्तक में वह आग हर क्षेत्र में दिखाई देती है। फारसी में अनेक कविता संकलनों और उपन्यास की लेखिका महास्ती शाहरोखी अपनी एक कविता में जंग के मुकाबले मुहब्बत को तरजीह देती है:
जब विलियम (शेक्सपियर) ने रोमियो की/जूलियट के साथ शादी रचाई/सिर्फ़ एक रात के लिए/वह भी कोरे कागज पर/या रंगमंच पर/इसी तरह एक रात के लिए ही सही/जंग के ऊपर भारी पड़ जाए मुहब्बत/कॉपी के कोरे पन्ने पर ही/तब कभी अनदेखा नहीं जाएगा साहित्य/सार्थक हो जाएगा साहित्य।
कोविड 19 के दौरान एक नर्स का काम करने वाले सज्जाद अलेई की कुछ कविताएँ गौर करने लायक है: पूरा शहर बीमारी की गिरफ्त में कैद है/पर मैं एक नर्स हूं/और सारा जीवन मैंने सीखा है/जोखिम उठाना ही
एक अन्य कविता: ईरान रहेगा/इसको तब्दील नहीं होने देना है/कभी भी/कब्रिस्तान में। यह भी दिलचस्प बात है कि धार्मिक कट्टरता का दमघोंटू धुआं ईरान में चाहे जितना सिर के ऊपर क्यों ने उड़ रहा हो ईरानियों की जिंदगी में सांस्कृतिक जिंदादिली भरपूर है।
जैनब मुसावी ईरान की पहली स्त्री कामेडियन हैं, जो सामाजिक मुद्दों के अलावा राजनीति और सेक्स चर्चा में शामिल होती हैं। इसके लिए उन्हें धमकियां मिलती हैं लेकिन उनके कदम कहीं नहीं डिगते। यादवेन्द्र जी ने इस किताब के लिए वर्षों मेहनत करके सामग्री जुटाई है।
इसके लिए तीन कहानियां-जोया परिजाद की किस्सा खरगोश और टमाटर का, मोनीरो रवानीपोर की प्यार की दुखभरी दास्ताम और फरनूश मोशिरी की मेरा मेंढ़क गा रहा है-भी जुटाई गई हैं। ये कहानियां अपने शिल्प और कहन की दृष्टि से ही नहीं, दमन के विरोध और आजादी की भी वकालत करती हैं।
विरोध और क्रांति के तार किस तरह एक-दूसरे से जुड़ते हैं यह भी इस पुस्तक को पढ़कर समझा जा सकता है। सिनेमा की इसमें क्या भूमिका हो सकती है, यह भी पुस्तक में कुछ फिल्मों से देखा जा सकता है। ईरान से निर्वासित मजिये मेशकिनी ने 2000 में एक फिल्म बनाई-द डे आई बिकेम वुमन।
इस फिल्म में ईरानी समाज में स्त्रियों की स्थिति दर्शाने वाली तीन कहानियां हैं-बच्ची, युवा स्त्री और वृद्ध महिला इसके प्रमुख किरदार हैं। कट्टरपंथी पुरुषप्रधाम समाज में साइकिल चलाने की प्रतिस्पर्धा में भाग लेने वाली युवा स्त्री के सामने आने वाली चुनौतियों पर आधारित है ये फिल्म। फिल्म में साइकिल को औरतों की आजादी का रूपक बताया गया है।
‘घने अन्धकार में खुलती खिड़की’ एक ऐतिहासिक जीवंत दस्तावेज है, जिसमें काल्पनिक कुछ भी नहीं है। यह पुस्तक दुनिया की तरफ उस खिड़की को खोलती है, जहाँ से आप स्त्रियों की गैर बराबरी और धार्मिक कट्टरता के विरुद्ध लड़ाई को देख सकते हैं, सुन सकते हैं आजादी की वह आवाज जो ईरान की स्त्रियां लगा रही हैं।
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