एक नगर में एक विशाल मंदिर का निर्माण होना था। जोर-शोर से चंदा एकत्र किया जाने लगा। सबसे ज्यादा दान देने वाले का नाम दान पट्टिका में सबसे ऊपर मोटे अक्षरों में लिखा जाना था।
शहर के प्रतिष्ठित लोग लाला भगवान राय के पास पहुंचे और उन्हें अधिक से अधिक चंदा देने के लिए उकसाने लगे।
शहर में ऐसा और कोई नहीं था जो उनसे ज्यादा चंदा देने का सामर्थ्य रखता हो। चंदा लेने को विश्वास था कि लाला जी नाम लिखाने के लिए सबसे ज्यादा चंदा ही देंगे।
अब तक की सबसे ज्यादा दान राशि की रसीद जमाकर्ताओं ने लाला जी के सामने रख दी। लाला जी ने पूछा- भाई, तुम मुझसे क्या चाहते हो।
आगंतुकों में से एक ने कहा कि एक सज्जन ने 11 लाख रुपये दिए हैं। आप कम से कम 12 लाख रुपये अवश्य दें, जिससे दान पट्टिका में आपका नाम सबसे ऊपर मोटे अक्षरों में लिखा जा सके।
लाला जी कुछ सोचने लगे और थोड़ी देर बाद बोले, -पैसे तो मैं दे दूंगा, पर शर्त यही है कि दान पट्टिका में सबसे ऊपर मोटे अक्षरों में नाम उन्हीं सज्जन का लिखा जाए जिन्होंने अब तक सबसे ज्यादा रकम दी है। इसके बाद लाला जी ने 20 लाख रुपये देते हुए कहा कि दो रसीदें काट दीजिए।
एक 10 लाख की मेरे नाम से और दूसरी 10 लाख की मेरी पत्नी के नाम से। पट्टिका पर सबसे ऊपर मोटे अक्षरों में नाम लिखवाने के उद्देश्य को ध्यान में रखकर दिया गया दान वास्तव में यश की कामना से दिया गया दान है, जो सकाम कर्म की श्रेणी में आता है।
लेकिन दान सदैव यश की कामना से ऊपर उठकर देना ही श्रेयस्कर है। निष्काम भाव से दिया गया दान मन को जो सात्विक सुख और आनंद देता है, उसका आकलन संभव नहीं।