Thursday, April 18, 2024
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शरिया कानून और महिलाओं पर बेइंतहा जुल्म

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जनवाणी ब्यूरो |

नई दिल्ली: खतरनाक रीति नीति वाले तालिबान ने दोबारा अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया है। वहां के लोगों के जेहन में तालिबान की वर्ष 1996 से 2001 के बीच रही हुकूमत की यादें ताजा हैं। तब लोगों को आजादी नसीब नहीं थी। तालिबान आतंकियों का खौफ इतना था कि दूसरे देशों से लोग अफगानिस्तान पहुंचने में कतराते थे। यही वजह है कि जब तालिबान ने राजधानी काबुल पर भी कब्जा कर लिया तो एयरपोर्ट पर लोग टूट पड़े।

सोमवार को तो उड़ान भर रहे अमेरिकी वायुसेना के विमान के टायरों पर ही लोग बैठ गए। आसमान से गिरने पर तीन लोगों की मौत हो गई। जानते हैं कि आखिर तालिबान की पिछली हुकूमत में ऐसा क्या था, जिसे याद कर वहां के लोग इस बार जोखिम नहीं उठाना चाहते और मुल्क छोड़कर जाना चाहते हैं

पिछली हुकूमत में तालिबान के ये थे नियम

  •  महिलाएं सड़कों पर बिना बुर्के के नहीं निकल सकती थीं। उनके साथ किसी पुरुष रिश्तेदार की मौजूदगी जरूरी रहती थी।
  •  महिलाओं को घरों की बालकनी में निकलने की इजाजत नहीं थी।
  •  महिलाओं को सड़कों से इमारतों के अंदर न देख सके, इसके लिए ग्राउंड फ्लोर और फर्स्ट फ्लोर की सभी खिड़कियों के शीशों को या तो पेंट कर दिया जाता था या स्क्रीन से ढंक दिया जाता था।
  •  कोई पुरुष महिलाओं के कदमों की आहट न सुन सके, इसलिए महिलाओं को हाई हील के जूते पहने की इजाजत नहीं थी।
  •  कोई अजनबी न सुन ले, इसलिए महिलाएं सार्वजनिक तौर पर तेज आवाज में बात नहीं कर सकती थीं।
  •  वे किसी फिल्म, अखबार या पत्रिकाओं के लिए अपनी तस्वीरें नहीं दे सकती थीं
  •  उस वक्त ऐसी कई खबरें सामने आई थीं, जिनमें यह कह गया था कि तालिबान के आतंकी घर-घर जाकर 12 से 45 साल उम्र की महिलाओं की सूची तैयार करते थे। इसके बाद ऐसी महिलाओं को आतंकियों से शादी करने के लिए मजबूर किया जाता था।
  •   दिसंबर 1996 में काबुल में 225 महिलाओं को ड्रेस कोड का पालन नहीं करने पर कोड़े लगाने की सजा सुनाई गई थी।
  •  लड़कियों को स्कूल जाने की इजाजत नहीं थी।
  •  पूरे अफगानिस्तान में संगीत और खेल गतिविधियों पर पाबंदी थी।
  •  पुरुषों को अपनी दाढ़ी साफ कराने की इजाजत नहीं थी।
  •  आम लोगों को शिकायतें करने का अधिकार नहीं था।

पश्तो भाषा का शब्द है तालिबान, असल अर्थ है विद्यार्थी

तालिबान शब्द अफगानिस्तान में बोली जाने वाली पश्तो भाषा का शब्द है। यूनेस्को के अनुसार अफगानिस्तान के करीब 55 फीसदी लोगों की यही भाषा है। इस शब्द का असल अर्थ होता है विद्यार्थी। लेकिन आज यह शब्द खतरनाक आतंकी संगठन पर्याय बन चुका है। इसकी स्थापना कुख्यात आतंकी रहे मुल्ला उमर ने की  थी। सितंबर 1994 में कंधार में उसने 50 लड़कों के साथ यह संगठन बनाया था। मुख्यत: पश्तून लोगों का यह आंदोलन सुन्नी इस्लामिक धर्म की शिक्षा देने वाले मदरसों से जुड़े लोगों ने खड़ा किया गया था। रिपोर्ट्स के मुताबिक उस समय पाकिस्तान स्थित इन मदरसों की फंडिंग सऊदी अरब करता था।

2001 में बामियान में बुद्ध मूर्तियों को बम से उड़ाया था

तालिबान का खौफनाक कट्टरपंथी चेहरा तब दुनिया के सामने आया जब साल 2001 में उसके लड़ाकों ने मध्य अफगानिस्तान में स्थित प्रसिद्ध बामियान की बुद्ध मूर्तियों को बम से उड़ा दिया। इस वाकये की पूरी दुनिया में निंदा हुई थी। तालिबान के उभार के लिए पाकिस्तान को ही जिम्मेदार माना जाता है, लेकिन वह इससे इनकार करता आया है। जो अफगानी शुरुआती दौर में तालिबानी आंदोलन में शामिल हुए, उनमें से ज्यादातर ने पाकिस्तानी मदरसों में शिक्षा पाई थी। पाकिस्तान उन तीन देशों में से भी एक है, जिन्होंने अफगानिस्तान में तालिबान के शासन को मान्यता दी थी। अन्य दो देश सऊदी अरब और यूएई थे।

 

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