Saturday, July 27, 2024
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बढ़ती गर्मी के आने लगे दुष्प्रभाव

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MANISH KUMAR CHAUDHARYदुनिया भर में तापमान बढ़ने के कारण 2024 गर्मी के रिकॉर्ड तोड़ रहा है। दुनिया के कई हिस्से अभूतपूर्व गर्मी का अनुभव कर रहे हैं। इसमें दक्षिणी गोलार्ध-जहां गर्मी होती है, और उत्तरी गोलार्ध-जहां सर्दी होती है, भी शामिल हैं। जापान, केन्या, नाइजीरिया, ब्राजील, थाईलैंड, आॅस्ट्रेलिया और स्पेन सभी ने पिछले कुछ हफ्तों में अत्यधिक या रिकॉर्ड-तोड़ तापमान का अनुभव किया है। औसत 20 डिग्री तापमान वाले देशों में 45 डिग्री तक तापमान पहुंच जाना किसी त्रासदी से कम नहीं है। यदि वर्तमान स्थितियां 2023 की चरम मौसम संबंधी कहानियों की प्रतिध्वनि करती प्रतीत होती हैं, तो ऐसा इसलिए है क्योंकि उनके पीछे कई कारक यथावत बने हुए हैं। दुनिया अभी भी अल नीनो की चपेट में है, जो प्रशांत महासागर के तापमान चक्र का गर्म चरण है। अल नीनो दुनिया भर में गर्मी को बढ़ाता है, खासकर नवंबर और मार्च के बीच। इंटरगवर्नमेंटल पैनल आॅन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की छठी असेसमेंट रिपोर्ट में पाया गया कि दुनिया पिछले आकलन के हिसाब से 10 साल पहले ही लगभग वर्ष 2030 तक 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक गर्म हो सकती है। बात भारत की करें तो आने वाले समय में भारत को न सिर्फ लगातार तीव्र गर्मी का अनुभव करना होगा, बल्कि अत्यधिक वर्षा की घटनाओं और अनिश्चित मानसून के साथ-साथ, मौसम संबंधी आपदाओं का सामना करना पड़ेगा। तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस के भीतर सीमित करना भारत जैसे देश के लिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि हम यहां पहले ही चक्रवात, तूफान, बाढ़, सूखा और हीट-वेव आदि की बढ़ती संख्या का सामना कर रहे हैं।

जलवायु परिवर्तन के कारण पृथ्वी का गर्म होना पूरे विश्व में या पूरे वर्ष समान रूप से नहीं फैला है। उदाहरण के लिए, ध्रुवीय क्षेत्र शेष विश्व की तुलना में चार गुना तेजी से गर्म हो रहे हैं। पिछले साल प्रकाशित पांचवीं राष्ट्रीय जलवायु आकलन रिपोर्ट के अनुसार, अमेरिका में कई उत्तरी राज्यों में सर्दियां गर्मियों की तुलना में दोगुनी तेजी से गर्म हो रही हैं। बड़ी बात यह है कि दक्षिण में भूमि की तुलना में आनुपातिक रूप से अधिक महासागर हैं। महासागर गर्मी को अवशोषित करते हैं और बड़े तापमान के उतार-चढ़ाव के खिलाफ बफर के रूप में कार्य करते हैं, इसलिए सर्दियां आमतौर पर बहुत अधिक ठंडी नहीं होती हैं और गर्मियां अक्सर प्रचंड स्तर तक नहीं पहुंचती। लेकिन पिछले साल से दुनिया के महासागर असामान्य रूप से गर्म हो गए हैं। भूमध्य रेखा के पास विश्व के महासागरों का तापमान अभी रिकॉर्ड उच्च स्तर पर बना हुआ है। गर्मी को अवशोषित करने के अलावा, महासागर मानवता के लगभग 30 प्रतिशत कार्बन डाइआॅक्साइड उत्सर्जन को सोख लेते हैं। उच्च तापमान और अधिक कार्बन डाइआॅक्साइड का संयोजन पानी के रसायन को बदल रहा है। हाल के महीनों में इससे मूंगा चट्टानों जैसे नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र को खतरा पैदा हो गया है। विश्व की सभी बड़ी पर्वत मालाएं आल्प्स, एंडीज, रॉकीज, अलास्का, हिमालय बर्फ विहीन होती जा रही हैं। हमेशा बर्फ से ढके ग्रीनलैंड और अंटार्कटिका 150 से 200 क्यूबिक किलोमीटर बर्फ हर साल खो रहे हैं।

