अयोध्या में अभी तक अधबने मंदिर को लेकर देश भर में चलाई जा रही मुहिम की श्रृंखला में मध्य प्रदेश की सरकार ने बची खुची संवैधानिक मर्यादा को भी लांघ दिया है। मध्यप्रदेश सरकार के धार्मिक न्यास एवं धर्मस्व विभाग के अपर मुख्य सचिव के हस्ताक्षरों से 12 जनवरी को समस्त कलेक्टरों के लिए एक आदेश जारी किया है। इस आदेश में उन्होंने अयोध्या में निमार्णाधीन अधूरी इमारत-जिसे राम मंदिर कहा जा रहा है- के प्राण प्रतिष्ठा समारोह के तारतम्य में 16 से 22 जनवरी तक सभी सरकारी भवनों, स्कूलों, मंदिरों, गांवों, कस्बों, शहरों में किये जाने वाले आयोजनों को सूचीबद्ध करते हुए कलेक्टरों को उनके प्रबंधन के निर्देश दिए हैं। इस तरह पूरे सप्ताह भर तक मध्य प्रदेश की सरकार, जिस काम के लिए उसे चुना गया है अपना वह सारा कामकाज छोड़कर, दीये जलायेगी, मन्दिर सजायेगी, भंडारे करवायेगी और सरकारी बिल्डिंगों पर झालरें लटकवायेगी। इस आशय के बाकायदा आदेश भी जारी कर दिए गए हैं। भारत का संविधान धर्म और उसके साथ शासन के रिश्तों और बर्ताब के बारे में बिलकुल भी अस्पष्ट नहीं है, यह एकदम साफ साफ प्रावधान करता है। संविधान के अनुच्छेद 25 से लेकर 28 तक में इस बारे में स्पष्ट रूप से निर्धारित किया गया है। एकदम दो टूक शब्दों में कहा गया है कि भारत का कोई भी एक आधिकारिक राज्य धर्म नहीं होगा। देश में रहने वाले हर व्यक्ति को किसी भी धर्म को मानने, उसके अनुरूप आचरण करने और अपने धर्म का प्रचार करने का अधिकार होगा। उसके इस अधिकार का संरक्षण करने की गारंटी संविधान देता है और कहता है कि ऐसा हो सके यह सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी सरकार की होगी। संविधान यह भी कहता है कि सरकार किसी भी एक धर्म के प्रति राग या द्वेष से काम नहीं लेगी, न किसी धर्म का विरोध किया जाएगा न ही किसी खास धर्म का समर्थन किया जाएगा।
संविधान के अनुच्छेद 25 में प्रत्येक व्यक्ति को अपने धार्मिक विश्वास और सिद्धांतों का प्रसार करने का अधिकार दिया गया है। अनुच्छेद 27 के अनुसार नागरिकों को किसी विशिष्ट धर्म या धार्मिक संस्था की स्थापना या पोषण के बदले में टैक्स देने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा। वहीं अनुच्छेद 28 के द्वारा सरकारी शिक्षण संस्थाओं में किसी प्रकार की धार्मिक शिक्षा नहीं दिए जाने का प्रावधान किया गया है। अपनी बात को और स्पष्ट करते हुए यह अनुच्छेद कहता है कि ‘राज्य-निधि से पूर्णत: पोषित किसी शिक्षा संस्था में कोई धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी।’ यह भी कि ‘राज्य से मान्यता प्राप्त या राज्य-निधि से सहायता पाने वाली शिक्षा संस्था में उपस्थित होने वाले किसी व्यक्ति को ऐसी संस्था में दी जाने वाली धार्मिक शिक्षा में भाग लेने के लिए या ऐसी संस्था में या उससे संलग्न स्थान में की जाने वाली धार्मिक उपासना में उपस्थित होने के लिए तब तक बाध्य नहीं किया जाएगा, जब तक कि उस व्यक्ति ने, या यदि वह अवयस्क है तो उसके संरक्षक ने, इसके लिए अपनी सहमति नहीं दे दी है।’
भारत का संविधान 251 पृष्ठों में लिखी 395 अनुच्छेद और 25 भागों में विभाजित, 12 अनुसूचियों में लिखे कुछ नियम कानूनों का संकलन नहीं है, यह कुछ पढ़े लिखे समझदार लोगों द्वारा अपनी पसंद और रूचि से लिखी बातों का संग्रह भी नहीं है। यह शून्य में से अवतरित, नाजिल हुई अपौरुषेय किताब भी नहीं है; यह कोई दो सौ साल तक चली आजादी की लड़ाई में कुर्बान हुए शहीदों की अस्थि की कलम से उनके बहाए खून से लिखी गयी इबारत है। यह इंसानों के इतिहास की विराट लड़ाई में शामिल सभी धाराओं के आजाद भारत के स्वरूप के बारे में समझदारी का सार है। यह 5 हजार वर्षों की सभ्यता के हासिल अनुभवों का निचोड़ है। यह धमार्धारित राष्ट्र की बेहूदा और पागलपन की अवधारणा का धिक्कार और नकार है। यह भारत को दूसरा पाकिस्तान बनाने की कोशिश का अस्वीकार है।
