चना भारत देश मे सबसे महत्वपूर्ण दलहनी फसल है। चने को दालों का राजा कहा जाता है। विश्व के कुल चना उत्पादन का 70 प्रतिशत भारत में होता है। देश में कुल उगायी जाने वाली दलहन फसलों का उत्पादन लगभग 17.00 मिलियन टन प्रति वर्ष होता है। चने का उत्पादन कुल दलहन फसलों के उत्पादन का लगभग 45 प्रतिशत होता है।
मृदा का चुनाव एवं तैयारी
चने की खेती सभी प्रकार की मृदाओं में की जा सकती है, परंतु अच्छे जल निकास वाली हल्की दोमट मृदा इसके लिए उपयुक्त रहती है मृदा पीएचमान 6.6-7.2 चने की खेती के लिए उपयुक्त होती है। सिंचित क्षेत्र में पलेवा देकर 1-2 जुताइयां देशी हल से कर पाटा लगाकर खेत तैयार कर लेते हैं।
बुवाई का समय
अधिकतम पैदावार प्राप्त करने के लिए असिंचित व सिंचित क्षेत्र में चने की बुवाई करने का उचित समय क्रमश: अक्टूबर का प्रथम समय व द्वितीय पखवाड़ा है। जिन खेतों में उकटा का प्रकोप अधिक होता है वहां गहरी व देरी से बुवाई करना लाभदायक रहता है।
बीज दर
देसी चने की बुवाई के लिए 70-80 किलो ग्राम व बड़े बीज वाली काबुली किस्मों के लिए 80-90 किग्रा और देरी से बुवाई हेतु 90-100 किग्रा बीज प्रति हैक्टैयर की दर से प्रयोग करना चाहिए।
बुवाई की विधि व गहराई
अधिकतम पैदावार के लिए चने की बुवाई हमेशा कतार में करनी चाहिए। देसी चनें में कतार से कतार की दूरी 30 सेमी तथा काबुली में 30-45 सेमी रखना चाहिय। सिंचित क्षेत्र में 5-7 सेमी व बारानी क्षेत्रों में सरंक्षित नमी को देखते हुए 7-10 सेमी गहराई तक बुवाई की जा सकती है।
फसल के उगने की वृद्धि दर बीज के स्वास्थय, बीज की मृदा में गहराई, मृदा तापमान, भूमि की सतह की कठोरता एवं मृदा नमी पर निर्भर करती है। बुवाई ऐसी करनी चाहिये कि कम समय लगे और रोगों से बचाया जा सके। बुवाई की गहराई को मृदा किस्म व नमी के अनुसार निष्चित कर सकते है। उथली एवं जल्दी बुवाई करने से उकठा रोग लगने की सम्भावना अधिक रहती है।
बीजोपचार
जड़ गलन व उखटा रोग की रोकथाम के लिए 2.5 ग्राम थाईराम या 2 ग्राम मैन्कोजेब या 2 ग्राम कार्बेन्डेजियम प्रति किले बीज की दर से उपचारित करें। जिन क्षेत्रों में दीमक का प्रकोप अधिक होता है वहां 100 किलो बीज को 600 मिली क्लोरोपायरीफॉस 20 ईसी से बीज को उपचारित करें।
बीजों को सदैव राइजोबियम कल्चर से उपचारित करने के बाद ही बोना चाहिये इसके लिये एक हैक्टैयर क्षैत्रफल में चने की बुवाई करने के लिए बीज में तीन पैकेट (600 ग्राम) राइजोबियम कल्चर से बीज उपचारित करना चाहिए। इन कल्चर मिलें बीजों को छाया में सुखाने क बाद बुवाई करें।
पोषक तत्व प्रबंधन
चने की अच्छी पैदावार के लिए तीन वर्ष में कम से कम एक बार 8-10 टन अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद प्रति हैक्टैयर भूमि की तैयारी के समय अच्छी तरह बिखेर कर मिट्टी मिलाएं। चना एक दलहनी फसल होने के कारण अपनी जड़ो में सहजीवी सूक्ष्म बैक्टीरिया की सहायता से वायुमंडल में उपस्थित नत्रजन को जडों में संग्रहित कर पौधों को आवश्यक्तानुसार उपलब्ध कराते हैं। जिसमें भूमि की उर्वरा शक्ति बढती है। चने की फसल के लिए अधिक नत्रजन की आवश्यकता नहीं होती है।
उर्वरकों का प्रयोग
मिट्टी की जांच के हिसाब से ही उर्वरक का प्रयोग करना चाहिए। असिंचित क्षेत्रों में 10 किलो नाइट्रोजन और 25 किलो फास्फोरस और सिंचित क्षेत्र में बुवाई से पहले 20 किलो नाइट्रोजन और 40 फास्फोरस प्रति हेक्टेयर 12-15 सेमी की गहराई पर आखिरी जुताई के समय डालना चाहिए। दलहनी फसलों में गंधक देने से उपज के साथ-साथ गुणवता में सुधार होता है।
गंधक की पूर्ति सिंगल सुपर फॉस्फेट के प्रयोग के द्वारा की जाती है। चने की फसल में 300 किग्रा प्रति हैक्टेयर जिप्सम का प्रयोग व जस्ते, तांबे एवं लोहे की कमी को दूर करने के लिये क्रमश: 10 किलोग्राम जिंक सल्फेट 2.4 किलो ग्राम कॉपर सल्फेट तथा 10 किग्रा फेरस सल्फेट प्रति हैक्टैयर का प्रयोग भूमि में बुवाई के समय करना लाभदायक है।
किस्में
चने की किस्मों को दो वर्ग में विभाजित किया गया है-
- देसी
- काबुली
इस समय चने की बुवाई के लिए पूसा पूसा-256, केडब्लूआर-108, डीसीपी 92-3, केडीजी-1168, जीएनजी-1958, जेपी-14, जीएनजी-1581, पूर्वी उत्तर प्रदेश के लिए गुजरात चना-4, मैदानी क्षेत्रों के लिए के-850, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लिए आधार (आरएसजी-936), डब्लूसीजी-1, डब्लूसीजी-2 और बुन्देलखण्ड के लिए संस्तुत प्रजातियों जी-16 और काबुली चना की पूरे उत्तर प्रदेश के लिए संस्तुत प्रजाति एचके-94-134 पूर्वी उत्तर प्रदेश के लिए पूसा-1003, पश्चिम उत्तर प्रदेश के लिए चमत्कार (वीजी-1053) और बुन्देलखण्ड के लिए संस्तुत जीएनजी-1985, उज्जवल व शुभ्रा प्रजातियों की बुवाई करें।
सिंचाई प्रबंधन
पहली सिंचाई बुवाई के 40-45 दिन बाद एवं दूसरी सिंचाई फलियां बनते समय ( 60 दिन पर ) करनी चाहिये। ध्यान रखे सिंचाई हमेशा हल्की ही करें क्योंकि भारी सिंचाई से फसल पीली पड़ जाती है।