पृथ्वी के महासागर जीवाश्म-र्इंधन के जलने से गर्म हो रहे हैं और अपने ध्रुवीय छोर पर समुद्री बर्फ खो रहे हैं। अंटार्कटिका महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह समुद्र और आकाश दोनों को प्रभावित करता है। जैसे-जैसे इसके चारों ओर का पानी जमता और पिघलता है, इसके ग्लेशियर समुद्र में पिघलते हैं, यह क्षेत्र समुद्री धाराओं में पोषक तत्वों के प्रवाह को बदलता है और दुनिया भर में बादलों और वर्षा को आकार देता है। शोधकर्ताओं ने चेतावनी दी है कि यदि अंटार्कटिका की सारी बर्फ पिघल जाए, तो इससे दुनिया भर में समुद्र का स्तर 60 मीटर से अधिक बढ़ सकता है। इधर ऊर्जा से संबंधित कार्बन डाइआॅक्साइड उत्सर्जन 2023 में नई ऊंचाई पर पहुंच गया। अब भी प्रति सेकंड 1,337 टन कार्बन डाइआॅक्साइड (सीओटू) उत्सर्जित होने के बावजूद हम इतनी तेजी से उत्सर्जन में कमी नहीं कर पा रहे हैं कि जलवायु संबंधी खतरों को उस स्तर के भीतर रख सकें, जिससे हमारी स्वास्थ्य प्रणालियां निपट सकें। आज भी एक औसत अमेरिकी हर साल वायुमंडल में 14.5 मीट्रिक टन सीओटू उत्सर्जित करता है, जिसकी तुलना में एक औसत भारतीय का सालाना उत्सर्जन 2.9 मीट्रिक टन ही है।

यदि कुछ देश जानबूझकर ग्रीन हाउस गैसों के साथ वातावरण को प्रदूषित कर रहे हैं, और परिणामस्वरूप अंटार्कटिका प्रभावित हो रहा है, तो इसके मायने यही हैं कि संधि प्रोटोकॉल का उसके हस्ताक्षरकर्ताओं द्वारा उल्लंघन किया जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र को इसके बारे में कुछ ठोस सोचना-करना होगा। गौरतलब है कि विकसित देशों के लिए नेट-जीरो लक्ष्य हासिल करना उन पूर्व उपनिवेशों की तुलना में कहीं अधिक आसान है, जो अभी अपने औद्योगिक विकास चक्र के बीच में ही हैं। ग्लोबल वार्मिंग को रोकने के लिए 2015 पेरिस जलवायु समझौते को अपनाए हुए लगभग एक दशक हो गया है। समझौते में सबसे महत्वाकांक्षी लक्ष्यों को पूरा करने के लिए देशों को 2030 तक वैश्विक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में कटौती करनी है, जो सदी के मध्य तक शुद्ध शून्य तक पहुंच जाएगी। लेकिन हम विपरीत दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी के एक नए विश्लेषण के अनुसार, 2023 में ऊर्जा से संबंधित उत्सर्जन में 410 मिलियन मीट्रिक टन की वृद्धि हुई। यह लगभग 1,000 से अधिक नए गैस-चालित बिजली संयंत्रों को जोड़ने से होने वाले वार्षिक प्रदूषण के बराबर है।

बढ़ते ताप के अन्य दुष्प्रभाव भी सामने आए हैं। तेजी से गर्म हो रही धरती के चलते जंगलों में आग लगने की आशंका बढ़ गई है। मौसम की अतिरेकता का मतलब है ज्यादा तेज, गर्म और शुष्क हवा, जो आग की तीव्रता और विस्तार को बढ़ा देती है। ऐसे इलाके जहां दावानल पहले भी होता आया था, वे तो सुलग ही रहे हैं, साथ ही कई अप्रत्याशित इलाकों में भी आग लग रही है। ग्लोबल वार्मिंग दुनिया भर में सूखे और लू को बढ़ा रही है। जो इलाके जंगलों की आग से पूरी तरह सुरक्षित समझे जाते थे, वे भी इसकी चपेट में आ रहे हैं। भारत, आॅस्ट्रेलिया और साइबेरिया जैसे इलाकों में वाइल्ड फायर की घटनाएं चिंताजनक स्तर तक बढ़ गई हैं। जंगल की आग जब विकराल रूप धारण करती है तो आग बुझाने के तमाम मौजूदा संसाधन कितने बौने और बेबस नजर आते हैं, हाल ही उत्तराखंड में कुमाऊं के जंगलों में लगी आग से यह स्पष्ट हो रहा है। उत्तराखंड में पिछले वर्ष मार्च और अप्रैल में आग लगने की 1850 घटनाएं दर्ज हुईं, वहीं इस साल इसी अवधि में यह बढ़कर 6295 तक पहुंच गर्इं। हरिद्वार को छोड़कर राज्य के सभी जिलों में मार्च-अप्रैल महीने में 2023 की तुलना में 2024 में आग लगने की घटनाएं बढ़ी हैं। विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि वर्ष 2050 तक ऐसी घटनाएं खतरनाक स्तर तक पहुंच जाएंगी। यहां तक कि आर्कटिक जैसे क्षेत्र भी जंगल की आग से अछूते नहीं रहेंगे।


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