सत्ता और धर्म को अलग रखने को लेकर बहसें आजादी की लड़ाई के तीखे दमन के बीच भी चलीं। अपनी हर प्रार्थना सभा में रघुपति राघव राजा राम गाने और गवाने वाले, एक जहरीली विचारधारा से मंत्रबिद्ध उन्मादी हत्यारे की पिस्तौल से निकली गोलियां खाने के बाद जिनके मुंह से आखिरी शब्द ‘हे राम’ निकले वे पक्के हिन्दू महात्मा गांधी भी कहते थे कि ‘राज्य का कोई धर्म नहीं हो सकता, भले उसे मानने वाली आबादी 100 फीसदी क्यों न हो। धर्म एक व्यक्तिगत मामला है इसका राज्य के साथ कोई संबंध नहीं होना चाहिए।’ वे कहते थे कि ‘राजनीति में धर्म बिलकुल नहीं होना चाहिए, मैं यदि कभी डिक्टेटर बना तो राजनीति में धर्म को पूरी तरह प्रतिबंधित कर दूंगा।’
देश में रामराज्य लाने की बात कहने वाले गांधी कहते थे कि ‘मैं जिस रामराज्य की बात कहता हूं उसका मतलब राम का या धर्म का राज नहीं है, मैं जब पख्तूनों के बीच जाता हूं तो खुदाई राज और ईसाइयों के बीच जाता हूं तो गॉड के राज की बात करता हूं, इसका मतलब धार्मिक राज नहीं है, समता और सहिष्णुता का शासन है, नैतिक समाज का आधार है।’ उन्होंने बार बार कहा कि ‘धर्म राष्ट्रीयता का आधार नहीं हो सकता। धर्म और संस्कृति अलग अलग है।’ गांधी अकेले नहीं थे- उनकी धारा के सभी नेता उनके साथ थे। उनकी रीति नीति से असहमत भी इस मामले में उनके साथ थे। भगतसिंह से लेकर समाजवादियों, वामपंथियों, जाति वर्ण के शोषण निर्मूलन की समर्थक पेरियार, डॉ अम्बेडकर जैसी धाराओं सहित सभी आन्दोलन और संगठन इस मामले में एकमत थे।
इसी आम राय का नतीजा था कि जो पाकिस्तान की तर्ज पर भारत को भी धमार्धारित राष्ट्र बनाना चाहते थे, मुहम्मद अली जिन्ना से भी 20 साल पहले जो हिंदुअओं के लिए अलग राष्ट्र की मांग कर चुके थे, कुम्भ के मेले में बिछड़े जिन्ना के उन सहोदरों को भारत ने-समूचे भारत ने-निर्णायक रूप से ठुकरा दिया था। इसलिए मध्यप्रदेश सरकार का 12 जनवरी का आदेश इस सबका विलोम और तिरस्कार दोनों है।
पिछले दो सप्ताहों से आ रही खबरों से अब आम हिंदुस्तानी भी समझ चुके हैं कि अयोध्या के आयोजन से उस हिंदू धर्म का भी कितना संबंध है जिसके नाम से देश की लंका लगाने की यह विराट परियोजना लाई गयी है। अधबने मंदिर के लिए खरीदी गयी जमीन के घोटालों के लिए ज्यादा चर्चित, मोदी सरकार द्वारा गठित न्यास के सचिव चम्पत राय का इस मंदिर को सभी भारतीयों, सभी हिंदुओं का न मानना और इसे भारतीय धार्मिक परम्पराओं के सिर्फ एक छोटे से सम्प्रदाय-रामानंदी सम्प्रदाय-का बताना, शैव, शाक्त, संन्यासियों सहित सैकड़ों धार्मिक धाराओं को इससे दूर रखना दूसरा उदाहरण है। रामभद्राचार्य के अभद्रतम बोल वचन तीसरा उदाहरण है। ऐसे उदाहरण अनेक हैं जो इस बात को आईने की तरह साफ कर देते हैं कि यह धर्म के नाम पर, धर्म की कीमत पर, धर्म की मर्यादा और उसमे लोक आस्था का अलाव जलाकर उस पर एक पार्टी विशेष-भाजपा-द्वारा अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने का धतकरम है। इस पार्टी को भरम है कि ऐसा करके वह कुछ महीनों बाद होने वाले चुनावों को जीतने लायक कुहासा और अन्धेरा पैदा करने में कामयाब हो जाएगी।