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अमृतवाणी
- सहज जीवन
प्रतिज्ञा, शपथ, वचन आदि सारी बातें मनुष्य के कमजोर पक्ष को उजागर करती हैं। कहीं सुना है कि किसी मां को यह प्रतिज्ञा दिलाई जाती हो कि वह अपने बच्चे को अवश्य पालेगी? ऐसी कोई प्रतिज्ञा नहीं होती, क्योंकि यह प्रकृति की एक सामान्य प्रक्रिया है। वचनों की प्रक्रिया तो मनुष्य निर्मित नियमों को मानने में लागू होती है, जैसे विवाह संस्था, नौकरी, न्यायप्रक्रिया आदि। हिंदू विवाह में पति-पत्नी द्वारा सात वचन निभाने की प्रक्रिया होती है, क्योंकि यह उतना अटूट रिश्ता नहीं है, जितना माता और संतान का। इसलिए वचन निबाहने की प्रक्रिया अपनाई जाती है। वास्तविक स्थिति यह है कि जब हम कहते हैं कि यह मेरा निश्चय है या ऐसा मैंने तय किया है, तो हम स्वयं को विश्वास दिला रहे होते हैं कि हम ‘यह’ कर सकते हैं।ये प्रतिज्ञाएं। शाप देना भी जैसे खुद ही शापित हो जाना है। पौराणिक कथाओं में अनेक उदाहरण ऐसे हैं, जब शाप देने वाले को शाप देते ही तुरंत पछतावा हुआ और उसने अपने शाप से मुक्त होने का उपाय भी उसी क्षण बता दिया। किसी भी कमजोर व्यक्ति के आकस्मिक क्रोध की परिणति ही शाप है। शाप देने वाले की मानसिकता भी लगभग वही है, जो प्रतिज्ञा करने वाले की। शाप वही देता है, जो प्रत्यक्ष रूप से प्रतिशोध लेने में सक्षम नहीं होता। जो सक्षम होगा, वह तो तुरंत ही बदला ले लेगा। संतुलित मनुष्य सहज रूप से जीवन जीता है। प्रतिज्ञा, शाप, वचन, निरर्थक मर्यादा, कोरे आदर्श, आदि एक बुद्धिमान और संतुलित मनुष्य के जीवन में कोई स्थान नहीं रखते। सहजता से जिया जीवन ही श्रेष्ठतम जीवन है।
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